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तीन सौ धर्मों के तीन सौ ईश्वर




प्रकृति और उसकी शक्तियाँ शाश्वत हैं । मनुष्य ने सर्वप्रथम प्राकृतिक शक्तियों को ही विभिन्न देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित किया । मनुष्य के अस्तित्व के लिए जो शक्तियाँ सहायक हैं, उन को देवता माना गया । भारत सहित विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं- सुमेर, माया, इंका, हित्ती, आजतेक, ग्रीक, मिस्री आदि में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती थी । चीन और ग्रीस के प्राचीन धर्मग्रंथों में भी आकाश को पिता और पृथ्वी को माता माना गया है । हवा, जल, बादल, वर्षा, नदी, पर्वत के अतिरिक्त दैनिक जीवन में व्यवहार में आने वाली वस्तुओं, विशेषतया अन्न उपजाने और भोजन से संबंधित वस्तुओं को भी पवित्र समझने का मानव स्वभाव रहा है ।

लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व कबीलाई समाज में धर्म की अवधारणा का बीजारोपण इसी तरह हुआ । आज भी गाँवों में अन्न, जल, पेड़-पौधे, चूल्हा, चक्की, सूप, बर्तन, मिट्टी, आग, दीपक आदि को पवित्र माना जाता है । लोकधर्म की यही सहज परंपराएँ अनेक सदियों तक बार-बार परिवर्तित होती हुई हज़ारों वर्षों पश्चात संगठित धर्म का रूप ग्रहण कर लेती हैं और  फिर लिपिबद्ध हो कर शास्त्र बन जाती हैं ।

प्राचीन युग के मनुष्यों के द्वारा प्रकृति के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना सहज और स्वाभाविक था । पाँच हज़ार वर्ष पूर्व लिखे गए प्रारंभिक धार्मिक शास्त्रों में यह भाव यथावत् है । समय के साथ-साथ प्रकृति पूजा की अवधारणा में बदलाव होता गया । तदनुसार नए-नए शास्त्र लिखे जाते रहे । मूल अवधारणा को लोग भूलते गए । अब तक इतने परिवर्तन हो चुके हैं कि यह अवधारणा  अब प्रकृति की सहज विशिष्टताओं के विरुद्ध हो चुकी है ।

पहले संपूर्ण विश्व में धर्म संबंधी अवधारणा एक समान थी । अब लगभग 300 संगठित धर्मों के 300 प्रकार के विचार हैं । प्रत्येक धर्म अपने ईश्वर को ही वास्तविक ईश्वर मानता है । इस प्रकार अब ईश्वर एक नहीं बल्कि 300  हैं । आज के लोकधर्मों को भी सम्मिलित कर लें तो ईश्वरों की संख्या लगभग आठ हज़ार हो जाती है ।

दुनिया का सबसे प्राचीन माना जाने वाला धार्मिक शास्त्र आज भी उपलब्ध है । इसमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर उन के प्रति प्रार्थनाएँ की गई हैं । इसे ईश्वरकृत भी कहा जाता है । किंतु इसके बाद के ग्रंथों में प्रकृति के वे देवता कहीं भी नज़र नहीं आते । कुछ के स्वरूप और स्वभाव बदले हुए है और कुछ नए देवताओं के वर्णन हैं ।

यदि पहले के शास्त्र ईश्वरकृत हैं तो उसमें वर्णित विचारों को बदल कर मनुष्यों द्वारा नए शास्त्र क्यों रचे गए, इसका उत्तर किसी के पास नहीं है । उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचार एक उत्कृष्ट विचार था क्योंकि यह प्रकृति की समस्त शक्तियों का एकीकृत रूप अर्थात ऊर्जा का ही दूसरा नाम था ।  यह विडंबना ही है कि ब्रह्म की यह अवधारणा  आज  विलुप्त हो चुकी है ।

