प्रकृति भली जग की जननी है

         (किशोरों के लिए गीत )



 प्रकृति भली, जग की जननी है 


सब प्राणी को देती जीवन 

यह रचती नदिया-पर्वत-वन,

भाँति -भाँति के अन्न-फूल-फल 

न्योछावर करती है हर पल,

  

सोच, दया करती कितनी है,

 प्रकृति भली, जग की जननी है



सुन्दरता  इसकी है न्यारी

    जल-थल-नभ में बिखरी सारी ,

चंदा-तारे-मछली-चिड़ियाँ

  फूलों की हँसती पंखुड़ियाँ ,

  

  सुन्दर सब धरती-अवनी है ,

   प्रकृति भली, जग की जननी है



 माँ-सी नेह लुटाती है यह 

   हम सब को दुलराती है यह, 

 कभी नहीं इस को दुःख देंगे

 हम सब इन का मान करेंगे,

       

  यही वत्सला माँ अपनी है, 

  प्रकृति भली, जग की जननी है 


  -महेन्द्र वर्मा 




सूर्य से दीये तक - अग्नि की वैश्विक यात्रा

 


दीप कैसा हो कहीं हो, 

सूर्य का अवतार है यह

जल गया है दीप तो 

अँधियार ढल कर ही रहेगा


दीप के लिए अभिव्यक्त कवि नीरज की इन सरल-सहज पंक्तियों में हमारी गौरवमयी वैश्विक संस्कृति के अनेक आयामों की  अभिव्यंजना है । सूर्य, अग्नि और दीपक वैश्विक संस्कृति के आधार हैं । इन अभिव्यंजित अर्थों को समझने के लिए हमें अपनी संस्कृति के अतीत की ओर निहारना होगा । सभ्यता और संस्कृति निरंतर विकासमान अवधारणाएँ हैं । आदि मानवों के युग में, जब उनका जीवन क्षुधापूर्ति  और संतति पालन तक ही सीमित था, तब सभ्यता और संस्कृति जैसे तत्वों का बीजारोपण भी नहीं हुआ था, तब देवता या ईश्वर जैसी अवधारणाएँ भी नहीं थीं । बुद्धि के विकास  की प्रारंभिक अवस्था में विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं के कारण मनुष्य के मन में जो पहली प्रतिक्रिया उपजी वह भय और आश्चर्य के रूप में अभिव्यक्त हुई । यहीं से प्राकृतिक शक्तियों को देवता माने जाने की परंपरा प्रारंभ हुई । दिन में सूर्य का प्रकाश और रात में चंद्रमा तथा असंख्य तारों का चमकना तब के मनुष्यों के लिए विस्मयकारी घटनाएं थीं। देवता संबंधी प्रारंभिक अवधारणाओं का संबंध इन्हीं घटनाओं से है ।


दुनिया भर के प्राचीन धर्मों, लोकधर्मों और लोककथाओं के अध्ययन से यह  ज्ञात होता है कि प्रकाश या उससे संबंधित प्राकृतिक वस्तुएँ और घटनाएँ जैसे, सूर्य, चंद्रमा, तारे, अग्नि, तड़ित आदि को मनुष्य ने सबसे पहले देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया । इस अवधारणा के पक्ष में एक प्रमुख तथ्य यह है कि दुनिया की अनेक संस्कृतियों में देवता के लिए जो शब्द हैं वे सूर्य, अग्नि, प्रकाश या चमक के अर्थ वाले हैं । अनेक संस्कृतियों में सूर्य और अग्नि प्रथम देवता हैं । संस्कृत में देव शब्द की व्युत्पत्ति दिव् धातु से हुर्ह है जिसका अर्थ है- चमकना । इसी से द्यौः की व्युत्पत्ति हुई है, जिसका अर्थ आकाश है । वेदों में आकाश भी एक प्रमुख देवता है क्योंकि उसमें सभी चमकने वाले पिंड अर्थात सूर्य, तारे, ग्रह आदि स्थित हैं । 


सूर्य की देव रूप में व्यापक प्रतिष्ठा रही है । रात्रि के भयकारी अंधकार के बाद तीक्ष्ण प्रकाश के साथ उदित, गतिमान् और अस्त होते सूर्य ने विश्व की प्रत्येक सभ्यता को प्रभावित किया । सभ्यता के ऊषाकाल से ही मनुष्य उसकी उपासना के लिए प्रवृत्त हुआ । सूर्य की उपासना भारत के अतिरिक्त विश्व के सभी लोकधर्मों में भी की जाती रही है । अभी मनुष्य ने स्वयं आग उत्पन्न करना नहीं सीखा था इसलिए न तो याज्ञिक अग्नि का और न ही दीपक का अस्तित्व था किंतु प्राकृतिक अग्नि जैसे, दावानल, तड़ित, ज्वालामुखी से उसका सामना हो चुका था । यह प्राकृतिक अग्नि मनुष्य के नियंत्रण में नहीं आ सकती थी, यह हानिकर भी थी और लाभप्रद भी इसलिए उसने इसे भी देवता के रूप में स्वीकार किया क्योंकि इसके गुण सूर्य के गुणों से साम्य रखते हैं । ऋग्वेद के कई मंत्रों में अग्नि और सूर्य का तादात्म्य मिलता है । शतपथ ब्राह्मण में अग्नि को द्यौः का पुत्र सूर्य या विद्युत कहा गया है । 

                                                 


