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तितलियों का ज़िक्र हो





प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफ़िलों में अब ज़रा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।


मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।


रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या ज़रूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।


फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।


गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गाँव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।


इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।


दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।

                                                                            -महेन्द्र वर्मा                                            

श्वासों का अनुप्रास










 







सच को कारावास अभी भी,
भ्रम पर सबकी आस अभी भी ।

पानी ही पानी दिखता  पर,
मृग आँखों में प्यास अभी भी ।

मन का मनका फेर कह रहा,
खड़ा कबीरा पास अभी भी ।                                               

बुद्धि विवेक ज्ञान को वे सब,
देते हैं  संत्रास  अभी  भी ।

जीवन लय  को  साध  रहे हैं,
श्वासों का अनुप्रास अभी भी ।

पाने का  आभास क्षणिक था,
खोने का अहसास अभी भी ।

पंख हौसलों के ना कटते,
उड़ने का उल्लास अभी भी ।


                                 -महेन्द्र वर्मा







ले जा गठरी बाँध

वक़्त घूम कर चला गया है मेरे चारों ओर,
बस उन क़दमों का नक़्शा है मेरे चारों ओर ।

सदियों का कोलाहल मन में गूँज रहा लेकिन,
कितना सन्नाटा पसरा है मेरे चारों ओर ।

तेरे पास अभाव अगर है ले जा गठरी बाँध,
नभ जल पावक मरुत धरा है मेरे चारों ओर ।

मंदिर मस्जिद क्यूँ भटकूँ जब मेरा तीरथ नेक,
शब्दों का सुरसदन बना है मेरे चारों ओर ।

रहा भीड़ से दूर हमेशा बस धड़कन थी पास,
रुकी तो सारा गाँव खड़ा है मेरे चारों ओर ।

                                             
  -महेन्द्र वर्मा

मौसम की मक्कारी

हरियाली ने कहा देख लो  मेरी यारी कुछ दिन और,
सहना होगा फिर उस मौसम की मक्कारी कुछ दिन और ।

बाँस थामकर  नाच रहा था  छोटा बच्चा रस्सी पर,
दिखलाएगा वही तमाशा वही मदारी कुछ दिन और ।

हर मंजि़ल का सीधा-सादा रस्ता नहीं हुआ करता,
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी से कर लो यारी कुछ दिन और ।

अंधी श्रद्धा   के बलबूते  टिका नहीं  व्यापार कभी,
बने रहो भगवान कपट से या अवतारी कुछ दिन और ।

ग़म के पौधों  पर यादों की  फलियाँ भी  लग जाएंगी,
अहसासों से सींच सको  ’गर  उनकी क्यारी कुछ दिन और ।

सुकूँ  नहीं मिलता  है दिल को  कीर्तन और अज़ानों से,
हमें सुनाओ बच्चों की खिलती किलकारी कुछ दिन और ।

तस्वीरों  पर  फूल  चढ़ा  कर  गुन  गाएंगे  मेरे  यार,
कर लो जितनी चाहे कर लो चुगली-चारी कुछ दिन और ।


                                                                                                      
-महेन्द्र वर्मा


जाने किसकी नज़र लग गई

कभी छलकती रहती थीं  बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया कैसे अपनी धरती पर ।

सभी मुसाफिर  इस सराय के  आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की बस जीने की  धरती पर ।

ममतामयी प्रकृति को चिंता है अपनी संततियों की,
सबके लिए जुटा कर रक्खा दाना -पानी धरती पर ।

पूछ  रहे  हो  हथेलियों  पर  कैसे   रेखाएँ   खींचें,
चट्टानों पर ज़ोर लगा, हैं बहुत नुकीली धरती पर ।

रस्म निभाने सबको मरना इक दिन लेकिन उनकी सोच,
जो हैं  अनगिन  बार  मरा  करते  जीते -जी  धरती पर ।

जब से पैसा दूध-सा हुआ  महल बन गए बाँबी-से,
नागनाथ औ’ साँपनाथ की भीड़ है बढ़ी धरती पर ।

मौसम रूठा रूठी तितली रूठी दरियादिली  यहाँ,
जाने किसकी नज़र लग गई आज हमारी धरती पर ।

                                                                                                              -महेन्द्र वर्मा

शुभ की कामना


घर का कोना-कोना उजला हुआ करे तो अच्छा हो,
मन के भीतर में भी दीपक जला करे तो अच्छा हो।

