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सुख-दुख से परे

एकमात्र सत्य हो
तुम ही

तुम्हारे अतिरिक्त
नहीं है अस्तित्व
किसी और का

सृजन और संहार
तुम्ही से है
फिर भी
कोई जानना नहीं चाहता
तुम्हारे बारे में !

कोई तुम्हें
याद नहीं करता    
आराधना नहीं करता
कोई भी तुम्हारी

कितने उपेक्षित-से
हो गए हो तुम
पहले तो
ऐसा नहीं था !!

भले ही तुम
सुख-दुख से परे हो
किंतु,
मैं तुम्हारा दुख
समझ सकता हूं
ऐ ब्रह्म !!!

 

                                                   -महेन्द्र वर्मा


अंजुरी भर सुख



तुम
जब भी आते हो
मुस्कराते हुए आते हो,
कौन जान सका है
इस मुस्कान के पीछे छिपी
कुटिलता को ?
 

हर बार तुम
दे जाते हो
करोड़ों आंखों को
दरिया भर आंसू
करोड़ों हृदय को
सागर भर संत्रास
और कर जाते हो
समय की छाती पर
अनगिनत घाव !
 

क्या इस बार
तुम कुछ बेहतर नहीं कर सकते ?
जिन्हें जरूरत  है उन्हें
क्या तुम
अंजुरी भर सुख नहीं दे सकते ?
बोलो, नववर्ष ......!

                                         -महेन्द्र वर्मा

दो कविताएँ


एक

उस दिन
आईने में मेरा प्रतिबिंब
कुछ ज्यादा ही अपना-सा लगा
मैंने उससे कहा-
तुम ही हो 
मेरे सुख-दुख के साथी
मेरे अंतरंग मित्र !
प्रतिबिंब के उत्तर ने 
मुझे अवाक् कर दिया
उसने कहा-
तुम भ्रम में हो
मैं ही तो हूँ 
तुम्हारा
सबसे बड़ा शत्रु भी !

दो

इंसान को 
इंसान ही रहने दो न
क्यूँ उकसाते हो उसे
बनने के लिए
भगवान या शैतान
अरे, धर्म !
अरी, राजनीति !

                                      -महेन्द्र वर्मा