मनुष्य ने जब स्वयं अग्नि उत्पन्न करना और उसे नियंत्रित करना सीख लिया तब याज्ञिक अनुष्ठानों के रूप में धार्मिक क्रियाओं में बहुत बड़ी क्रांति हुई । अग्नि वैदिक युग के सर्वाधिक प्रसिद्ध देवों में से एक है ।  कर्मकांडमूलक वैदिक काल में जिसमें प्रति क्षण अग्नि की आवश्यकता होती थी, ऐसा होना स्वाभाविक भी है । अग्नि के प्रति की गई प्रार्थनाओं में प्राचीन काल के ऋषियों की वह मूल धार्मिक भावना परिलक्षित होती है जिसके अंतर्गत किसी महत्वपूर्ण भौतिक तत्व को उसकी महत्ता और उत्कृष्टता के कारण दैवी भाव से युक्त मान लिया जाता है और उसमें स्फुरित होने वाली दैवी चेतना धीरे-धीरे स्वतंत्र हो कर उपास्य देव का स्वरूप धारण कर लेते हैं । यही अग्नि आजकल दीपक के स्वरूप में प्रत्येक धार्मिक और मंगलकार्यों में सर्वप्रथम आमंत्रित कर स्थापित की जाती है। 


वैदिक संहिताओं में इन्द्र के पश्चात  अग्नि ही सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं । केवल ऋग्वेद में अग्नि के 200 सूक्त प्राप्त होते हैं । ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छंदा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्निदेवता की स्तुति करता हूँ जो सभी यज्ञों के पुरोहित हैं । विश्व साहित्य का प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम शब्द अग्नि है । ब्राह्मण ग्रंथों में बार-बार उल्लेख है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है । वैदिक काल में यज्ञ एवं अन्य कर्मकांडों के महत्व के साथ-साथ अग्नि के महत्व में भी वृद्धि हुई है । ऋषियों की दृष्टि उसके भौतिक रूप से ऊपर उठकर आकाश और अंतरिक्ष तक पहुँची है, आकाश में तड़ित विद्युत और अंतरिक्ष में सूर्य को अग्नि का जनक माना गया है । सुलभ होने के कारण अब सूर्य की तुलना में अग्नि अधिक महत्वपूर्ण देवता हो गए मानो सूर्य का तेज और उसकी ज्वाला लौकिक अग्नि में समा गई हो ।


यज्ञ में प्रज्ज्वलित अग्नि को अंतरिक्ष और आकाश में स्थित देवताओं तक उनके भाग को पहुँचाने वाला देवता माना गया है । ऐसा इसलिए माना गया क्योंकि अग्नि की लपटें और धूम्र ऊपर आकाश की ओर जाते हैं । ऋग्वेद (1.58.1) में उल्लेख है कि अग्नि अंतरिक्ष में प्रकाशित हो कर उत्तम मार्गों से गमन करते हैं । देवों को समर्पित हविष्यान्न उन्हें सौंप कर सम्मानित करते हैं ।  यज्ञ करने वाला पुरोहित वेदी में हवि को इसलिए डालता था ताकि अग्नि अपनी लपटों और धुँए के माध्यम से उसे आकाशस्थ देवताओं तक पहुँचा दे । शतपथ ब्राह्मण (5.2.3.6) में कहा गया है- ‘‘अग्नि सब देवों के संयुक्त रूप हैं, क्योंकि अग्नि में ही सब देवों के लिये  हवन किया जाता है । वे देवों के मुख तथा जिह्वा हैं ।’’ 


वैदिक सभ्यता के अतिरिक्त ग्रीक, रोमन, लिथुआनिया आदि सभ्यताओं में भी देवताओं को भोग लगाने की यही रीति प्रचलित थी । इस प्रकार मनुष्यों और देवताओं के मध्य एक कड़ी के रूप में अग्नि का बहुत मान-सम्मान था । ग्रीक अग्निदेवी ‘हेस्तिया’ घर की वेदी में स्थित अग्नि की अधिष्ठात्री है । ग्रीस में एक मंडप के नीचे, जिसे ‘प्रितानियुम्’ कहते थे, अग्नि प्रज्ज्वलित रहती थी । यहाँ से गुजरने वाले यात्री अपने शहरों और घरों के लिए अग्नि ले जाते थे । पारसी या जरथ्रुस्त धर्म में अग्निदेव ‘अतर’ सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं । पारसी समुदाय में अग्नि की पूजा इतना महत्वपूर्ण कर्मकांड है कि इसके बिना पारसी धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती । उनके मंदिर अगियारी में अग्नि निरंतर प्रज्ज्वलित रहती है । लिथुआनियन धर्म में ‘उग्निस स्जेवेन्ता’ (पवित्र अग्नि) की वर्ष भर उपासना की जाती थी । इसे घरों में बनी हुई वेदियों में सदैव प्रज्ज्वलित रखा जाता था । रोमन सभ्यता के मंदिरों में अग्नि सदैव जलती रहती थी । यदि आग बुझ जाती तो उसको उसी तरह लकड़ियों के घर्षण से जलाया जाता था जैसे हमारे यहाँ भारत में अरणियों के मंथन से जलाया जाता था । तैत्तिरीय संहिता (6.2.8)  में कहा गया है कि एक बार अग्निदेव शमी के वृक्ष में छिप गए । तब देवों ने उसकी लकड़ियों को परस्पर  घर्षित कर अर्थात मंथन कर अग्नि को उत्पन्न किया । इस विधि से आग उत्पन्न करना भारत के अतिरिक्त शेष विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में प्रचलित था ।  इस के अनेक वर्षों के पश्चात आवासों और विशेष अवसरों पर दीये प्रज्ज्वलित करने की परंपरा प्रारंभ हुई होगी ।

                                             

