शाश्वत शिल्प

विज्ञान-कला-साहित्य-संस्कृति

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धर्म से दूर होती नैतिकता


 




अलग-अलग संस्कृति में धर्म का अर्थ अलग-अलग होना  संभव है । इसी प्रकार नैतिकता के अर्थ में भी किंचित भिन्नता हो सकती है । किंतु सभी संस्कृतियों में धर्म का सामान्यीकृत अर्थ 'ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास' है । इसी प्रकर नैतिकता का सर्वस्वीकृत अर्थ ‘मानवीय सद्गुणों पर आधारित व्यवहारों का समूह’ है । दुनिया के लगभग सारे धर्मों ने अपने प्रारंभिक स्वरूप में व्यक्ति के नैतिक गुणों के विकास पर अधिक जोर दिया है । विभिन्न स्मृति ग्रंथों में क्षमा, दया, संयम, धैर्य, सत्य आदि धर्म के जो विभिन्न लक्षण बताए गए हैं वे सभी मानवीय गुण हैं, मनुष्य के नैतिक गुण हैं । तैत्तिरीय उपनिषद की उक्ति ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ में ‘धर्मं चर’ का आशय ‘नैतिक नियमों के अनुसार आचरण’ करना है । तब धर्म और नैतिकता का लगभग समान अर्थ था ।

बाद के काल में एक ही धर्म के अनेक सम्प्रदाय बनते गए । तदनुसार मत और विचारधाराएंँ भी परिवर्तित होने लगीं । विचारों में मतभेद होने लगे, मतभेदों से विवाद और अंततः विवादों से संघर्ष होने लगे । लोग धर्म के नैतिक स्वरूप को भूल कर कृत्रिम धार्मिकता का अनुसरण करने लगे । इस विकार के संदर्भ में अनुमान किया जा सकता है कि धर्म ने जब संगठित रूप लिया होगा तब इसमें ऐसे लोग भी सम्मिलित हुए होंगे जो मन-हृदय से धार्मिक नहीं थे और केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे । इन्हीं परिस्थितियों में धर्म के मूल स्वरूप में विचलन होने लगा । इसमें अब ऐसे कार्यां को भी महत्वपूर्ण और धार्मिक माना जाने लगा जो मानवीय दृष्टिकोण से अनैतिक कहे जाते हैं, जैसे, पशुओं की बलि देना, दूसरे धर्म वालों से युद्ध कर उन्हें मार डालना ।

माण्डूक्य उपनिषद की गौड़पाद कारिका के टीकाग्रंथ में स्वामी विशुद्धानंद परिवा्रजक विभिन्न धर्म-संप्रदायों के संबंध में लिखते हैं- ‘‘सारी पृथ्वी में विरोधी भावनाओं, विरोधी भाषा, विरोधी इतिहास तथा विरोधी धर्मों के परस्पर युद्ध से अनेक बार विनाश हुआ है । अपने-अपने मत, मजहब और विचारों की हठधर्मिता के कारण प्राणी समुदाय को अनेक कष्ट सहना पड़ा है । बड़े-बड़े आत्मज्ञान, एकता और अद्वैत का उपदेश देने वाले अपने अभ्यासित संस्कार द्वारा प्राप्त नियमों के इतने दास होते हैं कि दम निकलने तक उनका परित्याग नहीं करते और व्यवहार के नाम पर मूढ़ता को पालते रहते हैं ।’’

सदियों से हर धार्मिक परंपरा में हिंसा जैसे अनैतिक कार्यों को स्वीकृति दी जाती रही है । विश्व भर की पौराणिक कथा-साहित्य और इतिहास में धर्म से संबद्ध लोगों के द्वारा अनैतिक कार्य किए जाने का उल्लेख मिलता है । यह आश्चर्य की बात है कि जो धर्म शांति, सद्भाव और विश्वबंधुत्व का संदेश देते रहे हैं वे भला असहिष्णुता और हिंसक आक्रामकता जैसे अनैतिक व्यवहारों से कैसे जुड़े रह सकते हैं ! धार्मिक लोग यह मानते हैं कि नैतिकता उनके धर्म के कारण ही आती है । अति धार्मिक लोग आश्चर्य करते हैं कि अनीश्वरवादी लोग नैतिक कैसे हो सकते हैं ! प्यू रिसर्च सेंटर के एक शोध से यह निष्कर्ष प्राप्त प्राप्त हुआ है कि अधिक शिक्षित देशों या क्षेत्रों में यह माना जाता है कि नैतिक होने के लिए आस्तिक होना अनिवार्य नहीं है । यह भी ज्ञात हुआ है कि आर्थिक रूप से कमजोर देशों में नैतिकता के लिए ईश्वर पर विश्वास होना अनिवार्य माना जाता है ।

अमेरिका के कैरोलीना विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक जोशुआ कॉनराड जैक्सन अपने एक शोध-पत्र में लिखते हैं- ‘‘दुनिया भर के अधिकांश लोग एक ओर दावा करते हैं कि नैतिक व्यक्ति होने के लिए ईश्वर में विश्वास आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर, कई विद्वान दावा करते हैं कि धर्म लोगों को क्रूर बनाता है । हमें बताया जाता है कि धर्म नैतिकता को जागृत रखता है लेकिन मामला इसके बिल्कुत विपरीत है । इस बात के पक्के सबूत मिलते हैं कि यह विश्वास लोगों को अधिक मतलबी कट्टर, और स्वार्थी बना देता है। प्यू रिसर्च सेंटर  द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के एक चौथाई देशों ने धार्मिक घृणा और आतंक,  धार्मिक लोगों की भीड़ द्वारा हिंसा, धार्मिक मान्यताओं के उल्लंघन के लिए महिलाओं का उत्पीड़न जैसी घटनाओं का सामना किया है । धार्मिक हिंसा में वृद्धि एक वैश्विक समस्या है और लगभग हर धार्मिक समूह इससे प्रभावित हुआ है । प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक पाल मार्शल के अनुसार धार्मिक उत्पीड़न और अपराध दुनिया भर में पाए जाने लगे हैं । उनका मत है कि धर्म संस्कृति को आकार देता है । अलग-अलग धर्म मानव जीवन के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण रखते है इसलिए वे एक-दूसरे का विरोध करने लगते हैं । दुनिया में बहुत से युद्ध धार्मिक कारणों से हुए हैं और हो रहे हैं ।

कई बार ऐसा देखा गया है कि धार्मिक लोग अक्सर दूसरों से नैतिक सिद्धांतों के पालन की अपेक्षा रखते हैं जिनका वे स्वयं पालन नहीं करते । धार्मिक लोग गैरधार्मिक लोगों की तुलना में अनैतिकता के अपने कृत्यों को न्यायोचित और धर्म आधारित कृत्य मनवाने का प्रयास करते हैं । ऐसा तब होता है जब मनुष्य  चार पुरुषार्थों में से काम और अर्थ को अधिक महत्व देने लगता है । तब वह जानबूझ कर या अनजाने में धर्म से विचलित हो जाता है । यह लालच, ईर्ष्या, और क्रोध के जुनून को जन्म देता है जो अनैतिक आचरण के कारण हैं ।

दुनिया में लगभग 6 अरब लोग स्वयं को धार्मिक कहते हैं । ये सभी मानते हैं कि धर्म और ईश्वर के कारण ही समाज में नैतिकता है । यदि यह सही है तो धार्मिक परिवारों के बच्चे अधिक उदार और दयालु होने चाहिए । लेकिन ‘करेंट बायोलॉजी’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के परिणाम इस का समर्थन नहीं करते । इस शोध का निष्कर्ष है कि धार्मिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चे बेहद अनुदार और गैरधार्मिक परिवार के बच्चे अपेक्षाकृत अधिक उदार होते हैं । कुछ बच्चों में यह प्रभाव जीवन भर बना रह सकता है । बच्चों को धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता सिखाना मानवीय दृष्टिकोण से अनैतिक है । धार्मिक समूह इस अध्ययन के निष्कर्षों से असहमत हो सकते हैं लेकिन दुनिया के उन देशों में जहां धार्मिकता अधिक है वहां असमानता और असहिष्णुता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है ।  लिंगभेद, जातिभेद, नस्लभेद जैसी परंपराएँ धर्म पर ही आधारित है जो कदापि नैतिक नहीं कहे जा सकते । न्यूनाधिक रूप से ऐसे व्यक्ति सभी धर्मों में होते हैं जो धर्म से जुड़े हुए हैं या कहें, जुड़े होने का ढोंग करते हैं । ऐसे लोग धर्म की आड़ लेकर अन्य व्यवसाय भी करते रहते हैं । उनके द्वारा किए जा रहे अनेक तरह के अनैतिक कृत्यों की खबरें समाचारों की सुर्खियाँ बनी रहती हैं । यह चिंता का विषय है कि नैतिकता धर्म से और अधिक दूर होती जा रही है ।

