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धर्म से दूर होती नैतिकता


 




अलग-अलग संस्कृति में धर्म का अर्थ अलग-अलग होना  संभव है । इसी प्रकार नैतिकता के अर्थ में भी किंचित भिन्नता हो सकती है । किंतु सभी संस्कृतियों में धर्म का सामान्यीकृत अर्थ 'ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास' है । इसी प्रकर नैतिकता का सर्वस्वीकृत अर्थ ‘मानवीय सद्गुणों पर आधारित व्यवहारों का समूह’ है । दुनिया के लगभग सारे धर्मों ने अपने प्रारंभिक स्वरूप में व्यक्ति के नैतिक गुणों के विकास पर अधिक जोर दिया है । विभिन्न स्मृति ग्रंथों में क्षमा, दया, संयम, धैर्य, सत्य आदि धर्म के जो विभिन्न लक्षण बताए गए हैं वे सभी मानवीय गुण हैं, मनुष्य के नैतिक गुण हैं । तैत्तिरीय उपनिषद की उक्ति ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ में ‘धर्मं चर’ का आशय ‘नैतिक नियमों के अनुसार आचरण’ करना है । तब धर्म और नैतिकता का लगभग समान अर्थ था ।

बाद के काल में एक ही धर्म के अनेक सम्प्रदाय बनते गए । तदनुसार मत और विचारधाराएंँ भी परिवर्तित होने लगीं । विचारों में मतभेद होने लगे, मतभेदों से विवाद और अंततः विवादों से संघर्ष होने लगे । लोग धर्म के नैतिक स्वरूप को भूल कर कृत्रिम धार्मिकता का अनुसरण करने लगे । इस विकार के संदर्भ में अनुमान किया जा सकता है कि धर्म ने जब संगठित रूप लिया होगा तब इसमें ऐसे लोग भी सम्मिलित हुए होंगे जो मन-हृदय से धार्मिक नहीं थे और केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे । इन्हीं परिस्थितियों में धर्म के मूल स्वरूप में विचलन होने लगा । इसमें अब ऐसे कार्यां को भी महत्वपूर्ण और धार्मिक माना जाने लगा जो मानवीय दृष्टिकोण से अनैतिक कहे जाते हैं, जैसे, पशुओं की बलि देना, दूसरे धर्म वालों से युद्ध कर उन्हें मार डालना ।

माण्डूक्य उपनिषद की गौड़पाद कारिका के टीकाग्रंथ में स्वामी विशुद्धानंद परिवा्रजक विभिन्न धर्म-संप्रदायों के संबंध में लिखते हैं- ‘‘सारी पृथ्वी में विरोधी भावनाओं, विरोधी भाषा, विरोधी इतिहास तथा विरोधी धर्मों के परस्पर युद्ध से अनेक बार विनाश हुआ है । अपने-अपने मत, मजहब और विचारों की हठधर्मिता के कारण प्राणी समुदाय को अनेक कष्ट सहना पड़ा है । बड़े-बड़े आत्मज्ञान, एकता और अद्वैत का उपदेश देने वाले अपने अभ्यासित संस्कार द्वारा प्राप्त नियमों के इतने दास होते हैं कि दम निकलने तक उनका परित्याग नहीं करते और व्यवहार के नाम पर मूढ़ता को पालते रहते हैं ।’’