विश्व लोक साहित्य की कथाओं में भिन्न-भिन्न तरह से कल्पना की गई है कि अग्नि को आकाश से या स्वर्ग से कैसे धरती तक लाया गया । जैसे ग्रीक देवता प्रोमेथियस स्वर्ग से अग्नि के साथ साथ संगीत के वाद्ययंत्र भी लाते हैं । वैदिक देवशास्त्र में मातरिश्वा गुप्त अग्नि को पृथ्वी पर लाते हैं । महाभारत (अनु. 85.15) में कहा गया है कि अग्नि की ज्वाला से पहले भृगु उत्पन्न हुए और अंगारों से अंगिरा जन्मे । ऋग्वेद (1.143.4) में कहा गया है - ‘‘जिस अग्नि देव को भृगुवंशी ऋषियों ने अपने सामर्थ्य से पृथ्वी पर समस्त ऐश्वर्यों के लिए प्रतिष्ठित किया ऐसे अग्निदेव को आप भी अपने गृह में ले जा कर श्रेष्ठ प्रार्थनाओं से प्रज्ज्वलित करें ।’’ 50-60 वर्ष पहले तक गाँवों में जब दियासलाई का प्रचलन नहीं था तब संपन्न घरों में ‘गोरसी’ में निरंतर आग सुलगती रहती थी । अन्य घरों की महिलाएँ उन घरों में ‘आग माँगने’ जाती थीं तब अपने घरों में आग सुलगाती थीं और दीये जलाती थीं । घरों में स्थापित होने के कारण अग्नि को गृहपति भी कहा जाता है ।


पुराणों में अग्नि के सौम्य एवं भीषण सभी पक्षों का उल्लेख है साथ ही उनका आंशिक सशरीर दैवीकरण भी हुआ है । फिर भी पुराणों में अग्नि का उतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं है जितना वेदों में है । याज्ञिक कर्मकाण्ड के ह्रास  ने दीपक की महत्ता में वृद्धि की है । सूर्य का प्रतिरूप अग्नि है और अग्नि का प्रतिरूप दीपक है । इसीलिए स्कंद पुराण में दीपक को सूर्य का प्रतीक कहा गया है  ।  आज प्रत्येक धार्मिक और शुभ कार्यों में दीपक और अंगारों का प्रयोग होता है । याज्ञिक अग्नि का कार्य ये दोनों कर देते हैं । दीपक की प्रज्ज्वलित ज्वाला प्रतीकात्मक रूप से यज्ञाग्नि का कार्य करते हैं । देवों को अर्पित किए जाने वाला हविष्य अब अंगारों में डाला जाता है ताकि उससे उठता हुआ धूम्र, जैसे यज्ञ में होता था,  ऊपर आकाश की ओर गमन कर देवताओं तक पहुँचे । आज विश्व के सभी संगठित धर्मों और लोकधर्मों की पूजा-पद्धति और अन्य धार्मिक कर्मकांडों में ज्वाला और धूम्र उत्पादक साधनों का प्रयोग होता है, जैसे- दीया, मोमबत्ती, अगरबत्ती, लोबान आदि । कैसा आश्चर्य है, साधन और साध्य एक किंतु धर्मों, सर्वोच्च शक्तियों और कर्मकांडों के नाम भिन्न-भिन्न हैं । 


अग्नि, सूर्य और दीपक के गुणों में समानता है । तीनो ज्वालाओं के पुंज हैं इसलिए आंतरिक और बाह्य तिमिर के नाशक हैं । तीनों पावक हैं, अपनी ऊष्मा और प्रकाश से अपावन को पवित्र करने वाले हैं । ब्रह्माण्डीय वैश्वानर ही दीपक में समाहित है । दीये के रूप में मनुष्य को सूर्य के अंश का सामीप्य सुलभ हुआ है । एक दीप जलाकर वह मानव सभ्यता द्वारा कल्पित प्रथम देवता सूर्य को अपने समीप जागृत कर सकता है । मानो दीप का महत्व  सूर्य से भी  अधिक हो  गया है, एक सुभाषित श्लोक में चंद्र और सूर्य को दीपक कहा गया है- ‘‘प्रदोषे दीपकः चंद्रः, प्रभाते दीपकः रविः’’। दीपक की तुलना ज्ञान से की जाती है । सामान्य दीपक बाह्य अंधकार को दूर करता है जबकि ज्ञान का दीपक आंतरिक अंधकार को दूर करता है । दीपक अमरत्व का भी प्रतीक है और सत्य का भी । इसीलिए वृहदारण्यक का ऋषि यह उद्घोष  करता है - ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्माअमृतंगमय’’ । 


दीपक पंचमहाभूतों का आदर्श समन्वय है । दीप जलाने का अर्थ अग्नि के देवत्व की स्थापना भी है और सूर्य की तेजस्विता का आमंत्रण भी है । दीपक जलाना उन सभी सकारात्मक भावों और शक्तियों को भी जागृत करना है जो सभी के लिए शुभकारक हैं, मंगलदायक हैं। दीपावली पर्व में तो दीपों की पंक्तियाँ जलाई जाती हैं, धर, आँगन, गलियाँ, चौराहे- सभी ओर, जैसे सहस्रों सूर्य धरती पर उतर आए हों, अमावस्या की रात्रि की गहन कालिमा, चाहे वह बाह्य जगत की हो या अंतर्मन की, को भस्म कर भूदिशाओं और हमारी मनोदशाओं को प्रियकर उजास से आपूरित करने !


- महेन्द्र वर्मा 


















सत्य हुआ असमर्थ

                             

 

जंगल तरसे पेड़ को, नदिया तरसे नीर,
सूरज सहमा देख कर, धरती की यह पीर ।

मृत-सी है संवेदना, निर्ममता है शेष,
मानव ही करता रहा, मानवता से द्वेष ।

अर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
श्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ।

‘मैं’ से ‘मैं’ का द्वंद्व भी ,सदा रहा अज्ञेय,
पर सबका ‘मैं’ ही रहा, अपराजित दुर्जेय ।

उर्जा-समयाकाश है, अविनाशी अन्-आदि,
शेष विनाशी ही हुए, जल-थल-नभ इत्यादि ।

अंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।

कहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
यही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
                                                                        
 -महेन्द्र वर्मा

विदेशी साज पर देशी राग

 