इसका आशय कदापि यह नहीं है कि नास्तिकता नैतिक होने की अनिवार्य शर्त है लेकिन शोध के परिणामों से यह अवश्य कहा जा सकता है कि नैतिक होने के लिए धार्मिक होना अनिवार्य नहीं है । अनेक विचारकों का भी मत है कि सच्ची नैतिकता धर्म से तटस्थ होती है । ऐसे बहुत से महात्मा हुए हैं जो धार्मिक भी थे और नैतिक भी, जैसे, बुद्ध, गुरुनानक, कबीर आदि । कुछ ऐसे भी महान लोग हुए हैं जो धार्मिक नहीं थे किंतु नैतिक थे, जैसे, शहीद भगत सिंह, संत तिरुवल्लुवर, अल्बेयर कामू , फ्रेडरिक नीत्शे आदि ।  इन सब ने विश्व को शांति और परस्पर प्रेम का संदेश दिया । इस विश्व को आज ऐसे ही महात्मा की आवश्यकता है जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के लिए दुनिया भर के लोगों के मन में परस्पर प्रेम और सद्भावना जागृत कर सके । फ्रांसीसी दार्शनिक अल्बेयर कामू से जब नैतिकता के संबंध में प्रश्न पूछा गया तो उनका जवाब था- ‘‘ यदि मुझसे कोई नैतिकता पर किताब लिखने को कहे तो मैं सौ पृष्ठों की किताब लिखूंगा । इसमें निन्यानबे पृष्ठ कोरे होंगे । आखिरी पृष्ठ पर लिखूंगा- मैं इंसानों के लिए सिर्फ एक कर्तव्य समझता हूँ और वो है, प्यार करना । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, उसके लिए मैं न कहता हूँ ।’’

-महेन्द्र वर्मा







 

on June 25, 2021 4 comments:
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Labels: धर्म, नैतिकता, मानवता, संस्कृति

जिज्ञासा और तर्क - मनुष्य के धर्म



 

मनुष्य और अन्य प्राणियों में महत्पूर्ण अंतर यह है कि मनुष्य में सोचने, तर्क करने और विकसित भाषा का प्रयोग करने की क्षमता होती है । शेष कार्य तो सभी प्राणी न्यूनाधिक रूप से करते ही हैं । उक्त विशेष गुणों के कारण ही मनुष्य में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है । 16 वीं शताब्दी के फ्रांसीसी गणितज्ञ-दार्शनिक रेने दकार्त का प्रसिद्ध वाक्य है- ‘‘मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ ।’’ दकार्त को सबसे पहले स्वयं के अस्तित्व के संबंध में ही जिज्ञासा हुई । उसने कहा कि चूँकि में सोच सकता हूँ, तर्क कर सकता हूँ इसलिए बिना संदेह के मेरा अस्तित्व है । इस कथन में यह तात्पर्य भी छिपा हुआ है कि यदि कोई मनुष्य तर्क नहीं करता, जिज्ञासा नहीं करता, सोचता नहीं है तो उसे अपने मनुष्य होने पर संदेह करना चाहिए ।
 

मनुष्य जब अपने विकास की प्रारंभिक अवस्था में था तब उसकी बुद्धि विकसित चौपायों से किंचित ही अधिक थी । समय के साथ-साथ प्रकृति के नियमों के आधार पर मनुष्य के शरीर और बुद्धि में विकास हुआ फलस्वरूप भावनाओं का भी विकास हुआ । अब वह प्राकृतिक  और घटनाओं को देख कर आश्चर्यचकित और भयभीत भी होने लगा । बुद्धि का जब और विकास हुआ तब मनुष्य में  जो एक नई प्रवृत्ति जागृत हुई वह थी जिज्ञासा, प्रकृति में हो रही विभिन्न घटनाओं को और अधिक जानने-समझने की जिज्ञासा, कार्य के पीछे छिपे कारण को जानने की जिज्ञासा । इस जिज्ञासा को प्रेरित किया आश्चर्य और भय ने । यहीं से शुरुआत होती है मनुष्य की चिंतन-प्रक्रिया और उसके द्वारा किए जाने वाले आविष्कारों की । पत्थर का औजार मनुष्य द्वारा आविष्कृत और निर्मित पहला जीवनोपयोगी साधन या ‘यंत्र’ था । इस साधन के निर्माण में केवल जिज्ञासा का योगदान नहीं था बल्कि बुद्धि का एक और गुण ‘तर्क’ का भी योगदान था । फिर तो हज़ारों-लाखो वर्षों की अवधि में मनुष्य ने जिज्ञासा और तर्क के सहारे तीर-कमान, आग, नाव, पहिया, झोपड़ी, वस़्त्र, कृषि, वाद्ययंत्र, भाषा आदि से लेकर कृष्ण विवर, ईश्वरीय कण, तंतु सिद्धांत, जीनोम, कृत्रिम बौद्धिकता आदि तक की खोज कर ली।
 

यह स्वयंसिद्ध है कि सभी मनुष्यों में जिज्ञासा और तर्क की क्षमता एक समान नहीं होती । आदिम मनुष्यों में से कुछ की जिज्ञासा और तार्किक क्षमता ने खोज और आविष्कार की बजाय एक अलग रास्ते का वरण किया । प्राकृतिक घटनाओं से वे भी चकित और भयभीत हुए । उन्होंने भी ‘कार्य और कारण’ के संबंध में ही विचार किया किंतु अधिक तर्क न कर सीधे निष्कर्ष पर पहुँच गए । उन्होंने प्रकृति की शक्तियों पर देवत्व का आरोपण किया । दुनिया के अनेक प्राचीन सभ्यताओं के विविध अवशेषों में इसके साक्ष्य मिलते हैं । प्रारंभ में प्राकृतिक शक्तियों को देवता माना जाना भावनात्मक निष्कर्ष है, तार्किक नहीं । क्योंकि ये सभी शक्तियांँ, जैसे, सूर्य, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वनस्पति आदि सभी प्राणियों के जीवन का पोषण करती हैं इसलिए इन्हें देवतुल्य सम्मान देना तब स्वाभाविक ही था । इस तरह मनुष्य की जिज्ञासा  और तर्क ने दो विचारधाराओं को जन्म दिया जो  मनुष्य की चिंतन-संस्कृति की नींव बनीं । आज ये दोनों विचार धाराएँ विज्ञान और दर्शन के नाम से जानी जाती हैं।
 

दर्शन के विषय-वस्तुओं में जिज्ञासा के बहुत सारे विषय थे । उनमें से जिनका उत्तर प्रत्यक्ष रूप से दिया जा सकता था वे सब विज्ञान के हिस्से में आ गए । जैसे, सृष्टि की रचना कैसे हुई, पदार्थ के मूल तत्व क्या हैं, परम तत्व (उर्जा) क्या है, समय और आकाश क्या है आदि प्रश्नों के उत्तर वैज्ञानिक देने लगे हैं । दर्शन में कुछ प्रश्न ऐसे थे जिनका उत्तर तार्किक रूप से देना संभव ही नहीं है, जैसे, ईश्वर का अस्तित्व, स्वर्ग-नर्क, आत्मा आदि । ऐसे प्रश्नों को आस्था का आधार मिला और इनके तर्क से परे उत्तरों को धर्म की संज्ञा दी गई । इस प्रकार दर्शन का विचार-क्षेत्र धर्म और विज्ञान में विभाजित हो गया । सुकरात और उपनिषदों से प्रारंभ हुई दार्शनिक चिंतन की परंपरा हीगेल और आदि शंकराचार्य तक आकर समाप्त हो जाती है । हीगेल ने तो ‘दर्शन की मृत्यु’ भी घोषित कर दी थी ।