सदियों से हर धार्मिक परंपरा में हिंसा जैसे अनैतिक कार्यों को स्वीकृति दी जाती रही है । विश्व भर की पौराणिक कथा-साहित्य और इतिहास में धर्म से संबद्ध लोगों के द्वारा अनैतिक कार्य किए जाने का उल्लेख मिलता है । यह आश्चर्य की बात है कि जो धर्म शांति, सद्भाव और विश्वबंधुत्व का संदेश देते रहे हैं वे भला असहिष्णुता और हिंसक आक्रामकता जैसे अनैतिक व्यवहारों से कैसे जुड़े रह सकते हैं ! धार्मिक लोग यह मानते हैं कि नैतिकता उनके धर्म के कारण ही आती है । अति धार्मिक लोग आश्चर्य करते हैं कि अनीश्वरवादी लोग नैतिक कैसे हो सकते हैं ! प्यू रिसर्च सेंटर के एक शोध से यह निष्कर्ष प्राप्त प्राप्त हुआ है कि अधिक शिक्षित देशों या क्षेत्रों में यह माना जाता है कि नैतिक होने के लिए आस्तिक होना अनिवार्य नहीं है । यह भी ज्ञात हुआ है कि आर्थिक रूप से कमजोर देशों में नैतिकता के लिए ईश्वर पर विश्वास होना अनिवार्य माना जाता है ।

अमेरिका के कैरोलीना विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक जोशुआ कॉनराड जैक्सन अपने एक शोध-पत्र में लिखते हैं- ‘‘दुनिया भर के अधिकांश लोग एक ओर दावा करते हैं कि नैतिक व्यक्ति होने के लिए ईश्वर में विश्वास आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर, कई विद्वान दावा करते हैं कि धर्म लोगों को क्रूर बनाता है । हमें बताया जाता है कि धर्म नैतिकता को जागृत रखता है लेकिन मामला इसके बिल्कुत विपरीत है । इस बात के पक्के सबूत मिलते हैं कि यह विश्वास लोगों को अधिक मतलबी कट्टर, और स्वार्थी बना देता है। प्यू रिसर्च सेंटर  द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के एक चौथाई देशों ने धार्मिक घृणा और आतंक,  धार्मिक लोगों की भीड़ द्वारा हिंसा, धार्मिक मान्यताओं के उल्लंघन के लिए महिलाओं का उत्पीड़न जैसी घटनाओं का सामना किया है । धार्मिक हिंसा में वृद्धि एक वैश्विक समस्या है और लगभग हर धार्मिक समूह इससे प्रभावित हुआ है । प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक पाल मार्शल के अनुसार धार्मिक उत्पीड़न और अपराध दुनिया भर में पाए जाने लगे हैं । उनका मत है कि धर्म संस्कृति को आकार देता है । अलग-अलग धर्म मानव जीवन के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण रखते है इसलिए वे एक-दूसरे का विरोध करने लगते हैं । दुनिया में बहुत से युद्ध धार्मिक कारणों से हुए हैं और हो रहे हैं ।

कई बार ऐसा देखा गया है कि धार्मिक लोग अक्सर दूसरों से नैतिक सिद्धांतों के पालन की अपेक्षा रखते हैं जिनका वे स्वयं पालन नहीं करते । धार्मिक लोग गैरधार्मिक लोगों की तुलना में अनैतिकता के अपने कृत्यों को न्यायोचित और धर्म आधारित कृत्य मनवाने का प्रयास करते हैं । ऐसा तब होता है जब मनुष्य  चार पुरुषार्थों में से काम और अर्थ को अधिक महत्व देने लगता है । तब वह जानबूझ कर या अनजाने में धर्म से विचलित हो जाता है । यह लालच, ईर्ष्या, और क्रोध के जुनून को जन्म देता है जो अनैतिक आचरण के कारण हैं ।