भारतीय शास्त्रीय संगीत की दोनों पद्धतियों, हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत में एकल वाद्य-वादन का उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है जितना एकल गायन का । सदियों पहले शास्त्रीय संगीत में वाद्यों की संख्या सीमित थी । बाद की शताब्दियों में नए-नए वाद्ययंत्रों का निर्माण होता गया । भारतीय शास्त्रीय वाद्य-यंत्रों की संरचना इस तरह होती है कि वे भारतीय संगीत की विशेषताओं का संपूर्ण प्रकटीकरण कर सकें । गुणी संगीतज्ञों ने कुछ लोकवाद्यों को भी शास्त्रीय संगीत में प्रतिष्ठित किया । स्व. पं. पन्नालाल घोष को बाँसुरी और स्व. उस्ताद बिसमिल्लाह ख़ान को शहनाई जैसे लोकवाद्यों को शास्त्रीय संगीत में स्थापित करने का श्रेय जाता है । इन लोकवाद्यों के माध्यम से इन महान संगीतज्ञों ने शास्त्रीय संगीत के भावों और रसों को श्रेष्ठतम रूप में प्रस्तुत किया । इसी प्रकार कुछ ऐसे भी गुणी कलाकार हुए हैं जिन्होंने विदेशी वाद्ययंत्रों को भारतीय शास्त्रीय संगीत में विशिष्ट पहचान दिलाने में सफलता प्राप्त की । इन वाद्यों का भारत में प्रचलन अंग्रेजों के शासन काल में हुआ । ऐसे वाद्ययंत्रों में वायलिन, गिटार, मैंडोलिन, सैक्सोफोन और हारमोनियम प्रमुख हैं । आइए, इन वाद्यों के भारतीय शास्त्रीय संगीत में अपनाए जाने के संबंध में विस्तार से जानें ।

वायलिन- वायलिन दुनिया के सबसे लोकप्रिय वाद्ययंत्रों में से एक है । इटली के आन्द्रे अमाती ने 1555 ई. में आधुनिक वायलिन का निर्माण किया था । भारत में इस वाद्य का आगमन 1790 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के बैण्ड द्वारा हुआ । कर्नाटक संगीत के प्रसिद्ध संगीतकार बालुस्वामी दीक्षितर ने 1806 ई. में मद्रास के फोर्ट सेंट जार्ज में सेना के बैण्ड मास्टर से वायलिन सीखना प्रारंभ किया । उन्होंने वायलिन को कर्नाटक शैली के संगीत के लिए उपयुक्त पाया । शीघ्र ही वे वायलिन वादन में दक्ष हो गए और मंचों पर गायक कलाकारों के साथ संगत करने लगे । इस प्रकार बालुस्वामी दीक्षितर को भारतीय वायलिन का जनक माना जाता है । इनके बड़े भाई प्रसिद्ध संगीतज्ञ, कवि और कृतिकार मुत्तुस्वामी दीक्षितर के शिष्य वादिवेलु ने भी वायलिन को अपनाया और इसे कर्नाटक संगीत में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।

उत्तर भारतीय हिंदुस्तानी संगीत में वायलिन का प्रवेश प्रसिद्ध संगीत गुरु उस्ताद अलाउद्दीन ख़ान के माध्यम से 1930 ई. में हुआ । वे अनेक वाद्ययंत्र बजाने में दक्ष थे । उनके एक शिष्य पं वी.जी. जोग प्रसिद्ध वायलिन वादक हुए । उनके एक अन्य शिष्य संगीतकार तिमिर बरन ने वायलिन को फिल्म संगीत में पहली बार शामिल किया । बाद में हिंदुस्तानी और कर्नाटक दोनों शैलियों के अनेक कलाकारों ने वायलिन को अपनाया और प्रसिद्धि प्राप्त की । अब तो वायलिन कर्नाटक संगीत का अभिन्न अंग बन चुका है । एकल वादन के अलावा संगत के लिए अब वायलिन का ही प्रयोग होता है । इसके पहले संगत के लिए वीणा का प्रयोग होता था । वर्तमान में हिंदुस्तानी संगीत में पद्मभूषण विदुषी एन. राजम् और कर्नाटक संगीत में पद्मभूषण विद्वान एल. सुब्रमण्यम् वायलिन के श्रेष्ठ और वरिष्ठ कलाकार एवं संगीतगुरु हैं ।
 

गिटार- सन् 1941 ई. में हवाई द्वीप से एक गिटार कलाकार ताउ मो अपनी टीम के साथ कोलकाता   आया । वे हवाईयन स्लाइड गिटार बजाते थे । उनकी टीम भारत में 8 वर्षों तक रही । इस दौरान वे अपने संगीत का प्रदर्शन करते रहे । वे कोलकाता के संगीत प्रेमियों की माँग पर  गिटार बनाते और बेचते भी थे । एक बार राजस्थान का एक युवा ब्रजभूषण काबरा कोलकाता गए । वहां उन्होंने हवाईयन स्लाइड गिटार की आवाज सुनी और उस पर मोहित हो कर एक गिटार खरीद ली। उन्हें लगा कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को इस वाद्य से बख़ूबी प्रस्तुत किया जा सकता है । प्रसिद्ध़ सरोद वादक उस्ताद अली अकबर ख़ान से ब्रज भूषण काबरा ने संगीत की बारीकियों को सीखा । शीघ्र ही वे रागों को स्लाइड गिटार पर कुशलतापूर्वक बजाने लगे । 1961 ई. से वे शास्त्रीय संगीत के मंचों से अपने वाद्य पर एकल वादन प्रस्तुत करने लगे। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार विजेता पं. काबरा ने गिटार पर तरब के तार लगाकर गिटार का भारतीयकरण किया । इस प्रकार पश्चिमी वाद्य गिटार पर हिंदुस्तानी संगीत के रागों को प्रस्तुत करने वाले पहले भारतीय पं ब्रजभूषण काबरा हैं ।