सभी धर्मां के बाद में रचे गए शास्त्रों की विचारभिन्नता ने लोगों के बीच द्वेष की भावना में वृद्धि ही की फलस्वरूप धर्म के नाम पर अनेक युद्ध हुए । लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा गया । आज भी यह युद्ध अघोषित रूप से जारी है । धर्म के इस परिवर्तित होते स्वरूप में एक विशेष क्रम दिखाई देता है- पहले इसमें केवल कृतज्ञता और सम्मान का भाव था, फिर आस्था और श्रद्धा का भाव प्रबल हुआ और अब केवल मन-हृदयविहीन प्रदर्शन की भावना है ।

आजकल एक शब्दयुग्म बहुत प्रचलन में है- धार्मिक कट्टरता । धर्म जैसी अवधारणा के साथ कट्टर शब्द का कोई मेल नहीं है । आपने ‘कट्टर दुश्मन’ सुना होगा, क्या कभी ‘कट्टर मित्र’ सुना है ! कट्टर नकारात्मक अर्थ वाला शब्द है, मित्र के साथ उसका प्रयोग नहीं किया जा सकता । जो धर्म में भी नकारात्मकता खोज लेते हैं वे ही कट्टर धार्मिक कहे जा सकते हैं । मनुष्य के स्वभाव की यह विशेषता है कि वह नकारात्मक बातों को आसानी से समझ जाता है और उस पर अमल भी करने लगता है। अपवादस्वरूप कुछ ही लोग अच्छी बातों को समझ पाते हैं ।

एक धार्मिक ग्रंथ में इसमें ‘ईश्वर’ का कथन है- ‘‘ चार प्रकार के लोग मुझे प्रिय हैं, आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी । इनमें भी जिज्ञासु और ज्ञानी मुझे विशेष प्रिय हैं ।’’ जिज्ञासु अर्थात जानने की इच्छा रखने वाला । जिज्ञासु वही होते है जो तार्किक होते हैं, इसीलिए वे प्रकृति के गुणों के कारणों को खोजते रहते हैं और कभी-न-कभी पा भी लेते हैं अर्थात वे जान भी जाते हैं और जो जान लेता है वही ज्ञानी है ।

ऋग्वैदिककालीन देवताओं- द्युः, आपः, मरुत्, इन्द्र, अग्नि, पर्जन्य, ऊषा, सविता, पृथ्वी आदि की विशेषताओं को उन लोगों ने जाना जिन्हें आज हम वैज्ञानिक कहते हैं । ऐसे महान वैज्ञानिक ही सच्चे अर्थों में धार्मिक और आस्तिक हैं क्योंकि वे सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता ऊर्जा की निरंतर ‘उपासना’ करते हैं । इनमें केवल आधुनिक युग के वैज्ञानिक ही नहीं है बल्कि वे अनाम-अज्ञात वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं जिन्होंने लाखों-हज़ारों वर्ष पूर्व आग, पहिया, नाव, वस्त्र, रोटी, भाषा, कृषि आदि की खोज और आविष्कार किया । शेष लोग तो जानने का प्रयास ही नहीं करते, जानने का प्रयास किए बिना ही कुव्याख्यायित कथ्यों को मान लेते हैं ।

-महेन्द्र वर्मा

औपनिषदिक ब्रह्म और ऊर्जा



उपनिषदों में ब्रह्म की अवधारणा एक दार्शनिक अवधारणा है, धार्मिक अवधारणा नहीं । वेदों के संहिता खंड में बहुत सी प्राकृतिक शक्तियों के लिए प्रार्थनाओं का उल्लेख है । ब्राह्मण खंड में इन प्राकृतिक शक्तियों की उपासना के लिए कर्मकाण्ड का विधान वर्णित है । इस कर्मकाण्ड की प्रतिक्रिया के रूप में उपनिषदों में ऋषियों ने एक नया विचार प्रस्तुत किया जो आगे चलकर भारतीय दर्शन का मूल बना। इस विचार के अंतर्गत ब्रह्म की अवधारणा प्रस्तुत की गई जो वेदों में उल्लेखित प्राकृतिक शक्तियों का केवल एकीकृत रूप ही नहीं है बल्कि विशाल ब्रह्माण्ड से लेकर सूक्ष्म कण जैसे पदार्थों तक, अमूर्त भौतिक शक्तियों से लेकर भावनाओं तक का समेकित रूप है।

