दीप कैसा हो कहीं हो,
सूर्य का अवतार है यह
जल गया है दीप तो
अँधियार ढल कर ही रहेगा
दीप के लिए अभिव्यक्त कवि नीरज की इन सरल-सहज पंक्तियों में हमारी गौरवमयी वैश्विक संस्कृति के अनेक आयामों की अभिव्यंजना है । सूर्य, अग्नि और दीपक वैश्विक संस्कृति के आधार हैं । इन अभिव्यंजित अर्थों को समझने के लिए हमें अपनी संस्कृति के अतीत की ओर निहारना होगा । सभ्यता और संस्कृति निरंतर विकासमान अवधारणाएँ हैं । आदि मानवों के युग में, जब उनका जीवन क्षुधापूर्ति और संतति पालन तक ही सीमित था, तब सभ्यता और संस्कृति जैसे तत्वों का बीजारोपण भी नहीं हुआ था, तब देवता या ईश्वर जैसी अवधारणाएँ भी नहीं थीं । बुद्धि के विकास की प्रारंभिक अवस्था में विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं के कारण मनुष्य के मन में जो पहली प्रतिक्रिया उपजी वह भय और आश्चर्य के रूप में अभिव्यक्त हुई । यहीं से प्राकृतिक शक्तियों को देवता माने जाने की परंपरा प्रारंभ हुई । दिन में सूर्य का प्रकाश और रात में चंद्रमा तथा असंख्य तारों का चमकना तब के मनुष्यों के लिए विस्मयकारी घटनाएं थीं। देवता संबंधी प्रारंभिक अवधारणाओं का संबंध इन्हीं घटनाओं से है ।
दुनिया भर के प्राचीन धर्मों, लोकधर्मों और लोककथाओं के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रकाश या उससे संबंधित प्राकृतिक वस्तुएँ और घटनाएँ जैसे, सूर्य, चंद्रमा, तारे, अग्नि, तड़ित आदि को मनुष्य ने सबसे पहले देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया । इस अवधारणा के पक्ष में एक प्रमुख तथ्य यह है कि दुनिया की अनेक संस्कृतियों में देवता के लिए जो शब्द हैं वे सूर्य, अग्नि, प्रकाश या चमक के अर्थ वाले हैं । अनेक संस्कृतियों में सूर्य और अग्नि प्रथम देवता हैं । संस्कृत में देव शब्द की व्युत्पत्ति दिव् धातु से हुर्ह है जिसका अर्थ है- चमकना । इसी से द्यौः की व्युत्पत्ति हुई है, जिसका अर्थ आकाश है । वेदों में आकाश भी एक प्रमुख देवता है क्योंकि उसमें सभी चमकने वाले पिंड अर्थात सूर्य, तारे, ग्रह आदि स्थित हैं ।
सूर्य की देव रूप में व्यापक प्रतिष्ठा रही है । रात्रि के भयकारी अंधकार के बाद तीक्ष्ण प्रकाश के साथ उदित, गतिमान् और अस्त होते सूर्य ने विश्व की प्रत्येक सभ्यता को प्रभावित किया । सभ्यता के ऊषाकाल से ही मनुष्य उसकी उपासना के लिए प्रवृत्त हुआ । सूर्य की उपासना भारत के अतिरिक्त विश्व के सभी लोकधर्मों में भी की जाती रही है । अभी मनुष्य ने स्वयं आग उत्पन्न करना नहीं सीखा था इसलिए न तो याज्ञिक अग्नि का और न ही दीपक का अस्तित्व था किंतु प्राकृतिक अग्नि जैसे, दावानल, तड़ित, ज्वालामुखी से उसका सामना हो चुका था । यह प्राकृतिक अग्नि मनुष्य के नियंत्रण में नहीं आ सकती थी, यह हानिकर भी थी और लाभप्रद भी इसलिए उसने इसे भी देवता के रूप में स्वीकार किया क्योंकि इसके गुण सूर्य के गुणों से साम्य रखते हैं । ऋग्वेद के कई मंत्रों में अग्नि और सूर्य का तादात्म्य मिलता है । शतपथ ब्राह्मण में अग्नि को द्यौः का पुत्र सूर्य या विद्युत कहा गया है ।