वर्तमान में भारत में हिंदुस्तानी संगीत के श्रेष्ठ स्लाइड गिटार वादक, ग्रेमी पुरस्कार विजेता पं विश्व मोहन भट्ट हैं । हिंदुस्तानी रागों की शिक्षा पं. भट्ट ने प्रसिद्ध सितार वादक पं. रविशंकर से प्राप्त की है । इन्होंने गिटार के स्वरूप को और परिमार्जित कर उसे ‘मोहन वीणा’ नाम दिया । गिटार को हिंदुस्तानी संगीत में लोकप्रिय बनाने का श्रेय पद्मभूषण पं. विश्व मोहन भट्ट को है । स्लाइड गिटार के एक और प्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. देवाशीष भट्टाचार्य हैं जो हिंदुस्तानी संगीत के साथ-साथ पश्चिमी संगीत के दक्ष कलाकार हैं । वे भारतीय गिटार के तीन नए स्वरूपों- चतुरंगी, गंधर्वी और आनंदी के जनक हैं ।

सैक्सोफ़ोन- सैक्सोफ़ोन मूल रूप से बेल्जियम का वाद्य है । 1846 ई. में एडोल्फ़ जोसेफ सैक्स नामक एक संगीत वाद्य निर्माता ने एक वाद्ययंत्र बनाया जिसे निर्माता के नाम पर सैक्सोफोन कहा गया । भारत में यह वाद्य 19 वीं सदी के अंत में ब्रिटिश सेना के बैण्ड के साथ आया । फ़िल्म संगीत में सैक्सोफ़ोन का उपयोग 1960 ई. के आसपास शुरू हुआ । सैक्सोफ़ोन में भारतीय शास्त्रीय संगीत प्रस्तुत करने की शुरुआत कर्नाटक के पं. गोपाल नाथ कादरी ने की । 1957 ई. में पं. कादरी ने मैसूर पैलेस बैण्ड में पहली बार सैक्सोफ़ोन सुना । नादस्वरम् बजाने वाले पं. कादरी को सैक्सोफ़ोन की आवाज़ ने आकर्षित किया । उन्होंने कर्नाटक संगीत के प्रसिद्ध संगीतज्ञ विद्वान टी.वी. गोपालकृष्णन् से संगीत सीखा और सैक्सोफ़ोन वादन में दक्षता प्राप्त की। पद्मश्री से सम्मानित पं. कादरी ने अपनी अनूठी कला का देश-विदेश में अनेक प्रदर्शन किया और ख्याति अर्जित की । भारत में उन्हें ‘सैक्सोफ़ोन चक्रवर्ती’ के रूप में प्रसिद्धि मिली । पं. कादरी के एक शिष्य सैक्सोफ़ोन वादक प्रशांत राधाकृष्णन् उनकी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं ।

मैंडोलिन- वर्तमान में जिस मैंडोलिन का प्रयोग संगीतकार करते हैं उसका निर्माण सबसे पहले 19 वीं शताब्दी में इटली के वाद्य निर्माता पास्कल विनाचिया ने किया था । मैंडोलिन का प्राचीन रूप मैंडोरा 18 वीं शताब्दी में इटली में ही प्रचलित था । 1913 ई. में यह वाद्य अंग्रेजों और पुर्तगालियों के माध्यम से भारत आया । प्रख्यात संगीत गुरु विष्णु दिगंबर पलुस्कर के गंधर्व संगीत विद्यालय में मैंडोलिन वादन भी सिखाया जाता था । फिल्म और सुगम संगीत में वायलिन का प्रयोग 1930 के दशक से होने लगा था किंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए यह वाद्य अनुपयुक्त माना जाता था ।

1940-50 के दशक में सिने संगीतकार सज्जाद हुसैन मैंडोलिन पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत भी बजाया करते थे। हिंदुस्तानी संगीत के क्षेत्र में कोई भी मैंडोलिन वादक प्रसिद्ध नहीं हुआ लेकिन कर्नाटक संगीत में एक संगीतज्ञ ऐसा हुआ जिसने कर्नाटक संगीत के क्षेत्र में मैंडोलिन को शास्त्रीय वाद्य के रूप में विशिष्ट पहचान दिलाई । ये थे आंध्रप्रदेश के स्व. यू. श्रीनिवास जो ‘मैंडोलिन श्रीनिवास’ नाम से प्रसिद्ध हुए । इनके गुरु श्री रुद्रराजू सुब्बाराजू कर्नाटक संगीत के रागों का गायन करते और श्रीनिवास मैंडोलिन पर बजाते जाते । उन्होंने वासुराव से पाश्चात्य संगीत भी सीखा । 1978 ई. में 9 वर्ष की उम्र में इन्होंने एक समारोह में मैंडोलिन में कर्नाटक संगीत प्रस्तुत किया और प्रशंसा अर्जित की । तब से पद्मश्री यू. श्रीनिवास निरंतर देश-विदेश में कर्नाटक और पाश्चात्य संगीत दोनों का कुशलतापूर्वक प्रदर्शन करते रहे । वर्तमान में हिंदुस्तानी संगीत में श्री स्नेहाशीष मजूमदार और कर्नाटक संगीत में यू. राजेश तथा सुरेश कुमार सुपरिचित शास्त्रीय मैंडोलिन वादक हैं ।
 

हारमोनियम- भारत में हर प्रकार के संगीत के साथ हारमोनियम इतना धुल-मिल गया है कि लगता ही नहीं कि यह कोई विदेशी वाद्य है । यह मूलतः डेनमार्क का वाद्ययंत्र है । 18वीं शताब्दी में कोपेनहेगेन के गॉट्लीब क्रेट्जेंस्टीन ने हारमोनियम का आविष्कार किया था जो शरीर विज्ञान के प्रोफेसर थे । 19वीं सदी में यह पूरे यूरोप में प्रचलित हो गया । इस सदी के अंत में ईसाई मिशनरियों द्वारा हारमोनियम भारत लाया गया । भारत में हारमोनियम का निर्माण 1925 ई. में आरंभ हुआ । गीत, भजन-कीर्तन, फिल्म संगीत आदि के साथ मराठी नाटक मंडलियों में हारमोनियम का व्यापक उपयोग होने लगा । शास्त्रीय संगीत में इसका प्रयोग गायन के साथ संगत वाद्य के रूप में इसी समय प्रारंभ हुआ । इसके पहले शास्त्रीय गायन में संगत वाद्य के रूप में केवल सारंगी का प्रयोग होता था । अब शास्त्रीय गायन में सारंगी या हारमोनियम और कभी-कभी दोनों का प्रयोग होता है ।
 