कहते हैं कुछ लोग कि कोई ऊपर वाला सुनता है,
तेरा मेरा उसका सबका भला करे तो अच्छा हो।

बैठे-ठालों के घर पर क्यों धन की बारिश होती है,
मिहनतकश लोगों के आँँगन गिरा करे तो अच्छा हो।

ढोंग और पाखंड तुले हैं नाश उजाले का करने,
एक दिया इनके मरने की दुआ करे तो अच्छा हो।

स्वस्थ-सुखी-समृद्ध सभी हों कहती है ये दीवाली,
शुभ की यही कामना सबको फला करे तो अच्छा हो।

त्योहारें  तो  मौसम-से  हैं  आते  जाते  रहते हैं,
अंतस्तल में रोज दिवाली हुआ करे तो अच्छा हो।


केवल वे ही सुन पाते हैं जिनको सुनना आता है,
इन बातों को सुनकर कोई जिया करे तो अच्छा हो।



 सभी मित्रों को दीपावली की अशेष शुभकामनाएँँ।

                                                               
                                                                                   -महेन्द्र वर्मा

डरता है अंधियार

जगमग हर घर-द्वार  कि अब दीवाली आई,
पुलकित  है  संसार  कि  अब  दीवाली आई।


दुनिया के  कोने-कोने  में  दीप  जले हैं, 
डरता है अंधियार कि अब दीवाली आई।


गीत प्यार के गीत मिलन के गीत ख़ुशी के, 
गाओ  मेरे   यार   कि  अब   दीवाली  आई।


जी भर जी लो गले लगालो सबको हंसकर,
जीवन के  दिन  चार  कि अब दीवाली आई।


दुनिया से  अब  द्वेष  मिटाकर ही दम लेंगे,
दिल में रहे बस प्यार कि अब दीवाली आई।


सुख समृद्धि स्वास्थ्य संपदा मिले सभी को,
यही  कामना   चार  कि   अब दीवाली आई।


धरती  सागर  जंगल सरिता गगन पवन पर,
हो सबका  अधिकार कि  अब  दीवाली आई।


खुद  भी  जियो   और   दूसरों को जीने दो,
जीवन  का यह सार कि अब  दीवाली  आई।



जीवन के इस महा समर में दुआ करें हम,
हो न किसी की हार कि अब दीवाली आई।


अक्षत  रोली  और  मिठाई  ले  आया  हूं,
स्वीकारो  उपहार  कि अब दीवाली  आई।

दीपावली की अशेष शुभकामनाओं के साथ...

                                       -महेन्द्र वर्मा

नए वर्ष से अनुनय

ढूँढो कोई कहाँ पर रहती मानवता,
मानव से भयभीत सहमती मानवता।

रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी लगती मानवता।

मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध लरजती मानवता।

है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ-पूछ कर रही भटकती मानवता।

मेरे दुख को अनदेखा न कर देना
नए वर्ष से अनुनय करती मानवता।

                                                           
-महेन्द्र वर्मा
नव-वर्ष शुभकर हो !

गीतिका



यादों को विस्मृत कर देना बहुत कठिन है,
ख़ुद को ही धोखा दे पाना बहुत कठिन है।

जाने कैसी चोट लगी है अंतःतल में,
टूटे दिल को आस बंधाना बहुत कठिन है।

तैर रही हो विकट वेदना जिनमें छल-छल,
उन आंखों की थाह जानना बहुत कठिन है।

नादानों को समझा लेंगे कैसे भी हो,
समझदार को समझा पाना बहुत कठिन है।

जीवन सरिता के इस तट पर दुख का जंगल,
क्या होगा उस पार बताना बहुत कठिन है।

झूठ बोलने वालों ने आंखें दिखलाईं,
ऐसे में सच का टिक पाना बहुत कठिन है।

मौत किसे कहते हैं यह तो सभी जानते,
जीवन को परिभाषित करना बहुत कठिन है।
                                                                       -महेन्द्र वर्मा