 

भारतीय चिंतन प्रारंभ में प्रत्यक्ष और तर्क पर आधारित था । वैदिक संहिताओं में सर्वत्र पर्यावरणीय घटकों को जीवन का आधार माना गया है । बौधायन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, आर्यभट आदि भारतीय वैज्ञानिकों की जिज्ञासा, उनके प्रयोग और तर्क आधारित विश्वास ने उन्हें गणितज्ञ और वैज्ञानिक बनाया । जिज्ञासा और तर्क की यह परंपरा ऋग्वेद से ही प्रारंभ हो जाती है । दसवें मंडल के नासदीय सूक्त में सूक्त के रचयिता तथ्य और तर्क प्रस्तुत करते हुए विभिन्न प्रश्न करते हैं और अंत में अपना संदेह और  जिज्ञासा भी इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘‘इन विभिन्न सृष्टियों को किसने रचा ? इन  सृष्टियों के जो स्वामी दिव्यधाम में निवास करते हैं, वही इनकी रचना के विषय में जानते हैं । यह भी  संभव है कि उन्हें भी यह सब बातें ज्ञात न हों ।’’  इस सूक्त में आस्था निर्बल है जबकि जिज्ञासा और तर्क प्रबल हैं ।डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसी सूक्त पर टिप्पणी करते हुए 'ए सोर्स बुक इन इंडियन फिलॉसफी' में लिखते हैं - "प्रश्न पूछने की भावना उन में बार-बार बलवती होती थी । चारों ओर संशय का वातावरण था । इस काल का भारतीय अपने देवताओं और समस्त वस्तुओं के अंतिम स्रोत के बारे में जानने की अभिलाषा से ओत-प्रोत था । उसने आस्था तक के लिए प्रार्थना की । और, आस्था के लिए प्रार्थना तब तक संभव नहीं होती जब तक आस्था में ही विश्वास डिग न जाए ।"

 

प्रारंभिक उपनिषदों में भी जिज्ञासा और तर्क की प्रधानता है, आस्था की नहीं । ‘न्याय दर्शन’ के प्रवर्तक महर्षि गौतम ने प्रमाण और तर्क का विस्तृत विवेचन किया है । किंतु इसके बाद के चिंतकों ने जिज्ञसा और तर्क की बजाय आस्था को अधिक महत्व दिया और दर्शन को धार्मिक विचारों में परिवर्तित कर दिया । इन विचारों का प्रभाव इतना अधिक था कि 11वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक  भारत में विज्ञान मृतप्राय  अवस्था में रहा । जिज्ञासा और तर्क ज्ञान-विज्ञान के भूखे होते हैं । एक जिज्ञासु भिन्न-भिन्न तरह से प्रश्न करता है, स्वयं से भी और दूसरों से भी । उसकी जिज्ञासा तभी संतुष्ट होती है जब उसे वांछित ज्ञान-विज्ञान प्राप्त हो जाता है । ‘द जंगल बुक’ के लेखक, नोबल पुरस्कार विजेता साहित्यकार रुडयार्ड किपलिंग ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी है- ‘‘मैं छह ईमानदार सेवक अपने पास रखता हूँ । इन्होंने मुझे हर वह चीज सिखाई है, जो मैं जानता हूँ । इनके नाम हैं- क्या, क्यों, कब, कैसे, कहाँ और कौन ।’’ किपलिंग का जन्म भारत में हुआ था । उन्होंने लिखा है- ‘‘प्रश्न और तर्क करना मैंने भारतीय दर्शन से सीखा है ।’’ आस्था प्रश्न नहीं करती क्योंकि उसे ज्ञान-विज्ञान की आवश्यकता नहीं होती । आज यह स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है कि दुनिया के जिन क्षेत्रों में अतिशय आस्था है वहाँ ज्ञान-विज्ञान की उपेक्षा सप्रयास की जा रही है ।
 

प्रारंभ में धर्म का अर्थ कर्तव्य था । मनीषियों के द्वारा जो धर्मशास्त्र लिखे गए उनमें तत्कालीन समाज व्यवस्था के अनुरूप मनुष्यों के लिये करणीय नैतिक कर्तव्यों का ही विवरण है । इसीलिए उस समय वर्णधर्म, आश्रम धर्म, राजधर्म, गृहस्थधर्म जैसी अवधारणाएँ विकसित हुईं । गौतम धर्मसूत्र में ‘आत्मगुणोः धर्मः’ कहा गया है अर्थात किसी का स्व-गुण ही उसका धर्म कहलाता है । मनुष्य में जिज्ञासा और तर्क का गुण जन्मजात होता है इसलिए प्रकृति प्रदत्त ये दोनों गुण मनुष्य के धर्म हैं ।  यह गुण बचपन में अत्यधिक सक्रिय होता है । बाद में परिवार और समाज द्वारा प्रदत्त रूढ़िजनित संस्कारों के फलस्वरूप उसमें न्यूनता आ जाती है जिससे उसे अपने व्यावहारिक जीवन में अनेक बार असफलताओं का सामना भी करना पड़ता है । जिज्ञासा और तर्क से दूर रहने वालों के लिए अंत में एक बात और- गीता (7.17) में अर्जुन के एक प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘‘मुझे जिज्ञासु और ज्ञानी सबसे अधिक प्रिय हैं ।’’
 

-महेन्द्र वर्मा


on April 29, 2021 1 comment:
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Labels: जिज्ञासा, तर्क, दर्शन, धर्म

शिक्षा, धार्मिकता और मानव-विकास

 

 


मनुष्य ने पिछली कुछ सदियों में ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व विस्तार किया है । ज्ञान के इस विस्तार ने बहुत सी पारंपरिक मान्यताओं को बदला है जिन्हें मनुष्य हजारों वर्षों तक ज्ञान समझता रहा । गैलीलियो से लेकर स्टीफन हॉकिंग्स तक और कणाद से लेकर आर्यभट्ट तक अनेक ज्ञानऋषियों ने अपनी बौद्धिक क्षमता से दुनिया को अनेक भ्रमात्मक ज्ञान से मुक्त किया है। दो हजार साल पहले तक ज्ञान के मूलतः दो ही क्षेत्र थे- धर्म और दर्शन  । लेकिन दर्शन  पर धर्म हावी था । एक धार्मिक नेता जो कुछ कह देता था वही ज्ञान माना जाता था । ज्ञान का विकास एक गतिशील प्रक्रिया है किंतु धार्मिक ज्ञान अपरिवर्तित रहता है । हजारों साल पहले जो धार्मिक ज्ञान बताया गया या लिखा गया वह आज भी उसी रूप में, बल्कि कई संदर्भों में विकृत रूप में, प्रचलित है और उन समूहों द्वारा स्वीकारा जाता है जो धार्मिक हैं । किंतु ज्ञान के उपासकों ने पाया कि धर्म के अतिरिक्त संसार में जानने के लिए और भी बहुत कुछ है बल्कि ज्ञान का क्षेत्र असीम है । उन्होंने ज्ञान के जो सैकड़ों नए सूरज उगाए उन के तीव्र प्रकाश  से धार्मिक ज्ञान की चमक किंचित धुँधली हुई । प्राथमिक विद्यालयों से लेकर विश्ववविद्यालयों तक ज्ञान के इन नए पूजाघरों में विभिन्न विषयों के बारे में दुनिया भर के लोग सीख रहे हैं । इसी संदर्भ में शोधकर्ताओं ने कुछ शोध किए हैं । इन शोधकर्ताओं ने पाया कि दुनिया के जिन क्षेत्रों में धार्मिकता अधिक है वहां नए ज्ञान को भलीभांति सीखने के प्रति रुचि कम होती है । इस लेख में धार्मिकता और आधुनिक शिक्षा के परस्पर प्रभावगत संबंधों की विवेचना की गई है ।

