घर की चौखट

गूँज उठा पैग़ाम आखि़री, चलो ज़रा,
‘जो बोया था काट रहा हूँ, रुको ज़रा।’

हर बचपन में छुपे हुए हैं हुनर बहुत,
आहिस्ता से चाबी उनमें भरो ज़रा।

औरों के बस दोष ढूँढ़ते रहते हो,
अपने ज़ुल्मों की गिनती भी करो ज़रा।

ऊब उठेगा, किसको फुरसत सुनने की,
अपने दिल का
हा किसी से कहो ज़रा।

ख़ामोशी की भी अपनी भाषा होती है,
मन के ज़रिए अहसासों को सुनो ज़रा।

कितनी बेरहमी से सर काटे तुमने,
ऊपर भी है एक अदालत, डरो ज़रा।

क़द ऊँचा कर दिया तुम्हारा अपनों ने,
घर
की चौखट  छोटी-सी है, झुको ज़रा।

                                                              
-महेन्द्र वर्मा