ग्वालियर घराने के संगीतज्ञ पं. गणपत राव के साथ-साथ कोल्हापुर के पं. गोविंदराव टेंबे को शास्त्रीय संगीत में हारमोनियम का प्रयोग प्रारंभ करने का श्रेय दिया जाता है । यद्यपि  तब हारमोनियम को भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्रकृति के अनुकूल वाद्य नहीं माना जाता था । इसीलिए आकाशवाणी ने 1940 से 1971 ई. तक शास्त्रीय संगीत के लिए हारमोनियम को प्रतिबंधित कर दिया था । कर्नाटक संगीत में आज भी हारमोनियम का प्रयोग नहीं किया जाता क्योंकि कर्नाटक संगीत में जिन स्वरों का प्रयोग होता है वे सभी स्वर हारमोनियम में नहीं होते । लेकिन हिंदुस्तानी संगीत में यह अब लोकप्रिय हो चुका है । आर. के. बीजापुरे और पद्मश्री पं. तुलसीदास बोरकर ने हारमोनियम में संगत करने एवं एकल शास्त्रीय संगीत प्रस्तुत करने की परंपरा को आगे बढाया । वर्तमान में मिलिंद कुलकर्णी, सुवेंदु बनर्जी, सुधीर नायक आदि प्रसिद्ध हारमोनियम वादक हैं ।


-महेन्द्र वर्मा

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत - परंपरा और प्रयोग


 

शास्त्रीय संगीत कई सदियों से भारत की संस्कृति का हिस्सा रहा है और आज भी है। सामगायन से प्रारंभ हुई यह परंपरा भारत की सांस्कृतिक एकता का सबसे महत्वपूर्ण घटक है । विशेष रूप से हिंदुस्तानी संगीत तो अब दुनिया भर में लोकप्रिय है । इस का श्रेय अतीत और वर्तमान के उन महान शास्त्रीय संगीतज्ञों को है जिन्होंने भारत की हज़ारों वर्षों की संगीत-परंपरा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी लगन और साधना से सुसज्जित कर  देश और दुनिया भर में प्रदर्शित और प्रचारित किया है । अन्य संस्कृतियों की तुलना में हिंदुस्तानी संगीत विभिन्न संदर्भों में विशिष्ट है । हिंदुस्तानी संगीत में विचारशीलता तथा शास्त्रीय तत्वों की नियमबद्धता का अधिक महत्व होता है। शास्त्रीय संगीत की रचनाओं में ऋतु और प्रहर की अनुकूलता तथा मनोभावों की प्रकृति का जो संश्लेषण है वह दुनिया की किसी भी संस्कृति के संगीत में नहीं है । शास्त्रीय संगीत का आकर्षण और आस्वादन भी मर्यादाबद्ध हैं जो अपनी पूर्णता में मानव के सूक्ष्म हृदय को आकर्षित करने की क्षमता रखता है।

 

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की इन्हीं विशिष्टताओं के कारण आज देश में शास्त्रीय संगीत की साधना करने वालों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । महानगरों से लेकर गाँवों तक के युवा और बच्चे शास्त्रीय संगीत की ओर आकर्षित हो रहे हैं, प्रतिष्ठित गुरुओं से सीख रहे हैं और अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं । शास्त्रीय संगीत एक ऐसी कला है जिसमें परंपरा की शुद्धता पर अधिक ध्यान दिया जाता है जिसे दक्ष गुरु के बिना साधा नहीं जा सकता । दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत के प्राध्यापक डॉ. ओजेश प्रताप सिंह कहते हैं- ‘‘संस्थागत शिक्षण में विद्यार्थियों को संगीत के केवल प्रयोगात्मक, सैद्धांतिक और ऐतिहासिक पक्षों से अवगत कराया जाता है किंतु सिद्ध कलाकार बनने के लिए इन को आत्मसात करने की आवश्यकता होती है जो गुरु के दीर्घकालिक सान्निध्य के बिना संभव नहीं है । इसलिए कलाकार हमेशा गुरु-शिष्य परंपरा में ही उपजते हैं ।" इसी परंपरा-उद्भूत हज़ारों कलाकार आज हिंदुस्तानी संगीत को और अधिक समृद्ध बना रहे हैं ।

 

नई पीढ़ी के इन कलाकारों में अनेक पहले से प्रतिष्ठित उस्तादों और पंडितों के परिवारों से हैं या उनके शिष्य है किंतु बहुत से ऐसे कलाकार भी हैं जो अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध गुरुओं से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनी कला-साधना के कारण प्रसिद्ध हो रहे हैं । इन नवोदित प्रतिभाओं में अधिकांश ने शास्त्रीय संगीत की परंपरा और शुद्धता को यथावत रखा है और कुछ ने अपनी व्यक्तिगत कला-प्रतिभा को उभारने के लिए अपने प्रदर्शन में नया प्रयोग भी किया है । इन प्रतिभावान नए कलाकारों के प्रदर्शन में, लय चाहे विलंबित हो द्रुत, बोलों की शुद्धता और स्पष्टता ने शास्त्रीय संगीत को अधिक रंजक और सुबोध बनाया है । कुछ कलाकार आधुनिक दौर के प्रयोगधर्मी फ्यूज़न संगीत में भी रुचि ले रहे हैं ।

 