 

यूनेस्को सहित बहुत सी संस्थाएँ मानव विकास से संबंधित विभिन्न घटकों का वैश्विक  सर्वेक्षण करती रहती हैं । यूनेस्को द्वारा जारी किए गए मानव विकास प्रतिवेदन में 188 देशों के शैक्षिक सूचकांकों की सूची दी गई है । इस सूची के अवलोकन से यह निष्कर्ष निकलता है कि दुनिया के जिन देशों  में धार्मिकता अधिक है वहाँ की साक्षरता का दर भी कम है और जिन देशों में धार्मिकता कम है वहाँ की साक्षरता अधिक है । उदाहरण के लिए अधिक धार्मिकता वाले देश , जैसे- ईथियोपिया, नाइजर, यमन, अफगानिस्तान, सोमालिया आदि में 95 प्रतिशत से अधिक लोग धार्मिक हैं और इन्हीं देशों  में साक्षरता का दर 21 से 35 प्रतिशत के बीच है जो विश्व  में सबसे कम है । कम धार्मिकता वाले देशों की सूची में  जापान, स्वीडन, इज़राइल, ग्रेट ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, जर्मनी आदि  शामिल हैं जहां धार्मिक लोगों की संख्या 13 से 35 प्रतिशत के बीच है । इन देशों  की साक्षरता का दर 98 प्रतिशत से अधिक है ।

 

हमारा देश  धार्मिक मान्यताओं वाला देश  है । यहाँ स्वयं को अधार्मिक कहने वालों की संख्या केवल 30 लाख है जो कुल जनसंख्या के 1 प्रतिशत से भी कम है । यहाँ की साक्षरता का दर 75 प्रतिशत है जो विकसित देशों  की तुलना में बहुत कम है । आश्चर्य  की बात तो यह है कि विश्व  शैक्षिक सूचकांक में भारत 112 वें क्रमांक में है जो थाइलैंड, मलेशिया, तुर्की, और ईरान जैसे देशों से भी नीचे है । उच्च शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या भी कम धार्मिकता वाले देशों में अधिक है जबकि अधिक धार्मिकता वाले देशों  में बहुत कम है । कनाडा, जापान, आस्ट्रेलिया, कोरिया,  ब्रिटेन, इज़राइल आदि देशों  में स्नातक या उससे उपर तक शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या 46 से 56 प्रतिशत है जबकि भारत में केवल 9 प्रतिशत है ।

 

वाशिंगटन स्थित प्यू रिसर्च सेंटर ने दुनिया के विभिन्न धर्मों के मानने वाले और उनके शैक्षिक स्तर में संबंध का अध्ययन किया है । इस अध्ययन के अनुसार यहूदी लोग अन्य की तुलना में सबसे अधिक शिक्षित हैं । दूसरे स्थान पर ईसाई समुदाय है जबकि हिन्दू और मुस्लिम समुदाय की शैक्षिक स्थिति सबसे कमजोर  है । आँकड़ों के अनुसार यहूदी समुदाय शिक्षालयों में औसत रूप से 13.4 वर्ष रह कर शिक्षा प्राप्त  करता है जबकि हिंदू औसतन केवल 7.1 वर्ष और मुस्लिम समुदाय 6.7 वर्ष ही व्यतीत करता है । ध्यान रहे कि ये वैश्विक आँकड़े हैं, किसी एक देश  के नहीं । यही आँकड़ा विश्व  भर की जनसंख्या के लिए 7.7 वर्ष है । दुनिया भर के विभिन्न धार्मिक समुदायों के उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों का प्रतिशत इस प्रकार है- यहूदी 61 प्रतिशत, ईसाई 20 प्रतिशत, हिंदू 10 प्रतिशत और मुस्लिम 8 प्रतिशत । धार्मिकता और शिक्षा के संबंध को ये आँकड़े बेहतर रूप से प्रदर्शित  करते हैं । अमेरिका के लीड्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने 82 देशों  में आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों में गणित और विज्ञान में उपलब्धि को जानने के लिए एक अध्ययन किया । इस अध्ययन में भी यही निष्कर्ष निकला कि उच्च धार्मिकता वाले देशों के छात्रों का गणित और विज्ञान में प्रदर्शन  कमजोर है । इसके विपरीत कम धार्मिकता वाले देशों  के छात्रों ने इन विषयों में अच्छे अंक अर्जित किए ।

 

उपरोक्त आँकड़े स्पष्ट रूप से यह दर्शाते हैं कि धार्मिकता शैक्षिक उपलब्धि को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करती है । यूनेस्को द्वारा जारी शैक्षिक सूचकांक की सूची को देखें तो यह ज्ञात होता है कि कम शैक्षिक उपलब्धि वाले देश  मुख्यतः अफ्रीका, दक्षिण एशिया और खाड़ी में स्थित हैं । यही वे देश  हैं जहां धार्मिकता अधिक है । एक बात और ध्यान देने योग्य है, अधिक धार्मिकता वाले देशों  की आर्थिक दशा  भी कमजोर है। गरीब, अविकसित और विकासशील देश  भी वही देश  हैं जहाँ के लोग आधुनिक ज्ञान के बजाय धार्मिक परंपराओं में ज्यादा रुचि लेते है । खाड़ी के कुछ देश  तेल के भंडार के कारण अमीर हैं न कि अपनी ज्ञानात्मक क्षमता के कारण ।

 

किसी देश की शैक्षिक, बौद्धिक और  आर्थिक  स्थिति उस देश के मानव-विकास के प्रतिबिम्बक होते हैं l ज्ञान के इतिहास पर गौर करें तो हम पाते हैं कि जिन देशों  में वैज्ञानिक, गणितीय और दार्शनिक  ज्ञान की परंपरा की शुरूआत हुई उनमें भारत और अरब देशों  के  नाम भी शामिल है लेकिन  विडंबना ही है कि आज यही देश  वास्तविक ज्ञान की खोज के संदर्भ में हाशिए पर चले गए हैं । पिछले दो हजार साल के धार्मिक हलचलों ने इन देशों को प्राकृतिक और वास्तविक ज्ञान से विमुख कर दिया है । यद्यपि अफ्रीका, मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया के देशों  की शैक्षिक उपलब्धि में  सुधार हो रहा है किंतु यह शेष विश्व  की शैक्षिक उपलब्धि की तुलना में बहुत ही कम है । इनकी वर्त्तमान स्थिति के आधार पर कहा जा सकता है कि ये देश समृद्ध और विकसित देशों से एक सदी पीछे हैं l इन देशों और इनमें रहने वाले समुदायों को अपने पिछड़ेपन के कारणों पर  गंभीरता  से विचार  करने की आवश्यकता है ।

- महेन्द्र वर्मा


on February 01, 2021 7 comments:
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Labels: ज्ञान, धर्म, मानव-विकास, शिक्षा

हम भारत के लोग

आज से पचास  हज़ार वर्ष पूर्व जब  न तो आज के समान जातियाँ थीं, न संगठित धर्मों का अस्तित्व था, न कोई देश था न कोई राज्य, तब कबीलाई समाज का अस्तित्व था और उनमें आदिकालीन लोकधर्मों की विविध परंपराओं का प्रचलन था । तब ये कबीले भोजन और पानी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास करते रहते थे। इस प्रवास के दौरान एक मानव समुदाय दूसरे मानव समुदाय से मिलता रहा, उनमें सामाजिक संबंध होते रहे, फलस्वरूप नए-नए मानव वंशों या नस्लों का जन्म होता रहा । यह प्रक्रिया पिछले 50-60 हज़ार वर्षों से आज तक जारी है । यही कारण है कि आज दुनिया भर में सैकड़ों प्रकार के मानव वंश हैं, हज़ारों प्रकार की जातियाँ हैं । समाज में जाति और धर्म के आधार पर मनुष्यों के विभाजन की परंपरा पिछले 4-5 हज़ार वर्षों में ही निर्मित और प्रचलित हुई है। हम में से किसी के लिए भी निश्चयपूर्वक और प्रमाण सहित यह बता पाना मुश्किल है कि आज से 5 हज़ार वर्ष पूर्व के हमारे हमारे पूर्वज किस जाति या धर्म के थे, किस मानव-समूह या नस्ल के थे और पृथ्वी के किस भाग के निवासी थे ।