ब्रह्म के वर्णन में विचारणीय बात यह है कि इसमें और आधुनिक विज्ञान की ऊर्जा संबंधी तथ्यों में बहुत अधिक समानता परिलक्षित होती है ।

आधुनिक विज्ञान मुख्य रूप से पदार्थ और ऊर्जा का अध्ययन करता है । संपूर्ण ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों की परस्पर प्रतिक्रिया से संचालित है । ऊर्जा के संबंध में विज्ञान के विचार ये हैं-

1.    ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती और न ही नष्ट की जा सकती है । दूसरे शब्दों में, इस ब्रह्माण्ड में जितनी ऊर्जा है उतनी पहले भी थी और उतनी ही हमेशा रहेगी । यहां जितनी और उतनी शब्दों को अनंत के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है ।
2.    ऊर्जा एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानांतरित हो जाती है, स्वाभाविक रूप से अथवा प्रयास द्वारा ।
3.    ऊर्जा के द्वारा कार्य संपन्न होता है अर्थात यह प्रत्येक कार्य का कारण है ।
4.    ऊर्जा स्वयं को अनेक रूपों में व्यक्त करती है, स्वाभाविक रूप से या प्रयास द्वारा ।
5.    चूंकि ऊर्जा पदार्थ नहीं है इसलिए इसका कोई रूप-आकार, रंग-गंध, घनत्व-आयतन आदि जैसा  गुण नहीं होता ।
6.    प्रत्येक पदार्थ में ऊर्जा निहित है ।
7.    पदार्थ ऊर्जा में और ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तित होती रहती है ।
8.    ऊर्जा वह है जिसके कारण कोई कार्य संपन्न होता है ।
9.    पदार्थ ऊर्जा के कारण ही अस्तित्व में आते हैं, ऊर्जा के कारण ही उनका अस्तित्व बना रहता है और ऊर्जा के कारण ही वे नष्ट होकर पुनः ऊर्जा में रूपांतरित हो जाते हैं ।


उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचारों में यद्यपि उस समय तक उपलब्ध तार्किक ज्ञान और उस समय की चिंतन शैली और उस समय की काव्यमय भाषा झलकती है फिर भी ब्रह्म के लक्षण संबंधी मूल विचार स्पष्ट हैं, जिन्हें हम तथ्य कह सकते हैं । इन तथ्यों में यदि ब्रह्म के स्थान पर उर्जा रखकर मनन करें तो भी ये कथन ऊर्जा के संदर्भ में सही हैं । इन पर विचार करें और ब्रह्म की ऊर्जा से तुलना करें -

अनाद्यनंतम् महतः परं ध्रुवं । कठोपनिषद, 1।3।15

ब्रह्म अनादि और अनंत है, श्रेष्ठ है और दृढ़ सत्य है ।
ऊर्जा का भी प्रारंभ और अंत नहीं होता ।

नित्यं विभुं सर्वगतं ।
मुंडक 1।1।6

ब्रह्म नित्य है, व्यापक है और सब में विस्तारित है ।
ऊर्जा भी शाश्वत है, सर्वत्र है और सभी पदार्थों में है ।

अक्षरात्संभवतीह विश्वं। मुंडक 1।1।7

अविनाशी ब्रह्म से ही इस सृष्टि में सब कुछ उत्पन्न होता है ।
ऊर्जा से ही पदार्थों की उत्पत्ति होती है, पहले निर्जीव बाद मे क्रमशः सजीव।

सर्वखल्वमिदम् ब्रह्म । छान्दोग्य 3।14।1

यह संपूर्ण विश्व ब्रह्म है ।
चूंकि पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित होता है इसलिए विश्व को ऊर्जामय कह सकते हैं ।

एकं रूपं बहुधा यः करोति । कठ, 2।2।12

ब्रह्म अपने एक रूप को ही विविध रूपों में व्यक्त करता है ।
सभी प्रकार के पदार्थ ऊर्जा के ही रूपांतरण हैं । एक  ही ऊर्जा  विभिन्न  प्रकार की ऊर्जा में रूपांतरित हो सकती है ।

इदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । छांदोग्य 6।2।1

आरंभ में यह एकमात्र अद्वितीय ही था ।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के पहले केवल ऊर्जा ही विद्यमान थी, कृष्ण विवर के रूप में । महाविस्फोट सिद्धांत यही व्यक्त करता है ।

यतो वा इमानिभूताति जायन्ते येन जातानि जीवन्ति,
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद्विजिज्ञासत्व ।
तैत्तिरीय, 3।1।1

ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनंत है, जिनसे ये सम्पूर्ण पदार्थ जन्म लेते, जन्म लेकर जिनसे जीवन धारण करते तथा प्रलय के समय जिनमें पूर्णतः प्रवेश कर जाते हैं, उनको जानने की इच्छा करो ।
पदार्थ ऊर्जा के कारण ही अस्तित्व में आते हैं, ऊर्जा के कारण ही उनका अस्तित्व बना रहता है और ऊर्जा के कारण ही वे नष्ट होकर पुनः ऊर्जा में रूपांतरित हो जाते हैं ।

अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमो अवाय्वनाकाशमसड.गमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनो अतेजस्कमप्राणममुखममात्रमनन्तरमबाह्यम् बृहदारण्यक 3।8।8

वह ब्रह्म न स्थूल है, न अणु है, न क्षुद्र है, न विशाल है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न तम है, न वायु है न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अंतर है न बाहर है ।
ऊर्जा के संबंध में भी ये बातें सही हैं ।

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्,
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि ।
केन 1। 5

जिसका मन के द्वारा मनन नहीं होता, जिसकी शक्ति से ही मन मनन करने में समर्थ होता है, उसी को तुम ब्रह्म जानो ।
जब हम सोचते हैं तो भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।

येद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते। केन, 1।4

जो वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता, जिसके द्वारा वाणी अभिव्यक्त होती है, उसे ही तुम ब्रह्म जानों ।
हम ऊर्जा के कारण ही बोल पाते हैं ।


स आत्मा, तत्वमसि । छांदोग्य 6।8।7

यह आत्मा है, वह तुम हो ।
आत्मा भी ऊर्जा है, तुम ऊर्जा हो । चूंकि तुम कार्य कर सकते हो इसलिए तुम्हारे भीतर ऊर्जा है ।

अहं ब्रह्मास्मि । बृहदारण्यक 1।4।10

मैं ब्रह्म हूं ।
मैं ऊर्जा हूं ।

छान्दोग्य उपपिषद के 7 वें अध्याय में कहा गया है कि नाम, वाक्, मन, संकल्प, चित्त, ध्यान, विज्ञान, बल, अन्न, जल, तेज, आकाश, स्मरण, आशा, प्राण ....ये ब्रह्म हैं ।
हमारे मन की भिन्न-भिन्न दशाएं और भावनाएं भी मानसिक ऊर्जा के कारण प्रदर्शित हो पाती हैं । 
 
ब्रह्म के संबंध में इतना सब वर्णन के पश्चात् भी अंत में उपनिषदों ने उसे 'नेति-नेति ' कहा है अर्थात उसके संबंध में चाहे जितना भी कहा जाए तब भी उसका पूर्ण वर्णन नहीं किया जा सकता  । दुसरे शब्दों में ब्रह्म अपरिभाषेय है । ठीक इसी तरह विज्ञान भी ऊर्जा की निश्चित परिभाषा नहीं दे सका है, ऊर्जा अपरिभाषित है । विद्यालयों में बच्चों को समझाने के लिए बताया जाता है कि 'कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं ', किन्तु यह ऊर्जा का एक अत्यंत सीमित अर्थ है , सम्पूर्ण परिभाषा नहीं ।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि ब्रहम की अवधारणा ऊर्जा की अवधारणा से बिल्कुल मेल खाती है । ब्रह्म के बारे में जो कुछ भी कहा गया है वे सारी बातें ऊर्जा के लिए भी पूर्णतः सही हैं । प्रारंभ में रचे गए 10 मुख्य उपनिषदों में ब्रह्म संबंधी ऐसे ही अनेक उदाहरणों की प्रचुरता है । यहां केवल कुछ ही दिए गए हैं । यह चर्चा दर्शन से संबंधित है। वर्तमान समय में दर्शन के अंतर्गत परंपरागत विषयों पर चर्चा नहीं की जाती क्योंकि जो कभी दर्शन के विषय थे उनमें से अनेक का अब विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन होता है, जैसे सृष्टि की उत्पत्ति और उसका विकास, सृष्टि को संचालित करने वाली शक्ति आदि  । प्रारंभिक उपनिषदों के बाद के विद्वानों ने ब्रह्म को  सगुण और निर्गुण में विभाजित कर दिया । अब निर्गुण ब्रह्म दर्शन के क्षेत्र में आ गया और सगुण ब्रह्म धर्म का विषय हो गया । तब से लोगों ने निर्गुण ब्रह्म को भुला दिया । ब्रह्म के इस विभाजन के फलस्वरूप भ्रमपूर्ण धर्म का विकास हुआ और  भारतीय दर्शन आहत हुआ ।  आस्थावानों के मन की संतुष्टि के लिए कह दिया जाता है  कि दोनों में कोई अंतर नहीं । ब्रह्म का विभाजन दर्शन ने नहीं किया बल्कि धर्म ने किया । औपनिषदिक  दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही सर्वोच्च शक्ति है यानी  ऊर्जा ही सर्वोच्च शक्ति है ......!



