शाश्वत शिल्प

विज्ञान-कला-साहित्य-संस्कृति

धर्म से दूर होती नैतिकता


 




अलग-अलग संस्कृति में धर्म का अर्थ अलग-अलग होना  संभव है । इसी प्रकार नैतिकता के अर्थ में भी किंचित भिन्नता हो सकती है । किंतु सभी संस्कृतियों में धर्म का सामान्यीकृत अर्थ 'ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास' है । इसी प्रकर नैतिकता का सर्वस्वीकृत अर्थ ‘मानवीय सद्गुणों पर आधारित व्यवहारों का समूह’ है । दुनिया के लगभग सारे धर्मों ने अपने प्रारंभिक स्वरूप में व्यक्ति के नैतिक गुणों के विकास पर अधिक जोर दिया है । विभिन्न स्मृति ग्रंथों में क्षमा, दया, संयम, धैर्य, सत्य आदि धर्म के जो विभिन्न लक्षण बताए गए हैं वे सभी मानवीय गुण हैं, मनुष्य के नैतिक गुण हैं । तैत्तिरीय उपनिषद की उक्ति ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ में ‘धर्मं चर’ का आशय ‘नैतिक नियमों के अनुसार आचरण’ करना है । तब धर्म और नैतिकता का लगभग समान अर्थ था ।

बाद के काल में एक ही धर्म के अनेक सम्प्रदाय बनते गए । तदनुसार मत और विचारधाराएंँ भी परिवर्तित होने लगीं । विचारों में मतभेद होने लगे, मतभेदों से विवाद और अंततः विवादों से संघर्ष होने लगे । लोग धर्म के नैतिक स्वरूप को भूल कर कृत्रिम धार्मिकता का अनुसरण करने लगे । इस विकार के संदर्भ में अनुमान किया जा सकता है कि धर्म ने जब संगठित रूप लिया होगा तब इसमें ऐसे लोग भी सम्मिलित हुए होंगे जो मन-हृदय से धार्मिक नहीं थे और केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे । इन्हीं परिस्थितियों में धर्म के मूल स्वरूप में विचलन होने लगा । इसमें अब ऐसे कार्यां को भी महत्वपूर्ण और धार्मिक माना जाने लगा जो मानवीय दृष्टिकोण से अनैतिक कहे जाते हैं, जैसे, पशुओं की बलि देना, दूसरे धर्म वालों से युद्ध कर उन्हें मार डालना ।

माण्डूक्य उपनिषद की गौड़पाद कारिका के टीकाग्रंथ में स्वामी विशुद्धानंद परिवा्रजक विभिन्न धर्म-संप्रदायों के संबंध में लिखते हैं- ‘‘सारी पृथ्वी में विरोधी भावनाओं, विरोधी भाषा, विरोधी इतिहास तथा विरोधी धर्मों के परस्पर युद्ध से अनेक बार विनाश हुआ है । अपने-अपने मत, मजहब और विचारों की हठधर्मिता के कारण प्राणी समुदाय को अनेक कष्ट सहना पड़ा है । बड़े-बड़े आत्मज्ञान, एकता और अद्वैत का उपदेश देने वाले अपने अभ्यासित संस्कार द्वारा प्राप्त नियमों के इतने दास होते हैं कि दम निकलने तक उनका परित्याग नहीं करते और व्यवहार के नाम पर मूढ़ता को पालते रहते हैं ।’’