मानव के विकास और उसके प्रवास संबंधी तथ्यों का अध्ययन भूगर्भशास्त्र, पुरातत्व और भाषाशास्त्र के अलावा अब विज्ञान या अनुवांशिकी की सहायता से भी किया जाता है । यह अध्ययन पुरातात्विक खुदाई से प्राप्त हजारों वर्ष पुराने मानव कंकालों और आज के मनुष्यों के डी.एन.ए.के विश्लेषण से किया जाता है । इससे प्राप्त परिणाम विश्वसनीय होते हैं । इसके अतिरिक्त मानव-समूहों के प्रवासन और उनमें अंतर्संबंधन के स्पष्ट प्रमाण तो ऐतिहासिक दस्तावेजों में उपलब्ध हैं । इस लेख में प्रारंभ से लेकर आज तक की इसी अध्ययन-प्रक्रिया का, विशेष तौर पर भारत के संदर्भ में, संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है । 

लगभग 30 लाख वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी भाग में मनुष्य नामक प्राणी का विकास हो चुका था । यहीं से पूरी दुनिया में मानव जाति प्रवासित हुई । करीब 17 लाख वर्ष पहले अफ्रीका से इन आदि मानवों का पहला समूह मध्य एशिया पहुंचा । 2 लाख वर्ष पहले अफ्रीका से मानव समूह का दूसरा प्रवासन एशिया और आस्ट्रेलिया तक हुआ । अंडमान-निकोबार के आदिवासी इसी समूह के लोग हैं जिनका जीवन आज भी उसी रूप में हैं । दोनों समूहों के प्रवासन में 15 लाख वर्षों का लंबा अंतराल है । तब तक अफ्रीका से मध्य एशिया गए समूह के लोगों के रंग-रूप में भौगोलिक परिस्थितियों के कारण काफी परिवर्तन आ चुका था । इन दोनों समूहों में अंतर्संबंध के फलस्वरूप रक्त सम्मिश्रण हुआं । 70 हज़ार साल पहले मिश्रित समूह वाले ये लोग दक्षिण एशिया, यूरोप और आस्ट्रेलिया पहुँचे । अमेरिका महाद्वीप में मनुष्यों की आबादी लगभग 20 हज़ार साल पहले पहुँची । 

भारतीय उपमहाद्वीप में अब तक 4 बड़े मानव समूहों का आगमन हुआ है । पहला समूह 65 हज़ार साल पहले मध्य एशिया से आया जो अफ्रीका के दो प्रवासीं समूहों का मिश्रण था । इन्हें ‘प्रथम भारतीय’ कहा गया । भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों की जीन संरचना में इस समूह का लगभग 60 प्रतिशत अवदान है । ये कौन सी भाषा बोलते थे, यह अज्ञात है । एक दूसरा समूह 10 हज़ार साल पहले ईरान के जग्रोस क्षेत्र से भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में आया । इस क्षेत्र में कृषिकार्य पहले से प्रचलित था । प्रवासी ईरानी लोग अपने साथ गेहूँ और बाजरे के बीज लाए थे फलस्वरूप इस क्षेत्र में गेहूँ और बाजरे की खेती भी की जाने लगी । इन दोनों समूहों ने सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की नींव रखी । इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा के संबंध में अभी तक कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है, संभवतः द्रविड़ भाषाओं का प्रारंभिक रूप प्रचलित हो । राखीगढ़ी से प्राप्त कंकाल के जीनोम विश्लेषण से यह अनुमान लगाया जा सकता है । 

2 वर्ष पूर्व  हरियाणा के राखीगढ़ी में उत्खनन से प्राप्त हड़प्पा कालीन मानव कंकाल के डी.एन.ए. परीक्षण की रिपोर्ट विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई । इस रिपोर्ट के अनुसार प्राप्त कंकाल के जीन्स दक्षिण भारतीय लोगों के जीन्स से मेल खाते हैं, उत्तर भारतीय लोगों से नहीं । निष्कर्ष यह निकला कि दक्षिण भारतीय लोग ही हड़प्पा सभ्यता के वासी थे । द्रविड़ भाषाओं का विकास इन्हीं लोगों ने किया था । इस रिपोर्ट से दो और निष्कर्ष निकलते हैं, या तो उस समय दक्षिण भारतीय लोग उत्तर भारत सहित संपूर्ण भारत में निवास करते थे या केवल उत्तर भारत में निवास करते थे और हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद किसी कारण से दक्षिण भारत की ओर प्रवास कर गए । यद्यपि इस संबंध में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं ।

भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र में तीसरा प्रवास 5-6 हज़ार साल पहले दक्षिण-पूर्व एशिया से हुआ था । यह समूह भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के निवासी बने । यही लोग बर्मा, थाईलैंड, वियतनाम आदि दक्षिण एशियाई देशों में भी गए । पुरातात्विक विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत सहित इन क्षेत्रों में धान की खेती इन्हीं प्रवासियों ने प्रारंभ की । इन्होंने ही दक्षिण-पूर्व एशिया में एस्ट्रोएशियाटिक भाषाओं को प्रचलित किया । चौथा प्रवासन 4 हज़ार वर्ष पहले मध्य एशिया के स्टेपी क्षेत्र के पशुपालकों का हुआ । ये भारोपीय भाषा बोलते थे । इनका एक दूसरा समूह यूरोप की ओर गया और भारोपीय भाषाओं के क्षेत्र का विस्तार किया । विशेषज्ञों के अनुसार वैदिक सभ्यता की नींव इसी समूह ने रखी । इन्हीं लोगों ने प्रकृति की विभिन्न शक्तियों और साधनों की पूजा करने की प्रथा प्रारंभ की जिसका उल्लेख वैदिक ऋचाओं में है । इन चारों प्रवासन से जो लोग भारतीय उपमहाद्वीप में आए उनमें सामाजिक अंतर्संबंध हुआ जिसके फलस्वरूप इस क्षेत्र में विविध भाषाएँ और संस्कृतियाँ विकसित हुईं लेकिन इस समय तक भी भारत में जाति प्रथा का आरंभ नहीं हुआ था । 

अन्य स्थानों से भारतीय भूमि पर बाद में कोई बड़ा प्रवासन नहीं हुआ किंतु पिछले 2 हज़ार सालों में समय-समय पर अन्य क्षेत्र के लोगों के समूह यहां आते रहे हैं जिनमें से कुछ लौट गए जबकि कुछ यहीं के निवासी बन गए । ये समूह आक्रमणकारी के रूप में आए और वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन भी करते रहे। ऐसे आक्रमणकारियों में मुख्य ये हैं- हूण, यवन, शक, कुषाण, पठान, सैयद, लोदी, मुगल, अंग्रेज। पिछले दो हज़ार सालों तक इन विदेशियों ने भारत की संस्कृति को कुछ सीमा तक प्रभावित किया । यवन, शक, कुषाण और मुस्लिम लोग तो भारत में ही रह गए । उस समय बहुत से भारतीय मुस्लिम हो गए थे । इन से जो पीढ़ियाँ आगे बढ़ीं वे मिश्रित जीन्स के कहे जाएंगे । यवन, शक और कुषाणों ने भारतीय संस्कृति को अपना लिया था और यहीं के वासी हो गए थे, उनकी पीढ़ियों का भी विस्तार हुआ है किंतु आज उनके वंशज कौन हैं, यह जानना असंभव है । इन के अतिरिक्त पिछले 200 सालों में पारसी और यहूदी लोग भी यहाँ आए और यहीं के हो कर रह गए । प्रसिद्द इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार मानते हैं- ''ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि आज जो लोग आर्य भाषाएँ बोलते हैं वे सब आर्यों की संतान हैं और जो द्रविड़ भाषाएँ बोलते हैं वे द्रविड़ों की ही संतति हैं,  नहीं, दोनों नृवंशों में परस्पर सम्मिश्रण खूब हुआ है ।''