हिंदुस्तानी संगीत की परंपरागत विरासत को समृद्ध करने हेतु दिग्गज उस्तादों के परिवार की जो प्रतिभाएँ चर्चित हैं उनमें गायन में पं. अजय चक्रवर्ती की पुत्री कौशिकी चक्रवर्ती, पं. भीमसेन जोशी के पुत्र श्रीनिवास जोशी, राजन मिश्र के पुत्रद्वय रितेश-रजनीश मिश्र, पं. वसंतराव देशपांडे के पोते राहुल देशपांडे, सितार वादन में पं. पार्थो चटर्जी के पुत्र पूर्बायन चटर्जी, वायलिन वादन में विदुषी  एन. राजम की पोतियाँ और विदुषी संगीता शंकर की पुत्रियाँ नंदिनी-रागिनी शंकर, तबला वादन में पं. नयन घोष के पुत्र ईशान घोष, संतूर वादन में पं. शिवकुमार शर्मा के पुत्र राहुल शर्मा, सारंगी वादन में पं. रामनारायण के पोते हर्ष नारायण और उस्ताद सुल्तान ख़ान के पुत्र साबिर ख़ान, सरोद वादन में पं. आलोक लाहिड़ी के पुत्र अभिषेक लाहिड़ी और पं.शेखर बोरकर के पुत्र अभिषेक बोरकर, बाँसुरी वादन में पं. वेंकटेश गोडखिंडी के पुत्र प्रवीण गोडखिंडी आदि हैं । जिन पंसिद्ध संगीतज्ञों के परिवारों के कलाकार परंपरा और ‘फ्यूज़न में प्रयोग’ दोनों का निर्वहन कर रहे हैं उनमें प्रसिद्ध सितार वादक पं. कार्तिक कुमार के पुत्र नीलाद्रि कुमार, सरोद में उस्ताद अमजद अली ख़ान के पुत्र अमान-अयान अली, सारंगी में उस्ताद साबरी ख़ान के पोते सुहैल यूसुफ ख़ान व उस्ताद गुलाम साबिर ख़ान के पुत्र मुराद अली और तबला में पं सुरेश तलवलकर के पुत्र सत्यजीत तलवलकर व पं. अनिंदो चटर्जी के पुत्र अनुब्रत चटर्जी आदि उल्लेखनीय हैं ।

 

बहुत से ऐसे कलाकार हैं जो प्रसिद्ध संगीतज्ञों के परिवार के नहीं हैं किंतु उनके शिष्य हैं और कम समय में ही अपनी कला-प्रतिभा का परिचय दिया है, जैसे, गायन में पं. जितेन्द्र अभिषेकी के शिष्य महेश काले, मिश्र बंधु के शिष्य दिवाकर-प्रभाकर कश्यप, पं. उल्हास कशालकर के शिष्य ओंकार दादरकर, विदुषी वीणा सहस्रबुद्धे की शिष्या सावनी शेंडे, बाँसुरी में पं. हरिप्रसाद चौरसिया की शिष्याएँ देबोप्रिया और शुचिस्मिता चटर्जी, सितार में पं. बिमलेंदु मुखर्जी की शिष्या अनुपमा भागवत, तबला में पं. योगेश शम्सी के शिष्य यशवंत वैष्णव, पं. अनिंदो चटर्जी के शिष्य रूपक भट्टाचार्य आदि ।

 

उक्त सूची केवल उदाहरण स्वरूप है, शास्त्रीय संगीत के प्रति समर्पित ऐसे नवोदित और प्रतिभाशाली कलाकारों की संख्या आज हज़ारों में है । एक ओर जहाँ कलाकारों की संख्या में वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर माना जाता है कि आजकल के भागदौड़ भरे इंटरनेटीय युग में शास्त्रीय संगीत के श्रोता अपेक्षाकृत कम हो गए हैं । शास्त्रीय संगीत के श्रोता भी प्रसिद्ध नामों को अधिक सुनना पसंद करते हैं । युवा और कम प्रसिद्ध कलाकारों की ओर वे कम आकर्षित होते हैं । पाश्चात्य संगीत से प्रभावित हल्का-फुल्का भारतीय संगीत युवाओं में अधिक लोकप्रिय है । यही कारण है कि युवा कलाकार भी फ्यूज़न और पाश्चात्य बैंड की ओर आकर्षित हो रहे हैं । ईशान घोष कहते हैं- ‘‘अधिकांश लोगों में पारंपरिक शास्त्रीय संगीत की बारीकियों की सराहना करने का धैर्य नहीं है । प्रसिद्ध घरानों के कुछ वंशज फ्यूज़न  की ओर जा रहे हैं किंतु हमारे संगीत परिवारों के लिए परंपरा की शुद्धता से समझौता करना आसान नहीं  रहा है ।’’ शास्त्रीय संगीत में फ्यूज़न के प्रयोग की आलोचना संगीत समीक्षक और सुधी श्रोता अक्सर करते रहे हैं । फ्यूज़न को अपनाने वाले कलाकारों को इस का अहसास है । सारंगी वादक सुहैल ख़ान कहते हैं- ‘‘हमें अक्सर आरोपों का सामना करना पड़ा है कि आधुनिक रॉक संगीत में सारंगी का इस्तेमाल होने से वह ‘अशुद्ध’ हो गया है ।’’ परंपरा की शुद्धता के पालन के लिए यह अपेक्षा की जाती है कि प्रत्येक पीढ़ी को पिछली पीढ़ी की तरह कड़ी मेहनत करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि विरासत जारी रहे । इस विरासत को जारी रखने में शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । शास्त्रीय संगीत सुनने वाले शुद्धता से समझौता नहीं करते ।

 