दुनिया में लगभग 6 अरब लोग स्वयं को धार्मिक कहते हैं । ये सभी मानते हैं कि धर्म और ईश्वर के कारण ही समाज में नैतिकता है । यदि यह सही है तो धार्मिक परिवारों के बच्चे अधिक उदार और दयालु होने चाहिए । लेकिन ‘करेंट बायोलॉजी’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के परिणाम इस का समर्थन नहीं करते । इस शोध का निष्कर्ष है कि धार्मिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चे बेहद अनुदार और गैरधार्मिक परिवार के बच्चे अपेक्षाकृत अधिक उदार होते हैं । कुछ बच्चों में यह प्रभाव जीवन भर बना रह सकता है । बच्चों को धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता सिखाना मानवीय दृष्टिकोण से अनैतिक है । धार्मिक समूह इस अध्ययन के निष्कर्षों से असहमत हो सकते हैं लेकिन दुनिया के उन देशों में जहां धार्मिकता अधिक है वहां असमानता और असहिष्णुता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है ।  लिंगभेद, जातिभेद, नस्लभेद जैसी परंपराएँ धर्म पर ही आधारित है जो कदापि नैतिक नहीं कहे जा सकते । न्यूनाधिक रूप से ऐसे व्यक्ति सभी धर्मों में होते हैं जो धर्म से जुड़े हुए हैं या कहें, जुड़े होने का ढोंग करते हैं । ऐसे लोग धर्म की आड़ लेकर अन्य व्यवसाय भी करते रहते हैं । उनके द्वारा किए जा रहे अनेक तरह के अनैतिक कृत्यों की खबरें समाचारों की सुर्खियाँ बनी रहती हैं । यह चिंता का विषय है कि नैतिकता धर्म से और अधिक दूर होती जा रही है ।

इसका आशय कदापि यह नहीं है कि नास्तिकता नैतिक होने की अनिवार्य शर्त है लेकिन शोध के परिणामों से यह अवश्य कहा जा सकता है कि नैतिक होने के लिए धार्मिक होना अनिवार्य नहीं है । अनेक विचारकों का भी मत है कि सच्ची नैतिकता धर्म से तटस्थ होती है । ऐसे बहुत से महात्मा हुए हैं जो धार्मिक भी थे और नैतिक भी, जैसे, बुद्ध, गुरुनानक, कबीर आदि । कुछ ऐसे भी महान लोग हुए हैं जो धार्मिक नहीं थे किंतु नैतिक थे, जैसे, शहीद भगत सिंह, संत तिरुवल्लुवर, अल्बेयर कामू , फ्रेडरिक नीत्शे आदि ।  इन सब ने विश्व को शांति और परस्पर प्रेम का संदेश दिया । इस विश्व को आज ऐसे ही महात्मा की आवश्यकता है जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के लिए दुनिया भर के लोगों के मन में परस्पर प्रेम और सद्भावना जागृत कर सके । फ्रांसीसी दार्शनिक अल्बेयर कामू से जब नैतिकता के संबंध में प्रश्न पूछा गया तो उनका जवाब था- ‘‘ यदि मुझसे कोई नैतिकता पर किताब लिखने को कहे तो मैं सौ पृष्ठों की किताब लिखूंगा । इसमें निन्यानबे पृष्ठ कोरे होंगे । आखिरी पृष्ठ पर लिखूंगा- मैं इंसानों के लिए सिर्फ एक कर्तव्य समझता हूँ और वो है, प्यार करना । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, उसके लिए मैं न कहता हूँ ।’’

-महेन्द्र वर्मा







 

on June 25, 2021 4 comments:
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Labels: धर्म, नैतिकता, मानवता, संस्कृति

प्राचीन संस्कृत साहित्य में होली

     


               