सदियों से हर धार्मिक परंपरा में हिंसा जैसे अनैतिक कार्यों को स्वीकृति दी जाती रही है । विश्व भर की पौराणिक कथा-साहित्य और इतिहास में धर्म से संबद्ध लोगों के द्वारा अनैतिक कार्य किए जाने का उल्लेख मिलता है । यह आश्चर्य की बात है कि जो धर्म शांति, सद्भाव और विश्वबंधुत्व का संदेश देते रहे हैं वे भला असहिष्णुता और हिंसक आक्रामकता जैसे अनैतिक व्यवहारों से कैसे जुड़े रह सकते हैं ! धार्मिक लोग यह मानते हैं कि नैतिकता उनके धर्म के कारण ही आती है । अति धार्मिक लोग आश्चर्य करते हैं कि अनीश्वरवादी लोग नैतिक कैसे हो सकते हैं ! प्यू रिसर्च सेंटर के एक शोध से यह निष्कर्ष प्राप्त प्राप्त हुआ है कि अधिक शिक्षित देशों या क्षेत्रों में यह माना जाता है कि नैतिक होने के लिए आस्तिक होना अनिवार्य नहीं है । यह भी ज्ञात हुआ है कि आर्थिक रूप से कमजोर देशों में नैतिकता के लिए ईश्वर पर विश्वास होना अनिवार्य माना जाता है ।

अमेरिका के कैरोलीना विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक जोशुआ कॉनराड जैक्सन अपने एक शोध-पत्र में लिखते हैं- ‘‘दुनिया भर के अधिकांश लोग एक ओर दावा करते हैं कि नैतिक व्यक्ति होने के लिए ईश्वर में विश्वास आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर, कई विद्वान दावा करते हैं कि धर्म लोगों को क्रूर बनाता है । हमें बताया जाता है कि धर्म नैतिकता को जागृत रखता है लेकिन मामला इसके बिल्कुत विपरीत है । इस बात के पक्के सबूत मिलते हैं कि यह विश्वास लोगों को अधिक मतलबी कट्टर, और स्वार्थी बना देता है। प्यू रिसर्च सेंटर  द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के एक चौथाई देशों ने धार्मिक घृणा और आतंक,  धार्मिक लोगों की भीड़ द्वारा हिंसा, धार्मिक मान्यताओं के उल्लंघन के लिए महिलाओं का उत्पीड़न जैसी घटनाओं का सामना किया है । धार्मिक हिंसा में वृद्धि एक वैश्विक समस्या है और लगभग हर धार्मिक समूह इससे प्रभावित हुआ है । प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक पाल मार्शल के अनुसार धार्मिक उत्पीड़न और अपराध दुनिया भर में पाए जाने लगे हैं । उनका मत है कि धर्म संस्कृति को आकार देता है । अलग-अलग धर्म मानव जीवन के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण रखते है इसलिए वे एक-दूसरे का विरोध करने लगते हैं । दुनिया में बहुत से युद्ध धार्मिक कारणों से हुए हैं और हो रहे हैं ।

कई बार ऐसा देखा गया है कि धार्मिक लोग अक्सर दूसरों से नैतिक सिद्धांतों के पालन की अपेक्षा रखते हैं जिनका वे स्वयं पालन नहीं करते । धार्मिक लोग गैरधार्मिक लोगों की तुलना में अनैतिकता के अपने कृत्यों को न्यायोचित और धर्म आधारित कृत्य मनवाने का प्रयास करते हैं । ऐसा तब होता है जब मनुष्य  चार पुरुषार्थों में से काम और अर्थ को अधिक महत्व देने लगता है । तब वह जानबूझ कर या अनजाने में धर्म से विचलित हो जाता है । यह लालच, ईर्ष्या, और क्रोध के जुनून को जन्म देता है जो अनैतिक आचरण के कारण हैं ।