मनुष्य ने जब स्वयं अग्नि उत्पन्न करना और उसे नियंत्रित करना सीख लिया तब याज्ञिक अनुष्ठानों के रूप में धार्मिक क्रियाओं में बहुत बड़ी क्रांति हुई । अग्नि वैदिक युग के सर्वाधिक प्रसिद्ध देवों में से एक है । कर्मकांडमूलक वैदिक काल में जिसमें प्रति क्षण अग्नि की आवश्यकता होती थी, ऐसा होना स्वाभाविक भी है । अग्नि के प्रति की गई प्रार्थनाओं में प्राचीन काल के ऋषियों की वह मूल धार्मिक भावना परिलक्षित होती है जिसके अंतर्गत किसी महत्वपूर्ण भौतिक तत्व को उसकी महत्ता और उत्कृष्टता के कारण दैवी भाव से युक्त मान लिया जाता है और उसमें स्फुरित होने वाली दैवी चेतना धीरे-धीरे स्वतंत्र हो कर उपास्य देव का स्वरूप धारण कर लेते हैं । यही अग्नि आजकल दीपक के स्वरूप में प्रत्येक धार्मिक और मंगलकार्यों में सर्वप्रथम आमंत्रित कर स्थापित की जाती है।
वैदिक संहिताओं में इन्द्र के पश्चात अग्नि ही सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं । केवल ऋग्वेद में अग्नि के 200 सूक्त प्राप्त होते हैं । ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छंदा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्निदेवता की स्तुति करता हूँ जो सभी यज्ञों के पुरोहित हैं । विश्व साहित्य का प्रथम ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम शब्द अग्नि है । ब्राह्मण ग्रंथों में बार-बार उल्लेख है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है । वैदिक काल में यज्ञ एवं अन्य कर्मकांडों के महत्व के साथ-साथ अग्नि के महत्व में भी वृद्धि हुई है । ऋषियों की दृष्टि उसके भौतिक रूप से ऊपर उठकर आकाश और अंतरिक्ष तक पहुँची है, आकाश में तड़ित विद्युत और अंतरिक्ष में सूर्य को अग्नि का जनक माना गया है । सुलभ होने के कारण अब सूर्य की तुलना में अग्नि अधिक महत्वपूर्ण देवता हो गए मानो सूर्य का तेज और उसकी ज्वाला लौकिक अग्नि में समा गई हो ।
यज्ञ में प्रज्ज्वलित अग्नि को अंतरिक्ष और आकाश में स्थित देवताओं तक उनके भाग को पहुँचाने वाला देवता माना गया है । ऐसा इसलिए माना गया क्योंकि अग्नि की लपटें और धूम्र ऊपर आकाश की ओर जाते हैं । ऋग्वेद (1.58.1) में उल्लेख है कि अग्नि अंतरिक्ष में प्रकाशित हो कर उत्तम मार्गों से गमन करते हैं । देवों को समर्पित हविष्यान्न उन्हें सौंप कर सम्मानित करते हैं । यज्ञ करने वाला पुरोहित वेदी में हवि को इसलिए डालता था ताकि अग्नि अपनी लपटों और धुँए के माध्यम से उसे आकाशस्थ देवताओं तक पहुँचा दे । शतपथ ब्राह्मण (5.2.3.6) में कहा गया है- ‘‘अग्नि सब देवों के संयुक्त रूप हैं, क्योंकि अग्नि में ही सब देवों के लिये हवन किया जाता है । वे देवों के मुख तथा जिह्वा हैं ।’’