 जातियों का सम्मिश्रण या संकरण के संबंध में पुराणों और स्मृति ग्रंथों में अनेक विवरण हैं । मनुस्मृति के अध्याय 10 में अम्बष्ठ, वैदेह, मागध, उग्र, पारसव आदि 50 और महाभारत में 150 से अधिक संकर जातियों का उल्लेख है । महाभारत , वनपर्व, अध्याय 180 श्लोक 31 में नहुष के द्वारा जाति के संबंध में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर कहते हैं- ''हे महासर्प ! हे महा बुद्धिमान ! मेरी मति के अनुसार जगत के जितने मनुष्य हैं, सब ही में वर्णसंकर हैं । इस से उनकी जाति की परीक्षा करना कठिन है ।''

 प्रसिद्ध विद्वान डॉ. संपूर्णानंद ने अपनी पुस्तक  'हिन्दू देव परिवार का विकास' की भूमिका में लिखा है- "आज से कई हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्यों के पाँव में जैसे शनि ने अड्डा जमा लिया था, एक देश छोड़ कर दूसरे देश में जाना साधारण सी बात हो गई थी। आज तो देशांतर यात्रा पर कई प्रतिबन्ध होते हैं ।प्राचीनकाल में कोई रोक-टोक नहीं थी ।दृढ़ संकल्प और बाहु  में बल होना चाहिए था । जो जहाँ चाहे जा कर बस जाए ।इस प्रकार निरंतर चलते रहने का परिणाम यह हुआ कि यदि कभी उपजातियां थीं भी तो वे सब मिलजुल गईं । आज मनुष्य मात्र संकर है, कोई शुद्ध उपजाति नहीं है ।" महाकवि रामधारीसिंह दिनकर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखते हैं - "भारतीय संस्कृति भी इस देश में आकर बसने वाली अनेक जातियों- नीग्रो, औष्ट्रिक, आर्य, द्रविड़, मंगोल, यूनानी, यूची, शक, आभीर, हुण, तुर्क आदि- की संस्कृतियों के मेल से तैयार हुई है और अब यह पता लगाना बहुत मुश्किल है उनके भीतर किस जाति की संस्कृति का कितना अंश है ।"

इस विवेचना से निष्कर्ष यह निकलता है कि 30 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका से बाहर निकल कर पूरी दुनिया को आबाद करने वाले आदिमानवों के वंशजों के बीच ही हज़ारों सालों के अंतरालों में अनेक बार रक्तसंबंध हुआ है । यह प्रकृति के अस्तित्व और विकास का स्वाभाविक सिद्धांत है । जाति और धर्म का लबादा ओढ़ लेने से किसी के जीनोम की संरचना नहीं बदलती । वास्तव में पूरी मानव जाति अफ्रीकी आदिमानव का ही परिवार है इसलिए पूरी दुनिया के मनुष्य एक ही परिवार के हैं । हमारे किसी पूर्वज ने यही सच लिखा भी है-‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ (महोपनिषद 6.71) । 

-महेन्द्र वर्मा

on October 06, 2020 3 comments:
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Labels: जाति, धर्म, समाज

तीन सौ धर्मों के तीन सौ ईश्वर




प्रकृति और उसकी शक्तियाँ शाश्वत हैं । मनुष्य ने सर्वप्रथम प्राकृतिक शक्तियों को ही विभिन्न देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित किया । मनुष्य के अस्तित्व के लिए जो शक्तियाँ सहायक हैं, उन को देवता माना गया । भारत सहित विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं- सुमेर, माया, इंका, हित्ती, आजतेक, ग्रीक, मिस्री आदि में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती थी । चीन और ग्रीस के प्राचीन धर्मग्रंथों में भी आकाश को पिता और पृथ्वी को माता माना गया है । हवा, जल, बादल, वर्षा, नदी, पर्वत के अतिरिक्त दैनिक जीवन में व्यवहार में आने वाली वस्तुओं, विशेषतया अन्न उपजाने और भोजन से संबंधित वस्तुओं को भी पवित्र समझने का मानव स्वभाव रहा है ।

लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व कबीलाई समाज में धर्म की अवधारणा का बीजारोपण इसी तरह हुआ । आज भी गाँवों में अन्न, जल, पेड़-पौधे, चूल्हा, चक्की, सूप, बर्तन, मिट्टी, आग, दीपक आदि को पवित्र माना जाता है । लोकधर्म की यही सहज परंपराएँ अनेक सदियों तक बार-बार परिवर्तित होती हुई हज़ारों वर्षों पश्चात संगठित धर्म का रूप ग्रहण कर लेती हैं और  फिर लिपिबद्ध हो कर शास्त्र बन जाती हैं ।

प्राचीन युग के मनुष्यों के द्वारा प्रकृति के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना सहज और स्वाभाविक था । पाँच हज़ार वर्ष पूर्व लिखे गए प्रारंभिक धार्मिक शास्त्रों में यह भाव यथावत् है । समय के साथ-साथ प्रकृति पूजा की अवधारणा में बदलाव होता गया । तदनुसार नए-नए शास्त्र लिखे जाते रहे । मूल अवधारणा को लोग भूलते गए । अब तक इतने परिवर्तन हो चुके हैं कि यह अवधारणा  अब प्रकृति की सहज विशिष्टताओं के विरुद्ध हो चुकी है ।

पहले संपूर्ण विश्व में धर्म संबंधी अवधारणा एक समान थी । अब लगभग 300 संगठित धर्मों के 300 प्रकार के विचार हैं । प्रत्येक धर्म अपने ईश्वर को ही वास्तविक ईश्वर मानता है । इस प्रकार अब ईश्वर एक नहीं बल्कि 300  हैं । आज के लोकधर्मों को भी सम्मिलित कर लें तो ईश्वरों की संख्या लगभग आठ हज़ार हो जाती है ।

दुनिया का सबसे प्राचीन माना जाने वाला धार्मिक शास्त्र आज भी उपलब्ध है । इसमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर उन के प्रति प्रार्थनाएँ की गई हैं । इसे ईश्वरकृत भी कहा जाता है । किंतु इसके बाद के ग्रंथों में प्रकृति के वे देवता कहीं भी नज़र नहीं आते । कुछ के स्वरूप और स्वभाव बदले हुए है और कुछ नए देवताओं के वर्णन हैं ।

यदि पहले के शास्त्र ईश्वरकृत हैं तो उसमें वर्णित विचारों को बदल कर मनुष्यों द्वारा नए शास्त्र क्यों रचे गए, इसका उत्तर किसी के पास नहीं है । उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचार एक उत्कृष्ट विचार था क्योंकि यह प्रकृति की समस्त शक्तियों का एकीकृत रूप अर्थात ऊर्जा का ही दूसरा नाम था ।  यह विडंबना ही है कि ब्रह्म की यह अवधारणा  आज  विलुप्त हो चुकी है ।

सभी धर्मां के बाद में रचे गए शास्त्रों की विचारभिन्नता ने लोगों के बीच द्वेष की भावना में वृद्धि ही की फलस्वरूप धर्म के नाम पर अनेक युद्ध हुए । लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा गया । आज भी यह युद्ध अघोषित रूप से जारी है । धर्म के इस परिवर्तित होते स्वरूप में एक विशेष क्रम दिखाई देता है- पहले इसमें केवल कृतज्ञता और सम्मान का भाव था, फिर आस्था और श्रद्धा का भाव प्रबल हुआ और अब केवल मन-हृदयविहीन प्रदर्शन की भावना है ।