-महेन्द्र वर्मा

परंपरागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान




आज से हज़ारों वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने प्राकृतिक घटनाओं को समझना प्रारंभ किया तब उसके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं था । इसलिए उसने अनुमान के आधार पर व्याख्या करने का प्रयास किया । जैसे, सूर्य और चंद्रग्रहण की घटना का कारण यह समझा गया कि इन्हें कोई राक्षस निगल लेता है । यह व्याख्या उनके लिए ‘ज्ञान’ बन गई । प्राचीन धर्म और दर्शन की शुरुआत इसी तरह से हुई और आज भी इन दोनों क्षेत्रों में अनुमान के आधार पर ज्ञान रचने की यही परंपरा जारी है ।


यदि धर्म और दर्शन द्वारा इस तरह संकलित ज्ञान सत्य और शाश्वत होता तो इनकी अनेक शाखाएं-उपशाखाएं नहीं होतीं । ये शाखाएं एक-दूसरे के द्वारा स्थापित ज्ञान को ग़लत सिद्ध करती रहती हैं ।


धर्म और दर्शन की एक और परंपरा है, ये अपनी बातों को स्पष्ट रूप से सरल भाषा में व्यक्त न कर काव्यात्मक भाषा में व्यक्त करते रहे हैं । जब भाषा और तर्क भी हार मानने लगे तब धर्म आस्था का विषय बन गया और उसे ‘अकथ’ कह कर तर्क से दूर रखा जाने लगा । लेकिन परंपरागत दर्शन में कविता की भाषा के समान अस्पष्ट और भावनात्मक तर्क सदैव दिए जाते रहे ।


बीसवीं सदी के जर्मन विचारक हैन्स राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत धर्म और दर्शन की इस अस्पष्ट और काव्यात्मक भाषा की आलोचना की और कहा कि दर्शन के प्रश्नों का उत्तर विज्ञान की भाषा में ही दिए जाने चाहिए । 1930 ई. में उन्होंने ‘वैज्ञानिक दर्शन का उदय’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने परंपरागत दर्शन की समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उनका आधुनिक विज्ञान की भाषा में तर्कसंगत उत्तर प्रस्तुत किया है ।

हैन्स राइख़ेन बाख़ (1891-1953)



हैन्स राइख़ेन बाख़ के उक्त पुस्तक से उद्धरित निम्नांकित विचार मनन करने योग्य हैं -
‘‘सृष्टि की कहानी एक मिथ्या व्याख्या है.....मनोवैज्ञानिक इच्छाओं की पूर्ति को व्याख्या नहीं कहा जा सकता.....परंपरागत  दार्शनिक अवैज्ञानिक भाषा इसलिए बोलता है क्योंकि वह उन प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करता है जिनसे संबंधित ज्ञान उसके पास उपलब्ध ही नहीं होते....।’’