होली की मान्यता लोकपर्व के रूप में अधिक है किन्तु प्राचीन संस्कृत-शास्त्रों में इस पर्व का विपुल उल्लेख मिलता है । भविष्य पुराण में तो होली को शास्त्रीय उत्सव कहा गया है । ऋतुराज वसंत में मनाए जाने वाले रंगों के इस पर्व का प्राचीनतम सांकेतिक उल्लेख यजुर्वेद के तैत्तिरीय आरण्यक (1.3.5) में मिलता है- भाष्यकार सायण लिखते हैं- “वसंत ऋतु में देवता के वस्त्र हल्दी से रँगे हुए हैं ।" होली शब्द की उत्पत्ति ‘होलाका’ शब्द से हुई है । अथर्व वेद के परिशिष्ट (18,12.1) में फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि को होलाका कहा गया है- “फाल्गुनां पौर्णिमास्यां रात्रौ होलाका” । प्राचीन संस्कृत साहित्य में वसंतोत्सव का विस्तृत वर्णन है । यह उत्सव वसंत पंचमी से प्रारंभ हो कर चैत्र कृष्ण त्रयोदशी तक संपन्न होता था । होली इसी वसंतोत्सव के अंतर्गत एक विशेष पर्व है जिसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत साहित्य में विभिन्न नामों से मिलता है, यथा- फाल्गुनोत्सव, मधूत्सव, मदनोत्सव, चैत्रोत्सव, सुवसंतक, दोलोत्सव, रथोत्सव, मृगयोत्सव, अनंगोत्सव, कामोत्सव, फग्गु (प्राकृत) ।

 

पहली ईस्वी शती में कवि हाल द्वारा संकलित प्राकृत ग्रन्थ ‘गाथा सप्तशती’ में होली में एक-दूसरे पर रंगीन चूर्ण और कीचड़ फेंके जाने का वर्णन है- “नायिका अपनी हथेलियों में गुलाल ले कर खड़ी ही रह गई, नायक पर रंग डालने की उसकी योजना असफल हो गई (4.12) । किसी ने फाल्गुनोत्सव में तुम पर बिना विचारे जो कीचड़ डाल दिया है उसे धो क्यों रही हो (4.69) ।’’ चौथी-पाँचवीं शताब्दी के महाकवि कालिदास की कृति ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ में दो दासियों के वार्तालाप में वसंतोत्सव की चर्चा है- “कृपा कर बताइए कि राजा ने वसंतोत्सव मनाए जाने पर प्रतिबन्ध क्यों लगाया है ? मनुष्यों को राग-रंग सदा से प्रिय है इसलिए कोई बड़ा ही कारण होगा ।’’ कालिदास की ही रचना ‘मालविकाग्निमित्र’ के अंक 3 में विदूषक राजा से कहता है- “रानी इरावती जी ने वसंत के आरम्भ की सूचना देने वाली रक्ताशोक की कलियों की पहले-पहल भेंट भेज कर नए वसंतोत्सव के बहाने निवेदन किया है कि आर्यपुत्र के साथ मैं झूला झूलने का आनंद लेना चाहती हूँ ।" 7 वीं शती के कवि दंडी रचित 'दशकुमारचरित' में होली का उल्लेख 'मदनोत्सव' के रूप में किया गया है। इसी काल में हर्ष ने ‘रत्नावली’ नाटक लिखा । इस के पहले अंक में विदूषक राजा से होली की चर्चा इस प्रकार करता है- “इस मदनोत्सव की शोभा तो देखिए, युवतियाँ अपने हाथों में पिचकारी ले कर नागर पुरुषों पर रंग डाल रहीं हैं और वे पुरुषगण कौतूहल से नाच रहे हैं । उडाए गए गुलाल से दसों  दिशाओं के मुख पीत वर्ण के हो रहे  हैं ।“

 