सपना

ना सच है ना झूठा है,
जीवन केवल सपना है।

कुछ सोए कुछ जाग रहे,
अपनी-अपनी दुनिया है।

सत्य बसा अंतस्तल में,
बाहर मात्र छलावा है।

दुख ना हो तो जीवन में,
सूनापन सा लगता है।

मुट्ठी खोलो देख जरा,
क्या खोया क्या पाया है।

गर विवेक तुममें नहीं,
मानव क्यूं कहलाता है।

प्रेम कहीं देखा तुमने,
कहते हैं परमात्मा है।
                                  
                        -महेन्द्र वर्मा

गीतिका : दिन



सूरज का हरकारा दिन,
फिरता मारा-मारा दिन।


कहा सुबह ने हँस लो थोड़ा, 
फिर रोना है सारा दिन।


जिनकी किस्मत में अँधियारा,
तब क्या बने सहारा दिन।


इतराता आया पर लौटा, 
थका-थका सा हारा दिन।


रात-रात भर गायब रहता,
जाने कहाँ कुँवारा दिन।


मेरे ग़म को वह क्या समझे,
तारों का हत्यारा दिन।

                                                -महेन्द्र वर्मा

देश हमारा

,
आलोकित हो दिग्दिगंत, वह दीप जलाएं,
देश हमारा झंकृत हो, वह साज बजाएं।


जन्म लिया हमने, भारत की पुण्य धरा पर,
सकल विश्व को इसका गौरव-गान सुनाएं।


कभी दूध की नदियां यहां बहा करती थीं,
आज ज्ञान-विज्ञान-कला की धार बहाएं।


अनावृत्त कर दे रहस्य जो दूर करे भ्रम,
ऐसे सद्ग्रंथों का रचनाकार कहाएं।


गौतम से गांधी तक सबने इसे संवारा,
आओ मिल कर और निखारें मान बढ़ाएं।


भाग्य कुपित है कहते, जो हैं बैठे ठाले,
कर्मशील कर उनको जीवन-गुर सिखलाएं।


कोटि-कोटि हाथों का श्रम निष्फल न होगा,
धरती को उर्वरा, देश को स्वर्ग बनाएं।

                                                                    -महेंद्र वर्मा

गीतिका : बरसात में



धरणि धारण कर रही, चुनरी हरी बरसात में,

साजती शृंगार सोलह, बावरी बरसात में।



रोक ली है राह काले, बादलों ने किरण की,

पीत मुख वह झाँकती, सहमी-डरी बरसात में,



याद जो आई किसी की, मन हुआ है तरबतर,

तन भिगो देती छलकती, गागरी बरसात में।



एक तो बूँदें हृदय में, सूचिका सी चुभ रहीं,

क्यों किसी ने छेड़ दी फिर, बाँसुरी बरसात में।



क्रोध से बौरा गए, होंगे नदी-नाले सभी,

सोचते ही आ रही है, झुरझुरी बरसात में।



ऊपले गीले हुए, जलता नहीं चूल्हा सखी,

किंतु तन-मन क्यों सुलगता, इस मरी बरसात में


                                     
                                                                   -महेंद्र वर्मा

चकित हुआ हूं


तिक्त हुए संबंध सभी मैं 
व्यथित हुआ हूं,
नियति रूठ कर चली गई या,
भ्रमित हुआ हूं।
दुर्दिन में भी बांह छुड़ा कर 
चल दे ऐसे,
मित्रों के अपकार भार से 
नमित हुआ हूं।
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा 
साम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
अनुशीलन कर ग्रंथ सहस्त्रों
ज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।

                                         -महेन्द्र वर्मा

मानवता


ढूंढूं कहां, कहां खो जाती मानवता,
अभी यहीं थी बैठी रोती मानवता।


रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी होती मानवता।


मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता।


दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।


है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता।


सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।


उसने उसके बहते आंसू पोंछ दिए,
वो देखो आ गई विहंसती मानवता।

                                                            -महेन्द्र वर्मा

रंगमंच


हित रक्षक भक्षक बन जाए क्या कर लोगे,
सुख ही दुखदायक बन जाए क्या कर लोगे।


बहिरंतर में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व सजाए
मित्र कभी निंदक बन जाए क्या कर लोगे।


पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।


विश्वासों के धवल वसन में छिद्र हैं इतने,
सूत्र सूत्र जालक बन जाए क्या कर लोगे।


शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।


शूल चुभोया अपनों ने जो कभी हृदय में
घाव वही घातक बन जाए क्या कर लोगे।

                                                                 -महेन्द्र वर्मा

गीतिका



रात ने जब-जब किया श्रृंगार है,
चांद माथे पर सजा हर बार है।


ओस, जैसे अश्रु की बूंदें झरीं,
चांदनी रोती रही सौ बार है।


नीलिमा लिपटी सुबह आकाश से,
क्षितिज का मुंह लाज से रतनार है।


खिलखिलाकर खिल उठी है कुमुदिनी,
किरण ने उस पर लुटाया प्यार है।


ढीठ बादल देख इतराता हुआ,
सूर्य का चेहरा हुआ अंगार है।


दिवस के मन में उदासी छा गई,
सांझ उसका छूटता घर-बार है।


हैं यही सब रंग जीवन में मनुज के,
लोग कहते हैं यही संसार है।

                                                       -महेन्द्र वर्मा

जीवन




स्वार्थ का परमार्थ से है युद्ध जीवन,
हो नहीं सकता सभी का बुद्ध जीवन।


श्रम हुआ निष्फल, कभी पुरुषार्थ आहत,
नियति के आक्रोश से स्तब्ध जीवन।


पूर्ण न होतीं कभी भी कामनाएं,
लालसाओं से सदा विक्षुब्ध जीवन।


जिन विधानों से हुई रचना जगत की,
क्या उन्हीं से है नहीं आबद्ध जीवन ?


ज्ञात हो जिसको बताए सत्य क्या है,
कर्म का संकल्प या प्रारब्ध जीवन।


शास्त्र कहता है सदा चलते रहो पर,
है अधूरे मार्ग सा अवरुद्ध जीवन।


भाव से न अभाव से संबंध इसका,
मात्र श्वासों से रहा संबद्ध जीवन।


                                                           -महेन्द्र वर्मा

इंसान की बातें करें

नूतन वर्ष की प्रथम रचना


सृजन का संकल्प लें,
निर्माण की बातें करें।
कामनाएं शुभ करें,
कल्याण की बातें करें।


जन्म लेता है उजाला,
हर तमस के गर्भ से,
क्यों नही तब आज स्वर्ण-
विहान की बातें करें।


अनुकरण उनका करें जो,
विश्व के आदर्श हैं,
न्याय के पथ पर चलें,
ईमान की बातें करें।


हृदय में हो नेहपूरित-
भावना सबके लिए,
यों परस्पर मान की,
सम्मान की बातें करें।


बढ़ चले हैं राह पर,
अब पग नहीं पीछे हटें,
प्रगति के सोपान की,
उत्थान की बातें करें।


है प्रकृति का नेह हम पर,
जान लें पहचान लें,
दृष्टि वैसी दे सके,
उस ज्ञान की बातें करें।


बात तो करते रहे हैं,
हम सदा भगवान की,
अब चलो ऐसा करें,
इंसान की बातें करें।

                                 -महेन्द्र वर्मा

सारी दुनिया




तेरा  मुझसे  क्या  नाता  है, पूछ  रही  है  सारी  दुनिया,
अपनी मर्जी का मालिक बन, अड़ी खड़ी है सारी दुनिया।


बारूदी पंखुड़ी लगा कर, काल उड़ रहा आसमान में,
नागासाकी  न  हो  जाए, डरी  डरी  है सारी दुनिया।


जाने कितने पिण्ड सृष्टि के, ब्लैक होल में बदल गए,
धरती उसमें समा न जाए, सहम गयी है सारी दुनिया।


अनगिन लोग हैं जिनके सर पर, छत की छांव नहीं लेकिन,
मंगल ग्रह  पर  महल  बनाने, मचल  उठी है सारी दुनिया।


ढूंढ रहा था मैं दुनिया को, देखा जब तो सिहर गया,
लाशों के  मलबे के  नीचे, दबी  पड़ी  है सारी दुनिया।


संबंधों के  फूल  महकते, थे  जो  सारे  सूख  गए हैं,
ढाई आखर के मतलब को भूल चुकी है सारी दुनिया।


आंधी तूफां तो  जीवन  में, आते  जाते ही रहते हैं,
नई नई उम्मीदों से भी, भरी भरी है सारी दुनिया।


मां की ममता के आंगन में, थिरक रहा है बचपन सारा,
उसके आंचल  के  कोने  से, नहीं बड़ी है सारी दुनिया।

                                                               - महेन्द्र वर्मा