पाश्चात्य संगीत के साथ हिंदुस्तानी संगीत का फ्यूज़न जैसा प्रयोग दीर्घजीवी नहीं होता । तात्कालिक रूप से यह युवाओं को भले ही लुभाए किंतु इसमें शुद्ध शास्त्रीय संगीत का गांभीर्य और सौंदर्य नहीं होता । इसीलिए यह उस तरह दशकों तक सहेजा और सुना  नहीं जाता जिस तरह शुद्ध शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अहमद जान थिरकवा या पं मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे महान संगीतज्ञों की रिकॉर्डिंग को आज भी न केवल सुना जाता है, बल्कि सुन कर सीखा भी जाता है ।

 

पाश्चात्य संगीत से प्रभावित आधुनिक फ्यूज़न संगीत को बढ़ावा देने में कई टी.वी. और रेडियो चैनल सक्रिय हैं और शास़्त्रीय संगीत की ओर ध्यान देने वाला, आकाशवाणी के ‘रागम्’ को छोड़ कर,  एक भी चैनल टी.वी. में नहीं है । फिर भी हिंदुस्तानी संगीत पहले की तुलना में आज बेहतर दौर में है । इस संदर्भ में आधुनिक संचार तकनीक की सुविधाएँ शास्त्रीय संगीत के कलाकारों और श्रोताओं के लिए महत्वपूर्ण मंच सिद्ध हुई हैं । अनेक कलाकार डिज़िटल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं और सुधी श्रोताओं से उन्हें पर्याप्त सराहना भी मिल रही है ।  फेसबुक और यू-ट्यूब में अनेक प्रतिभावान कलाकारों के व्यक्तिगत और सामूहिक मंचों पर हज़ारों नए-पुराने और ‘लाइव’ संगीत कार्यक्रम देखे जा रहे हैं । आगरा घराने की गायिका प्रिया पुरुषोत्तम कहती हैं - ‘‘लॉकडाउन के दौर में युवा संगीतकारों ने न केवल प्रदर्शन करके बल्कि लिखकर, मुद्दों पर बोलकर अपने काम का प्रसार कर के अपनी आवाज बढ़ाने के लिए डिज़िटल संसाधनों का भरपूर उपयोग किया ।’’

यह भी सच है कि शास्त्रीय संगीत के सौंदर्य की वास्तविक रसानुभूति तब अधिक होती है जब कलाकार और श्रोता आमने-सामने होते हैं । मीडिया अधिकाधिक श्रोताओं तक कला को पहुँचाने  का एक वैकल्पिक माध्यम अवश्य है । देश में योग्य युवा प्रतिभाओं का सागर है । इन कलाकारों को पर्याप्त प्रोत्साहन और अवसर दिए जाने की आवश्यकता है । इस संदर्भ में अनेक संस्थाओं, संगीतकारों और आयोजकों ने इस क्षेत्र में लगन से काम किया है । देश भर में स्थित विभिन्न संगीत संस्थाएँ, संगीत शोध केंद्र, शासन के सहयोग से होने वाले संगीत समारोह, स्वतंत्र आयोजक और आकाशवाणी नवोदित कलाकारों को मंच पर प्रदर्शन का अवसर प्रदान करने का निरंतर उद्यम करते रहे हैं । विद्यालयीन बच्चों में भारतीय शास्त्रीय संगीत की सभी विधाओं के समृद्ध विरासत के प्रति रुचि जगाने का काम विगत 40 वर्षों से ‘स्पिक मैके’ जैसी प्रतिष्ठित संस्था कर रही है । इसके संस्थापक प्रो. किरण सेठ कहते हैं- ‘‘ मेरा दृष्टिकोण यह है कि प्रत्येक बच्चे को भारतीय कला और विरासत में निहित रहस्य का अनुभव संगीत के माध्यम से हो । जब संगीत के माध्यम से युवा खुद से और दुनिया से जुड़ते हैं तो यह दुनिया को एक बेहतर जगह बनाता है ।’’ प्रो. किरण सेठ का यह स्तुत्य कार्य तब फलीभूत हुआ लगता है जब ईशान घोष कहते हैं- ‘‘मेरा मानना है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरी पीढ़ी के लोगों में विशेष आकर्षण है जो कि कई दिग्गज हस्तियों के योगदान और सर्वोच्च प्रतिभाशाली युवा संगीतकारों की संख्या में वृद्धि का कारण है । भारत में और विदेशों में भी इतनी बड़ी संख्या में शास्त्रीय संगीत समारोहों में हमारे उम्र के लोगों को भाग लेते देखना अच्छा लगता है ।’’

हिंदुस्तानी संगीत के प्रति इन नए युवा संगीतकारों की लगनशीलता को श्रोताओं का उत्साह प्रेरित करती है । यह शास्त्रीय संगीत का जादू ही है जिसके कारण इंजीनियरिंग में स्नातक देबांजन भट्टाचार्य  इंफोसिस में नौकरी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं और अपना भविष्य सरोद के सुरों को सौंप देते हैं, यह शास्त्रीय संगीत के प्रति जुनून ही है कि आई.आई.टी. से कम्प्यूटर साइंस में स्नातक कशिश मित्तल प्रतिष्ठित आई.ए.एस. की नौकरी त्याग कर ख़याल गायन की लय-तान साध रहे हैं । शास्त्रीय संगीत के साधक ये सभी नवोदित कलाकार देश की सांस्कृतिक गरिमा के रक्षक और वाहक हैं । यह हम सब का उत्तरदायित्व है कि हम इन्हें सुनें और सराहें । भारत के प्रथम राष्टपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 24 अक्टूबर , 1959 को आकाशवाणी संगीत सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए जो बात कही थी वह आज भी प्रासंगिक है- ‘‘संगीत आदि कलाएँ संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग हैं । वास्तव में हमारी एकीकरण की जो क्षमता है, वह इसे इन कलाओं से प्राप्त हुई है । इसीलिए संगीत और दूसरी कलाओं को प्रोत्साहन देना भारतीय संस्कृति को उन्नत करने के समान माना जाता है ।’’

- महेन्द्र वर्मा