कतिपय पुराणों में भी होली या फाल्गुनोत्सव का वर्णन है । माना जाता है कि पुराणों की रचना पहली से दसवीं शताब्दी तक होती रही है । भविष्य पुराण के फाल्गुनोत्सव नामक अध्याय 132 में होली के संबंध में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का रोचक संवाद देखिए- युधिष्ठिर पूछते हैं- “जनार्दन, फाल्गुन मास के अंत में पूर्णिमा के दिन गाँव-गाँव में प्रत्येक घर में जिस समय उत्सव मनाया जाता है, लड़के लोग क्यों प्रलाप करते हैं, होली क्यों और कैसे जलाई जाती है ? इसके संबंध में विस्तार से बताइए ।" उत्तर में श्रीकृष्ण होली पर्व के प्रारंभ होने की कथा सुनाते हैं । कथा के अंतर्गत शिव जी और वशिष्ठ का संवाद है । अंत में शिव जी  कहते हैं- “आज फाल्गुन मास की पूर्णिमा है, शीतकाल की समाप्ति और ग्रीष्म का आरंभ हो रहा है । अतः आप लोक को अभय प्रदान करें जिससे सशंकित मानव पूर्व की भांति हास्य-विनोद से पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें । बालकवृन्द हाथ में डंडे लिए समर के लिए लालायित योद्धा की भांति हँसी-खेल करते हुए बाहर जाकर सूखे लकड़ियाँ और ऊपले एकत्र करें तथा उसे जलाएँ तत्पश्चात राक्षस नाशक मन्त्रों के साथ सविधान उस में आहुति डाल कर हर्सोल्लास से सिंहनाद करते और मनोहर ताली बजाते हुए उस अग्नि की तीन परिक्रमा करें । सभी लोग वहाँ एकत्रित हों और निःशंक हो कर यथेच्छ गायन, हास्य और मनोनुकूल प्रलाप करें ।‘’

 

बंगाल में होली के अवसर पर दोलोत्सव मनाया जाता है । इस का उल्लेख भी भविष्य पुराण के अध्याय 133 में है । पार्वती शिव जी से कहती है- “प्रभो ! झूला झूलती हुई इन स्त्रियों को देखिए । इन को देख कर मेरे  मन में कौतूहल उत्पन्न हो गया है । अतः मेरे लिए भी एक सुसज्जित हिंडोला बनाने की कृपा करें । त्रिलोचन ! इन स्त्रियों की भाँति मैं भी  आपके साथ हिंडोला झूलना चाहती हूँ ।‘’ तब शिव जी ने देवों को बुला कर हिंडोला बनवाया और पार्वती की मनोकामना पूर्ण हुई । इस के बाद हिंडोला बनाने-सजाने और दोलयात्रा की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन है । भविष्य पुराण में दोलोत्सव की तिथि चैत्र शुक्ल चतुर्दशी दी गई है किन्तु आजकल यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा और चैत्र शुक्ल द्वादशी को मनाया जाता है । इस के अतिरिक्त अध्याय 135 में मदन महोत्सव का भी वर्णन है ।

 

नारद पुराण (1.124) में फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका-पूजन और दहन का उल्लेख है । साथ ही यह भी कहा गया है कि इस पर्व को संवत्सर दहन या मतान्तर से कामदहन के रूप में भी मनाया जाता है- “संवत्सरस्य दाहोsयम, कामदाहो मतान्तरे ।’’ संवत्सर दहन का आशय ‘बीत रहे वर्ष की विदाई और नए वर्ष का स्वागत’ है । नील मुनि द्वारा रचित ‘नीलमत पुराण’ के श्लोक संख्या 647 से 650 में होली मानाने की विधि का वर्णन इस प्रकार है- “फाल्गुन पूर्णिमा को उदय होते पूर्णचंद्र की पूजा करनी चाहिए । रात्रि के समय गायन, वादन, नृत्य और अभिनय का आयोजन किया जाना चाहिए जो चैत्र कृष्ण पंचमी तक निरंतर रहे । पाँच दिनों तक पर्पट नामक औषधीय पौधे के रस का सेवन करना चाहिए ।’’

 

भोजदेव की 11 वीं शताब्दी की रचना ‘सरस्वती कंठाभरणम’ में लिखा है कि सुवसंतक वसंतावतार के दिन को कहते हैं। वसंतावतार अर्थात बसंत का आगमन, यह दिन वसंत पंचमी का ही है। दक्षिण भारत के संस्कृत कवि अहोबल ने 15 वीं शताब्दी में ‘विरूपाक्ष वसंतोत्सव चम्पू’ नामक ग्रन्थ की रचना की । इस में वसंतोत्सव की विस्तार से चर्चा की गई है । इन सब के अतिरिक्त भारवि, राजगुरु मदन, वात्स्यायन, माघ, भवभूति आदि की कृतियों में भी वसंतोत्सव का उल्लेख मिलता है ।