‘‘...विज्ञान के जिम्मे ऐसा सामाजिक कार्य आ गया है जिसकी पूर्ति पहले धर्म के द्वारा होती थी, वह काम था- अंतिम सुरक्षा प्रदान करने का । विज्ञान में विश्वास ने बड़े पैमाने पर ईश्वर में विश्वास का स्थान ले लिया है......विज्ञान नई संभावनाओं के द्वार खोलता है । संभव है, किसी दिन हमारा परिचय उन भावनाओं से करा दे जिनका हमने पहले कभी अनुभव ही नहीं किया....।’’

‘‘तर्क से संबंधित समस्याएं चित्रमय भाषा से हल नहीं होतीं बल्कि उनके लिए गणितीय व्याख्या जैसी शुद्धता की आवश्यकता होती है.....नया तर्क परंपरागत दर्शन से नहीं बल्कि गणित की धरती से उत्पन्न हुआ है ।’’

‘‘.....उस व्यक्ति को जो सत्य को चाहता है, जब निषेधात्मक रूप में सत्य उपस्थित हो तो निराश नहीं होना चाहिए ।..अप्राप्य की मांग करने की अपेक्षा निषेधात्मक सत्य को जानना श्रेयस्कर है ।’’


अपनी पुस्तक में राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत दर्शन की भले ही आलोचना की हो लेकिन इसमें जहां भी वैज्ञानिक और गणितीय दृष्टिकोण लक्षित हुआ है उसकी प्रशंसा भी की है ।


विज्ञान प्रकृति के जितना निकट है, धर्म और दर्शन उससे उतनी ही दूर हैं । परंपरागत दर्शन और धर्म की मान्यताएं मनुष्य को कट्टरतावादी सोच की ओर उन्मुख करती हैं जबकि वैज्ञानिक दर्शन किसी मान्यता को अंतिम सत्य होने का दावा नहीं करता बल्कि उसका एक सत्य किसी और नए सत्य की शोध के लिए संभावनाओं का द्वार खोलता है ।

 
-महेन्द्र वर्मा

भविष्य के संकटों का तारणहार विज्ञान ही है



दुनिया भर के वैज्ञानिक बार-बार यह चेतावनी देते रहे हैं कि निकट भविष्य में पृथ्वी पर जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकताओं- शुद्ध वायु, जल और भोजन के अभाव का संकट अवश्यंभावी है । कुछ देशों में इनका अभाव अभी से दिखाई दे रहा है । प्रकृति ने इन बुनियादी आवश्यकताओं की सतत उपलब्धता के लिए स्वचालित व्यवस्था की थी किंतु मनुष्य ने स्वार्थवश इस व्यवस्था को विकृत किया । प्राकृतिक व्यवस्था के विकृतीकरण को नियंत्रित रखने का काम राजनीतिक सत्ता का है किंतु वे इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दे रहे, उल्टे वे वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग कर रहे हैं ।

विज्ञान मनुष्य की इस दुश्चेष्टा पर नियंत्रण तो नहीं कर सकता किंतु वह भविष्य के इस संकट से उबरने का उपाय अवश्य खोज सकता है । इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्थाओं को पर्याप्त धन और कार्य करने की स्वतंत्रता चाहिए । साथ ही जन-मानस में विज्ञान के प्रति रुचि और विश्वास जगाने के लिए विज्ञान शिक्षा को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है । समस्या यह है कि दुनिया भर की सरकारें वैज्ञानिक शोध संस्थाओं  और उच्च शिक्षा संस्थाओं को पर्याप्त आर्थिक सहायता और अवसर उपलब्ध नहीं करा रहे हैं ।

इन्हीं समस्याओं के प्रति सत्ता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए 2017 में भारत सहित दुनिया भर के एक लाख से अधिक वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों, शिक्षकों, वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं, और वैज्ञानिक सोच के समर्थकों ने विज्ञान और वैज्ञानिक   दृष्टिकोण की रक्षा के लिए दुनिया भर में 600 से अधिक शहरों में ‘मार्च फॉर साइंस’ जैसा महत्वपूर्ण आयोजन किया । अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह प्रयास इसलिए शुरू किया क्योंकि उनकी सरकार वैज्ञानिक साक्ष्यों की अनदेखी कर पेरिस समझौते से हटने वाली थी । अधिकांश देशों के वैज्ञानिकों की प्रतिक्रिया ने संकेत दिया कि लगभग हर जगह विज्ञान पर हमला हो रहा है । राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा वैज्ञानिक सबूतों की अनदेखी करने वाली नीतियां बनाई जा रही हैं और वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए वित्तीय सहायता को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं ।