वैदिक सभ्यता के अतिरिक्त ग्रीक, रोमन, लिथुआनिया आदि सभ्यताओं में भी देवताओं को भोग लगाने की यही रीति प्रचलित थी । इस प्रकार मनुष्यों और देवताओं के मध्य एक कड़ी के रूप में अग्नि का बहुत मान-सम्मान था । ग्रीक अग्निदेवी ‘हेस्तिया’ घर की वेदी में स्थित अग्नि की अधिष्ठात्री है । ग्रीस में एक मंडप के नीचे, जिसे ‘प्रितानियुम्’ कहते थे, अग्नि प्रज्ज्वलित रहती थी । यहाँ से गुजरने वाले यात्री अपने शहरों और घरों के लिए अग्नि ले जाते थे । पारसी या जरथ्रुस्त धर्म में अग्निदेव ‘अतर’ सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं । पारसी समुदाय में अग्नि की पूजा इतना महत्वपूर्ण कर्मकांड है कि इसके बिना पारसी धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती । उनके मंदिर अगियारी में अग्नि निरंतर प्रज्ज्वलित रहती है । लिथुआनियन धर्म में ‘उग्निस स्जेवेन्ता’ (पवित्र अग्नि) की वर्ष भर उपासना की जाती थी । इसे घरों में बनी हुई वेदियों में सदैव प्रज्ज्वलित रखा जाता था । रोमन सभ्यता के मंदिरों में अग्नि सदैव जलती रहती थी । यदि आग बुझ जाती तो उसको उसी तरह लकड़ियों के घर्षण से जलाया जाता था जैसे हमारे यहाँ भारत में अरणियों के मंथन से जलाया जाता था । तैत्तिरीय संहिता (6.2.8) में कहा गया है कि एक बार अग्निदेव शमी के वृक्ष में छिप गए । तब देवों ने उसकी लकड़ियों को परस्पर घर्षित कर अर्थात मंथन कर अग्नि को उत्पन्न किया । इस विधि से आग उत्पन्न करना भारत के अतिरिक्त शेष विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में प्रचलित था । इस के अनेक वर्षों के पश्चात आवासों और विशेष अवसरों पर दीये प्रज्ज्वलित करने की परंपरा प्रारंभ हुई होगी ।
विश्व लोक साहित्य की कथाओं में भिन्न-भिन्न तरह से कल्पना की गई है कि अग्नि को आकाश से या स्वर्ग से कैसे धरती तक लाया गया । जैसे ग्रीक देवता प्रोमेथियस स्वर्ग से अग्नि के साथ साथ संगीत के वाद्ययंत्र भी लाते हैं । वैदिक देवशास्त्र में मातरिश्वा गुप्त अग्नि को पृथ्वी पर लाते हैं । महाभारत (अनु. 85.15) में कहा गया है कि अग्नि की ज्वाला से पहले भृगु उत्पन्न हुए और अंगारों से अंगिरा जन्मे । ऋग्वेद (1.143.4) में कहा गया है - ‘‘जिस अग्नि देव को भृगुवंशी ऋषियों ने अपने सामर्थ्य से पृथ्वी पर समस्त ऐश्वर्यों के लिए प्रतिष्ठित किया ऐसे अग्निदेव को आप भी अपने गृह में ले जा कर श्रेष्ठ प्रार्थनाओं से प्रज्ज्वलित करें ।’’ 50-60 वर्ष पहले तक गाँवों में जब दियासलाई का प्रचलन नहीं था तब संपन्न घरों में ‘गोरसी’ में निरंतर आग सुलगती रहती थी । अन्य घरों की महिलाएँ उन घरों में ‘आग माँगने’ जाती थीं तब अपने घरों में आग सुलगाती थीं और दीये जलाती थीं । घरों में स्थापित होने के कारण अग्नि को गृहपति भी कहा जाता है ।