 

उपर्युक्त विवेचन से यह निश्चित होता है कि होली का पर्व प्राचीन काल से ही सम्पूर्ण भारतीय समाज में उल्लास और उमंग का महत्वपूर्ण उत्सव रहा है । परम्पराओं का निर्माण पहले लोक के द्वारा लोक में होता है तत्पश्चात वह शास्त्रों में अंकित हो कर सांस्कृतिक विरासत का रूप ले लेती हैं । आज भी हमारी यह गरिमामयी सांस्कृतिक विरासत भारतीय जन-मानस को सद्भाव, एकता और समानता का सन्देश दे रही है ।

-महेन्द्र वर्मा 

                                                                                                                                                                            
on March 28, 2021 10 comments:
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Labels: परम्परा, संस्कृत साहित्य, संस्कृति, होली

छत्तीसगढ़ी में संस्कृत के शब्द




छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए इस मौसम में ‘ओल’ महत्वपूर्ण हो जाता है । रबी फसल के लिए खेत की जुताई-बुआई के पूर्व किसान यह अवश्य देखता है कि खेत में ओल की स्थिति क्या है । ओल मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है । विशेष बात यह है कि ओल का जो अर्थ संस्कृत में है ठीक वही अर्थ छत्तीसगढ़ी में भी है । दोनों भाषाओं में ओल का अर्थ नमी है ।


शब्द या़त्रा करते हैं, समय और देश, दोनों के सापेक्ष । इस यात्रा के प्रभाव से अनेक शब्द अपना स्वरूप और अर्थ बदल देते हैं । किंतु कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं जो हज़ारों साल बाद भी अपना चोला नहीं बदलते । हिन्दी सहित भारत की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में संस्कृत के बहुत सारे शब्द हैं ।   छत्तीसगढ़ी में भी कुछ ऐसे शब्द हैं जो संस्कृत के हैं और जिनकी वर्तनी और अर्थ दोनों अभी भी संस्कृत के समान हैं । ऐसे ही कुछ शब्दों के उदाहरण देखिए- पर, दूसरे, पर के जिनिस । समेत, सहित, झउहाँ समेत उठा ले । कपाट, किवाड़, कपाट ल ओधा दे । मरीच, काली मिर्च, सरदी हे त घी मरीच पी ले । लसुन, लहसुन, लसुन मिरचा के चटनी, संस्कृत वर्तनी लशुन है । सङ्ग, साथ, ओकर संग ल झन छोड़बे । हन, मारना, ओतके मा नँगत हन दीस । कुकुर, कुत्ता । संस्कृत शब्दकोषों में कुकुर की दो और वर्तनियाँ हैं- कुर्कर और कुक्कुर, संस्कृत पर्याय श्वान भी है। कूची, चाबी, तारा के कूची गँवागे । नाथ, बैल के नाक में डाली गई रस्सी, बइला ल नाथ दे.......इत्यादि ।


अब छत्तीसगढ़ी के कुछ ऐसे शब्द जो संस्कृत के हैं किंतु जिनकी वर्तनी में छत्तीसगढ़ी में उच्चारण लाघव के कारण ज़रा-सा ही परिवर्तन हुआ है । अङ्गार से अँगरा, गुरु से गरू अर्थात भारी, प्रीत से पिरीत, विष से बिख, वृथा से बिरथा, इह से इही यानी यहीं, मरकी ला इही मेर मढ़ा दे । स्वाद से सेवाद, शाक से साग, वत्सर से बच्छर या बछर किंतु वर्ष से बरस, सर्वस्व से सरबस, अपन सरबस ल दान कर दीस । व्यवहार से बेवहार, सूची से सूजी अर्थात सुई, आदित्यवार से अइतवार, लवङ्ग से लवाँग, दोला से डोला यानी पालकी, अञ्जलि से अँजरी, हृदय से हिरदे, विपत्ति से बिपत, चिक्कण से चिक्कन यानी चिकना, मुहूर्त से मुहरुत, मूक से मुक्का यानी गूँगा, चमस से चम्मस यानी चम्मच, वर्जना से बरजना यानी मना करना, चिह्न से चिनहा, पाण्डर से पँड़रा यानी सफेद, छन्द से छाँदना- घोड़वा ला छांद दे, पाषाण से पखना, प्रस्तर से पथरा, तप्त से तात, तात पानी पीबे के जूड़ पानी ।