आजकल एक शब्दयुग्म बहुत प्रचलन में है- धार्मिक कट्टरता । धर्म जैसी अवधारणा के साथ कट्टर शब्द का कोई मेल नहीं है । आपने ‘कट्टर दुश्मन’ सुना होगा, क्या कभी ‘कट्टर मित्र’ सुना है ! कट्टर नकारात्मक अर्थ वाला शब्द है, मित्र के साथ उसका प्रयोग नहीं किया जा सकता । जो धर्म में भी नकारात्मकता खोज लेते हैं वे ही कट्टर धार्मिक कहे जा सकते हैं । मनुष्य के स्वभाव की यह विशेषता है कि वह नकारात्मक बातों को आसानी से समझ जाता है और उस पर अमल भी करने लगता है। अपवादस्वरूप कुछ ही लोग अच्छी बातों को समझ पाते हैं ।

एक धार्मिक ग्रंथ में इसमें ‘ईश्वर’ का कथन है- ‘‘ चार प्रकार के लोग मुझे प्रिय हैं, आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी । इनमें भी जिज्ञासु और ज्ञानी मुझे विशेष प्रिय हैं ।’’ जिज्ञासु अर्थात जानने की इच्छा रखने वाला । जिज्ञासु वही होते है जो तार्किक होते हैं, इसीलिए वे प्रकृति के गुणों के कारणों को खोजते रहते हैं और कभी-न-कभी पा भी लेते हैं अर्थात वे जान भी जाते हैं और जो जान लेता है वही ज्ञानी है ।

ऋग्वैदिककालीन देवताओं- द्युः, आपः, मरुत्, इन्द्र, अग्नि, पर्जन्य, ऊषा, सविता, पृथ्वी आदि की विशेषताओं को उन लोगों ने जाना जिन्हें आज हम वैज्ञानिक कहते हैं । ऐसे महान वैज्ञानिक ही सच्चे अर्थों में धार्मिक और आस्तिक हैं क्योंकि वे सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता ऊर्जा की निरंतर ‘उपासना’ करते हैं । इनमें केवल आधुनिक युग के वैज्ञानिक ही नहीं है बल्कि वे अनाम-अज्ञात वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं जिन्होंने लाखों-हज़ारों वर्ष पूर्व आग, पहिया, नाव, वस्त्र, रोटी, भाषा, कृषि आदि की खोज और आविष्कार किया । शेष लोग तो जानने का प्रयास ही नहीं करते, जानने का प्रयास किए बिना ही कुव्याख्यायित कथ्यों को मान लेते हैं ।

-महेन्द्र वर्मा
on February 25, 2020 4 comments:
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Labels: ईश्वर, ऊर्जा, धर्म, धार्मिक कट्टरता, विज्ञान, वैज्ञानिक

परंपरागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान




आज से हज़ारों वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने प्राकृतिक घटनाओं को समझना प्रारंभ किया तब उसके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं था । इसलिए उसने अनुमान के आधार पर व्याख्या करने का प्रयास किया । जैसे, सूर्य और चंद्रग्रहण की घटना का कारण यह समझा गया कि इन्हें कोई राक्षस निगल लेता है । यह व्याख्या उनके लिए ‘ज्ञान’ बन गई । प्राचीन धर्म और दर्शन की शुरुआत इसी तरह से हुई और आज भी इन दोनों क्षेत्रों में अनुमान के आधार पर ज्ञान रचने की यही परंपरा जारी है ।


यदि धर्म और दर्शन द्वारा इस तरह संकलित ज्ञान सत्य और शाश्वत होता तो इनकी अनेक शाखाएं-उपशाखाएं नहीं होतीं । ये शाखाएं एक-दूसरे के द्वारा स्थापित ज्ञान को ग़लत सिद्ध करती रहती हैं ।


धर्म और दर्शन की एक और परंपरा है, ये अपनी बातों को स्पष्ट रूप से सरल भाषा में व्यक्त न कर काव्यात्मक भाषा में व्यक्त करते रहे हैं । जब भाषा और तर्क भी हार मानने लगे तब धर्म आस्था का विषय बन गया और उसे ‘अकथ’ कह कर तर्क से दूर रखा जाने लगा । लेकिन परंपरागत दर्शन में कविता की भाषा के समान अस्पष्ट और भावनात्मक तर्क सदैव दिए जाते रहे ।


बीसवीं सदी के जर्मन विचारक हैन्स राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत धर्म और दर्शन की इस अस्पष्ट और काव्यात्मक भाषा की आलोचना की और कहा कि दर्शन के प्रश्नों का उत्तर विज्ञान की भाषा में ही दिए जाने चाहिए । 1930 ई. में उन्होंने ‘वैज्ञानिक दर्शन का उदय’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने परंपरागत दर्शन की समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उनका आधुनिक विज्ञान की भाषा में तर्कसंगत उत्तर प्रस्तुत किया है ।

हैन्स राइख़ेन बाख़ (1891-1953)



हैन्स राइख़ेन बाख़ के उक्त पुस्तक से उद्धरित निम्नांकित विचार मनन करने योग्य हैं -
‘‘सृष्टि की कहानी एक मिथ्या व्याख्या है.....मनोवैज्ञानिक इच्छाओं की पूर्ति को व्याख्या नहीं कहा जा सकता.....परंपरागत  दार्शनिक अवैज्ञानिक भाषा इसलिए बोलता है क्योंकि वह उन प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करता है जिनसे संबंधित ज्ञान उसके पास उपलब्ध ही नहीं होते....।’’


‘‘...विज्ञान के जिम्मे ऐसा सामाजिक कार्य आ गया है जिसकी पूर्ति पहले धर्म के द्वारा होती थी, वह काम था- अंतिम सुरक्षा प्रदान करने का । विज्ञान में विश्वास ने बड़े पैमाने पर ईश्वर में विश्वास का स्थान ले लिया है......विज्ञान नई संभावनाओं के द्वार खोलता है । संभव है, किसी दिन हमारा परिचय उन भावनाओं से करा दे जिनका हमने पहले कभी अनुभव ही नहीं किया....।’’

‘‘तर्क से संबंधित समस्याएं चित्रमय भाषा से हल नहीं होतीं बल्कि उनके लिए गणितीय व्याख्या जैसी शुद्धता की आवश्यकता होती है.....नया तर्क परंपरागत दर्शन से नहीं बल्कि गणित की धरती से उत्पन्न हुआ है ।’’

‘‘.....उस व्यक्ति को जो सत्य को चाहता है, जब निषेधात्मक रूप में सत्य उपस्थित हो तो निराश नहीं होना चाहिए ।..अप्राप्य की मांग करने की अपेक्षा निषेधात्मक सत्य को जानना श्रेयस्कर है ।’’


अपनी पुस्तक में राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत दर्शन की भले ही आलोचना की हो लेकिन इसमें जहां भी वैज्ञानिक और गणितीय दृष्टिकोण लक्षित हुआ है उसकी प्रशंसा भी की है ।


विज्ञान प्रकृति के जितना निकट है, धर्म और दर्शन उससे उतनी ही दूर हैं । परंपरागत दर्शन और धर्म की मान्यताएं मनुष्य को कट्टरतावादी सोच की ओर उन्मुख करती हैं जबकि वैज्ञानिक दर्शन किसी मान्यता को अंतिम सत्य होने का दावा नहीं करता बल्कि उसका एक सत्य किसी और नए सत्य की शोध के लिए संभावनाओं का द्वार खोलता है ।

 
-महेन्द्र वर्मा
on June 23, 2019 2 comments:
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Labels: दर्शन, धर्म, विज्ञान

आइन्स्टीन ने धर्म और ईश्वर के संबंध में क्या कहा था


14 जुलाई, 1930 को, अल्बर्ट आइंस्टीन ने भारतीय दार्शनिक, संगीतकार और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर का बर्लिन के अपने घर में स्वागत किया। दोनों की बातचीत इतिहास में सबसे उत्तेजक, बौद्धिक और दिलचस्प विषय पर हुई, और वह विषय है - विज्ञान और धर्म के बीच पुराना संघर्ष -