पुराणों में अग्नि के सौम्य एवं भीषण सभी पक्षों का उल्लेख है साथ ही उनका आंशिक सशरीर दैवीकरण भी हुआ है । फिर भी पुराणों में अग्नि का उतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं है जितना वेदों में है । याज्ञिक कर्मकाण्ड के ह्रास ने दीपक की महत्ता में वृद्धि की है । सूर्य का प्रतिरूप अग्नि है और अग्नि का प्रतिरूप दीपक है । इसीलिए स्कंद पुराण में दीपक को सूर्य का प्रतीक कहा गया है । आज प्रत्येक धार्मिक और शुभ कार्यों में दीपक और अंगारों का प्रयोग होता है । याज्ञिक अग्नि का कार्य ये दोनों कर देते हैं । दीपक की प्रज्ज्वलित ज्वाला प्रतीकात्मक रूप से यज्ञाग्नि का कार्य करते हैं । देवों को अर्पित किए जाने वाला हविष्य अब अंगारों में डाला जाता है ताकि उससे उठता हुआ धूम्र, जैसे यज्ञ में होता था, ऊपर आकाश की ओर गमन कर देवताओं तक पहुँचे । आज विश्व के सभी संगठित धर्मों और लोकधर्मों की पूजा-पद्धति और अन्य धार्मिक कर्मकांडों में ज्वाला और धूम्र उत्पादक साधनों का प्रयोग होता है, जैसे- दीया, मोमबत्ती, अगरबत्ती, लोबान आदि । कैसा आश्चर्य है, साधन और साध्य एक किंतु धर्मों, सर्वोच्च शक्तियों और कर्मकांडों के नाम भिन्न-भिन्न हैं ।
अग्नि, सूर्य और दीपक के गुणों में समानता है । तीनो ज्वालाओं के पुंज हैं इसलिए आंतरिक और बाह्य तिमिर के नाशक हैं । तीनों पावक हैं, अपनी ऊष्मा और प्रकाश से अपावन को पवित्र करने वाले हैं । ब्रह्माण्डीय वैश्वानर ही दीपक में समाहित है । दीये के रूप में मनुष्य को सूर्य के अंश का सामीप्य सुलभ हुआ है । एक दीप जलाकर वह मानव सभ्यता द्वारा कल्पित प्रथम देवता सूर्य को अपने समीप जागृत कर सकता है । मानो दीप का महत्व सूर्य से भी अधिक हो गया है, एक सुभाषित श्लोक में चंद्र और सूर्य को दीपक कहा गया है- ‘‘प्रदोषे दीपकः चंद्रः, प्रभाते दीपकः रविः’’। दीपक की तुलना ज्ञान से की जाती है । सामान्य दीपक बाह्य अंधकार को दूर करता है जबकि ज्ञान का दीपक आंतरिक अंधकार को दूर करता है । दीपक अमरत्व का भी प्रतीक है और सत्य का भी । इसीलिए वृहदारण्यक का ऋषि यह उद्घोष करता है - ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्माअमृतंगमय’’ ।
दीपक पंचमहाभूतों का आदर्श समन्वय है । दीप जलाने का अर्थ अग्नि के देवत्व की स्थापना भी है और सूर्य की तेजस्विता का आमंत्रण भी है । दीपक जलाना उन सभी सकारात्मक भावों और शक्तियों को भी जागृत करना है जो सभी के लिए शुभकारक हैं, मंगलदायक हैं। दीपावली पर्व में तो दीपों की पंक्तियाँ जलाई जाती हैं, धर, आँगन, गलियाँ, चौराहे- सभी ओर, जैसे सहस्रों सूर्य धरती पर उतर आए हों, अमावस्या की रात्रि की गहन कालिमा, चाहे वह बाह्य जगत की हो या अंतर्मन की, को भस्म कर भूदिशाओं और हमारी मनोदशाओं को प्रियकर उजास से आपूरित करने !
- महेन्द्र वर्मा