पीयूष या पेयूष से पेंउस, प्रसूता गाय के दूध से बना व्यंजन, देहली से डेहरी, प्रकट से परगट, दलन से दरन- अरन बरन कोदो दरन, जभे देबे तभे टरन । घर्षण से घँसरना, भित्ति से भितिया यानी दीवार, महिषी से भैंसी- भैंसी हा भितिया मा मूड़ी ला घँसरत हे । मुण्ड से मूड़, मसि से मस यानी स्याही, हमारे समय में स्याही की टिकिया आती थी, हम कहते थे- दवात मा मस घोर डरेंव। बर्बटी से बरबट्टी, भृति से भूती, मजदूरी, बनी-भूती, चित्रित से चितरी- चितरी केरा, संलग्न से सरलग, सूत्र से सूत यानी धागा, हड्ड से हाड़ा, हण्डी से हाँड़ी और हँड़िया, शिला से सिल, चटनी पीसने का.......आदि ।


छत्तीसगढ़ी में बहुत से शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत से आए हैं किंतु उनकी वर्तनी में अधिक अंतर हो गया है जबकि अर्थ वही हैं जो संस्कृत में हैं, उदाहरण देखिए- पोष्य से पोंसवा, जिसका पालन और पोषण किया जाए, पोंसवा कुकुर, आश्चर्यचकित से अचानचकरित, स्कन्ध से खाँध यानी कंधा, विलोडन से बिलोना, दही बिलोना, अम्लिका से अमली यानी इमली, स्फुटन से फूटना यानी फटना, फुग्गा फूटगे, विकार से बिगाड़, मित्र से मितान, योक्त्र से जोंता यानी गाड़ी में बैल को युक्त करने की रस्सी, राक्षस से रक्सा, लङ्घ से लाँघन रहना यानी उपवास रहना, वण्ड से बँड़वा यानी जिसमें नोक न हो या कुछ हिस्सा टूट गया हो, प्रतिवेशी से परोसी यानी पड़ोसी । भृङ्गराज से भेंगरा, एक पौधा, पट्टवायक से पटवा, धागे से अनेक प्रकार की शृंगारिक वस्तुएं बनाने वाला, अक्ष से अस्कुड़ यानी बैलगाड़ी का एक्सेल ।


अञ्जन से आँजना, लइका ला काजर झन आँज, अनम्बर से नँगरा यानी बिना कपड़े का, ईर्ष्या से इरखा, पारावत से परेवा यानी कबूतर, मधुरस से मँदरस, बुस से भूँसा, मन्द्र से माँदर, एक अवनद्ध वाद्ययंत्र, विस्मरण से बिसरना,  लाङ्गल से नाँगर यानी हल, राशि से रास यानी ढेर, धान के रास मा दिया बार दे । कुक्कुट से कुकरा, पिष्टान्न से पिसान, पिष्ट अन्न यानी पिसा हुआ अन्न । अन्य से आन यानी दूसरा और अन्यत्र से अन्ते यानी कोई अन्य स्थान, न्याय से नियाव, अत्याचार से अइताचार, आर्द्रा से अदरा, एक नक्षत्र, मृग से मिरगा, नक्षत्र भी हिरण भी । इतस्ततः से एती-तेती यानी इधर-उधर, उच्चारण से उचार, विवाह में शाखोचार होता है, शाखा यानी वेदमंत्र पाठ की विभिन्न परंपराएं, संस्कृत में शाखोच्चारण । गोस्थान से गौठान, उत्साह से उछाह, कोष्ठागार से कोठार, खर्पर से खपरा, छान्ही के खपरा, तर्षण से तरसाना, धवल से धौंरा, धौंरा बइला, वञ्चक से बंचक यानी धोखेबाज, पीताम्बर से पीतामड़ी ......आदि ।


कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो संस्कृत से छत्तीसगढ़ी में आए हैं किंतु उनका उच्चारण तो परिवर्तित हुआ ही, किंचित अर्थ परिवर्तन भी हुआ है, जैसे- विकट का अर्थ भयानक, विकराल, बड़ा है, इस से बना बिक्कट यानी बहुत । षट्कर्म से खटकरम, षट्कर्म का अर्थ छह क्रियाएं जो शास्त्रों में ब्राह्मणों के लिए निर्धारित हैं किंतु इसी से बना खटकरम का अर्थ झंझट है । शून्य से सुन्न और सुन्ना, सुन्न यानी चेतनाहीन और सुन्ना यानी सुनसान । भाषण से बना भँसेड़ना यानी फटकारना, ओ भासन देवइया ला बने भँसेड़ के आबे । कुभार्या से कुभारज और विधुर से बिदुर, पाञ्चाली से पंचाएल, भाण्ड से भड़वा, गाली के लिए प्रयुक्त होते हैं । स्थिर से थिर यानी विश्राम या आराम, थोकन थिरा ले । पूर्ति से पुरती, तोर पुरती तैं लेग जा ।


अब कुछ ऐसे छत्तीसगढ़ी शब्दों के उदाहरण जो संस्कृत शब्दों में कोई प्रत्यय जोड़ने से बने हैं । संस्कृत में भण्ड का अर्थ है- उपहास करना, इसी से छत्तीसगढ़ी में शब्द बना- भड़ौनी, विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला एक गीत । मुख से मुखारी और दंत से दतवन, दांत साफ करने हेतु नीम, बबूल आदि की पतली टहनी । वामन से बावनबूटा यानी बौने कद का, यह शब्द स्वयं बुटरा हो गया । मंडलेश यानी सूबेदार, अब अच्छी आर्थिक स्थिति वाले किसान को मंडल कहते हैं । पाण्डुर से पिंड़ौरी यानी पीले रंग का, पिंड़ौरी माटी ।


इसी तरह के सैकड़ों शब्द छत्तीसगढ़ी में हैं जो संस्कृत से आए हैं । ऊपर दिए गए उदाहरणों में उन शब्दों को यथासंभव स्थान नहीं दिया गया है जो संस्कृत के हैं किंतु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में एक जैसे या कुछ अंतर के साथ प्रयुक्त होते हैं, जैसे- आश्रय से आसरा, क्षण से छिन, वंश से बाँस, घृणा से घिन, रात्रि से रात, चन्द्र से चंदा, खट्वा से खटिया आदि ।


हमने जाना कि किसी छोटे से क्षेत्र की भाषा के शब्द हज़ारों साल बाद भी जीवित रह सकते हैं। संस्कृति के संरक्षण और विकास से भाषा समृद्ध होती है तथा भाषा संस्कृति को अगली पीढ़ियों तक संचारित करती रहती है । भाषा कमजोर होती है तो संस्कृति का भी क्षरण होता है । इसलिए नई पीढ़ी के लिए यह आवश्यक है कि वे लगभग बिसरा दी गई अपनी समृद्ध भाषायी संस्कृति को जानें और समझें ।


-महेन्द्र वर्मा
on November 18, 2019 7 comments:
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Labels: छत्तीसगढ़ी, भाषा, शब्द, संस्कृत, संस्कृति
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