आइन्स्टीनः  यदि इंसान नहीं होते, तो क्या बेल्वेडियर का अपोलो सुंदर नहीं होता ?
टैगोरः  नहीं !
आइन्स्टीन :  मैं सौंदर्य की इस अवधारणा से सहमत हूं, लेकिन सच के संबंध में नहीं।
टैगोरः  क्यों नहीं ? मनुष्यों के माध्यम से सत्य महसूस किया जाता है।
आइन्स्टीन :  मैं साबित नहीं कर सकता कि मेरी धारणा सही है, लेकिन यह मेरा धर्म है। ...... मैं साबित नहीं कर सकता, लेकिन मैं पाइथागोरियन तर्क में विश्वास करता हूं कि सत्य मनुष्यों से स्वतंत्र है।
टैगोरः   किसी भी मामले में, अगर कोई सत्य मानवता से बिल्कुल असंबंधित है, तो हमारे लिए यह बिल्कुल अस्तित्वहीन है।
आइन्स्टीन :   तब तो मैं आप से अधिक धार्मिक हूँ !
                                  ⧭                                                                        ⧭
       
विज्ञान और धर्म के विषय में जब भी बात होती है तो आइन्स्टीन के एक कथन को प्रायः उद्धरित किया जाता है-  “ धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अंधा है। “
इस कथन से यह प्रतीत होता है कि आइन्स्टीन धर्म और विज्ञान को परस्पर पूरक मानते हैं । इस कथन के पूर्व के वाक्य इस प्रकार हैं-
“दूसरी तरफ, धर्म केवल मानव विचारों और कार्यों के मूल्यांकन के साथ ही व्यवहार करता है, यह तथ्यों के बीच तथ्यों और उनके संबंधों की उचित व्याख्या नहीं कर सकता है। ... विज्ञान केवल उन लोगों द्वारा समझा जा सकता है जो सच्चाई और समझ की आकांक्षा के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं। हालांकि, भावना का यह स्रोत धर्म के क्षेत्र से उगता है। इसके लिए इस संभावना में भी विश्वास है कि अस्तित्व की दुनिया के लिए मान्य नियम तर्कसंगत हैं, यानी, कारणों से समझने योग्य हैं। मैं उस गहन विश्वास के बिना एक वास्तविक वैज्ञानिक की कल्पना नहीं कर सकता। यह स्थिति एक रूपक द्वारा इस तरह व्यक्त की जा सकती हैः धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अंधा है।     
 “( Ideas and Opinions] , क्राउन पब्लिशर्स, 1 9 54, यहां पुनः उत्पन्न)
आइंस्टीन की मृत्यु से एक साल पहले, 1954 की बात। एक संवाददाता ने आइंस्टीन के धार्मिक विचारों के बारे में एक लेख पढ़ा था । उसने आइंस्टीन से पूछा कि लेख सही था या नहीं। आइंस्टीन ने उत्तर दिया-
“यह निश्चित रूप से एक झूठ था जो आपने मेरे धार्मिक दृढ़ विश्वासों के बारे में पढ़ा था, एक झूठ जिसे व्यवस्थित रूप से दोहराया जा रहा है। मैं एक निजी ईश्वर में विश्वास नहीं करता हूं और मैंने कभी इनकार नहीं किया है लेकिन इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। अगर मेरे अंदर कुछ है जिसे धार्मिक कहा जा सकता है तो यह दुनिया की संरचना के लिए असहज प्रशंसा है, जहां तक हमारा विज्ञान इसे प्रकट कर सकता है।
 “ (Albert Einstein: The Human Side” से 24 मार्च 1954 का पत्र, हेलेन डुकास और बनेश हॉफमैन, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी द्वारा संपादित)


                                        ⧭                                                                        ⧭

धर्म और ईश्वर के संबंध में आइन्स्टीन के कुछ और विचार -




“ईश्वर के विषय में मेरी स्थिति एक अज्ञेयवादी है। मैं आश्वस्त हूं कि जीवन के सुधार और संवर्धन के लिए नैतिक सिद्धांतों की चेतना को किसी कानून नियंता के विचार की आवश्यकता नहीं है, विशेष रूप से एक ऐसा कानून नियंता जो पुरस्कार और दंड के आधार पर काम करता है। “ (एम.बर्कोवित्ज़ को पत्र, 25 अक्टूबर, 1950;
Einstein  Archive    51-215)

“मानव जाति के आध्यात्मिक विकास की अवधि के दौरान मानव फंतासी ने मनुष्य की अपनी छवि में देवताओं को बनाया, जिन्होंने अपनी इच्छा के संचालन के द्वारा दुनिया को प्रभावित किया था। मनुष्य ने जादू और प्रार्थना के माध्यम से इन देवताओं के स्वभाव को अपने पक्ष में बदलने की कोशिश की। वर्तमान में प्रचलित धर्मों में भगवान का विचार देवताओं की पुरानी अवधारणा का एक उत्थान है। उदाहरण के लिए, उसके मानववंशीय चरित्र को दिखाया गया है कि पुरुष प्रार्थनाओं में दिव्य होने के लिए अपील करते हैं और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अनुरोध करते हैं। “ ...

    “मुझे यह पसंद नहीं है कि मेरे बच्चों को ऐसा कुछ सिखाया जाना चाहिए जो सभी वैज्ञानिक सोचों के विपरीत है।
“(Einstein, his life and times पी. फ्रैंक, पृष्ठ 280)

अपने जीवन के आखिरी साल आइंस्टीन ने दार्शनिक एरिक गुटकिंड को लिखा-
“ईश्वर शब्द मेरे लिए मानव कमजोरियों की अभिव्यक्ति और उत्पाद से अधिक कुछ नहीं है । मेरे लिए धर्म बचकाने अंधविश्वासों की पुनर्रचना है। “
“मैं ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो अपने प्राणियों को पुरस्कृत करता है और दंडित करता है। न तो मैं कल्पना करता हूं और न करूंगा कि कोई है जो मनंष्य को उसकी शारीरिक मृत्यु से बचाती है । डर या बेतुका अहंकार से कमजोर आत्माओं को इस तरह के विचारों की सराहना करने दें।
“(The World as I See It, 1949, फिलॉसॉफिकल लाइब्रेरी, न्यूयॉर्क)

“नैतिकता के बारे में दिव्य कुछ भी नहीं है, यह एक पूरी तरह से मानवीय क्रियाकलाप है।
“( The World as I See It, 1949, फिलॉसॉफिकल लाइब्रेरी, न्यूयॉर्क)

“मैं एक ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो सीधे व्यक्तियों के कार्यों को प्रभावित करेगा, या सीधे अपने द्वारा सृजित प्राणियों के लिए निर्णयक की भूमिका निभाएगा। ...नैतिकता सर्वोच्च महत्व का है - लेकिन हमारे लिए, ईश्वर के लिए नहीं।
“(Einstein Archive5 अगस्त 1927 को कोलोराडो बैंकर से पत्र)

“मैं जीवन या मृत्यु का भय या अंधविश्वास के आधार पर ईश्वर की किसी भी अवधारणा को स्वीकार नहीं कर सकता। मैं आपको साबित नहीं कर सकता कि कोई विशिष्ट ईश्वर नहीं है, लेकिन अगर मैं उसके अस्तित्व पर बात करूँ तो मैं झूठा होउंगा।
“( Einstein, his life and times रोनाल्ड डब्ल्यू क्लार्क, वर्ल्ड पब द्वारा, कं, एनवाई, 1971, पृष्ठ 622)

न्यूयॉर्क के रब्बी हरबर्ट गोल्डस्टीन ने आइंस्टीन को यह पूछने के लिए कहाः   “क्या आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं ?“
आइंस्टीन ने जो जवाब दिया, वह प्रसिद्ध है-

    “मैं स्पिनोज़ा के ईश्वर में विश्वास करता हूं जो अपने अस्तित्व की क्रमबद्ध सुव्यवस्था  में खुद को प्रकट करता है, न कि ईश्वर में जो मनुष्यों के भाग्य और कार्यों के साथ खुद को संलग्न करता है। “
( स्पिनोज़ा ने प्रकृति को ईश्वर कहा था।)

                                           
                                      ⧭                                                                        ⧭
on August 31, 2018 6 comments:
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Labels: आइन्स्टीन, ईश्वर, धर्म, धर्म और विज्ञान, रवींद्रनाथ टैगोर, वैज्ञानिक
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