दुनिया में लगभग 6 अरब लोग स्वयं को धार्मिक कहते हैं । ये सभी मानते हैं कि धर्म और ईश्वर के कारण ही समाज में नैतिकता है । यदि यह सही है तो धार्मिक परिवारों के बच्चे अधिक उदार और दयालु होने चाहिए । लेकिन ‘करेंट बायोलॉजी’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के परिणाम इस का समर्थन नहीं करते । इस शोध का निष्कर्ष है कि धार्मिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चे बेहद अनुदार और गैरधार्मिक परिवार के बच्चे अपेक्षाकृत अधिक उदार होते हैं । कुछ बच्चों में यह प्रभाव जीवन भर बना रह सकता है । बच्चों को धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता सिखाना मानवीय दृष्टिकोण से अनैतिक है । धार्मिक समूह इस अध्ययन के निष्कर्षों से असहमत हो सकते हैं लेकिन दुनिया के उन देशों में जहां धार्मिकता अधिक है वहां असमानता और असहिष्णुता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है ।  लिंगभेद, जातिभेद, नस्लभेद जैसी परंपराएँ धर्म पर ही आधारित है जो कदापि नैतिक नहीं कहे जा सकते । न्यूनाधिक रूप से ऐसे व्यक्ति सभी धर्मों में होते हैं जो धर्म से जुड़े हुए हैं या कहें, जुड़े होने का ढोंग करते हैं । ऐसे लोग धर्म की आड़ लेकर अन्य व्यवसाय भी करते रहते हैं । उनके द्वारा किए जा रहे अनेक तरह के अनैतिक कृत्यों की खबरें समाचारों की सुर्खियाँ बनी रहती हैं । यह चिंता का विषय है कि नैतिकता धर्म से और अधिक दूर होती जा रही है ।

इसका आशय कदापि यह नहीं है कि नास्तिकता नैतिक होने की अनिवार्य शर्त है लेकिन शोध के परिणामों से यह अवश्य कहा जा सकता है कि नैतिक होने के लिए धार्मिक होना अनिवार्य नहीं है । अनेक विचारकों का भी मत है कि सच्ची नैतिकता धर्म से तटस्थ होती है । ऐसे बहुत से महात्मा हुए हैं जो धार्मिक भी थे और नैतिक भी, जैसे, बुद्ध, गुरुनानक, कबीर आदि । कुछ ऐसे भी महान लोग हुए हैं जो धार्मिक नहीं थे किंतु नैतिक थे, जैसे, शहीद भगत सिंह, संत तिरुवल्लुवर, अल्बेयर कामू , फ्रेडरिक नीत्शे आदि ।  इन सब ने विश्व को शांति और परस्पर प्रेम का संदेश दिया । इस विश्व को आज ऐसे ही महात्मा की आवश्यकता है जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के लिए दुनिया भर के लोगों के मन में परस्पर प्रेम और सद्भावना जागृत कर सके । फ्रांसीसी दार्शनिक अल्बेयर कामू से जब नैतिकता के संबंध में प्रश्न पूछा गया तो उनका जवाब था- ‘‘ यदि मुझसे कोई नैतिकता पर किताब लिखने को कहे तो मैं सौ पृष्ठों की किताब लिखूंगा । इसमें निन्यानबे पृष्ठ कोरे होंगे । आखिरी पृष्ठ पर लिखूंगा- मैं इंसानों के लिए सिर्फ एक कर्तव्य समझता हूँ और वो है, प्यार करना । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, उसके लिए मैं न कहता हूँ ।’’

-महेन्द्र वर्मा







 

on June 25, 2021
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Labels: धर्म, नैतिकता, मानवता, संस्कृति

4 comments:

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२६-0६-२०२१) को 'आख़री पहर की बरसात'(चर्चा अंक- ४१०७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

Jun 25, 2021, 2:40:00 PM
दिगम्बर नासवा said...

सबका अपना अपना मत है ...
कोई धर्म को ही नेतिकता समझता है कोई नैतिकता को धर्म ...
नाम की बात है जिसका जवाब इंसान के अन्दर ही है ...

Jun 25, 2021, 6:01:00 PM
Harash Mahajan said...

सब इस बारे में अलग अलग सींच रख सकते हैं सुंदर लेख

सादर

Jun 26, 2021, 11:50:00 AM
Sudha Devrani said...

विचारणीय लेख।

Jun 26, 2021, 3:50:00 PM

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