‘मार्च फॉर साइंस’ का आयोजन पूरी दुनिया में अब प्रतिवर्ष होता है। इस बार यह आयोजन 4 मई, 2019 को भारत सहित विश्व भर में सम्पन्न हुआ । भारत में आम चुनाव के कारण विभिन्न संस्थाओं के वैज्ञानिकों को ‘मार्च फॉर साइंस’ की अनुमति नहीं मिली इसलिए मार्च में भाग लेने के बजाय भारत भर के वैज्ञानिकों ने विभिन्न शहरों में सेमिनार और सम्मेलन आयोजित किए।  वैज्ञानिकों ने 9 अगस्त को एक भारतीय मार्च आयोजित करने की योजना बनाई है। पूरे राष्ट्र में आयोजित सम्मेलनों और सेमिनारों में भाग लेने वाले वैज्ञानिकों ने जोर देकर कहा कि विज्ञान एक सशक्त और उन्नत समाज का आधार है। हाल के वर्षों में सरकार वैज्ञानिक खोजों को प्रोत्साहित करने में रुचि नहीं दिखा रही है और पृथ्वी की चिंताजनक स्थिति के संबंध में तैयार किए गए वैज्ञानिक आंकड़ों की अनदेखी कर रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व के देश औसत रूप से शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6% से अधिक और वैज्ञानिक अनुसंधान पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 3 % खर्च करते हैं । भारत में ये आंकडे़ क्रमश 3 % और 0.85% हैं । नतीजतन, देश की आबादी का एक बड़ा तबका आजादी के 72 साल बाद भी अनपढ़ या अर्धसाक्षर बना हुआ है । हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय बुनियादी ढांचे, शिक्षण और गैरशिक्षण कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं । अनुसंधान करने के लिए  सीएसआईआर और डीएसटी जैसी विज्ञान फंडिंग एजेंसियां तीव्र आर्थिक संकट से जूझ रही हैं । वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि शिक्षा पर जी.डी.पी. का 10 % और वैज्ञानिक शोधों के लिए 3 % राशि का प्रावधान रखा जाना चाहिए ।

उन्होंने इस बात पर भी  चिंता व्यक्त की कि प्राकृतिक संसाधनों का ‘अधिक लाभ के लिए दोहन’ हानिकारक प्रवृत्ति है । ये संसाधन देश-राज्य-धरती  की जरूरतों के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। पिछले कुछ वर्षों से असंवैधानिक तथ्यों का विज्ञान के रूप में प्रचार किया गया जो वास्तविक विज्ञान को नुकसान पहुंचा रहा है। विज्ञान को कमजोर करने के लिए निरंतर कुप्रयास किए जा रहे हैं । मीडिया द्वारा अवैज्ञानिक विचारों और अंधविश्वासों को इस तरह से प्रचारित किया जा रहा है कि लोग उस पर विश्वास करने लगते हैं। मिथक, पौराणिक कथाएं और भारतीय संस्कृति के बारे में विचित्र तथ्य विज्ञान के रूप में प्रचारित कर देश की प्राचीन संस्कृति को ही विकृत किया जा रहा है। इस प्रवृत्ति का विरोध करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51क के अनुसार सभी नागरिकों का कर्तव्य है ।

केवल विज्ञान ही जानता और समझता है कि पृथ्वी का जन्म कैसे हुआ, किस तरह वह जीवित रहती है और कैसे उसकी मृत्यु हो सकती है । इसलिए विज्ञान को बचाएं, विज्ञान को समझें और पृथ्वी को सुरक्षित रखें । पृथ्वी सुरक्षित नहीं होगी तो कोई देश कैसे सुरक्षित रह सकता है ?

-महेन्द्र वर्मा