भारत की संत परंपरा - तब और अब




भारत सदा से संतों की भूमि रहा है । आज भी संत उपाधि धारण करने वाले अनेक हैं किंतु इनकी विशेषताएं अतीत के संतों से नितांत भिन्न परिलक्षित होती हैं । विगत आठ-नौ सौ वर्षों तक भारतीय समाज और संस्कृति को एक सूत्र में पिरोए रखने में संतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उत्तर भारत में रामानंद से लेकर स्वामी रामतीर्थ तक हज़ारों संतों की सुविख्यात परंपरा ने भारतीय जन-मानस को श्रेष्ठ संस्कार प्रदान किया है। देश के इतिहास में अनेक बार विस्तारवादी शक्तियों ने न केवल भौगोलिक-राजनैतिक आक्रमण किए वरन् देश की सांस्कृतिक संरचना को भी विच्छिन्न करने का प्रयास किया । इन परिस्थियों में उन महान संतों ने ही देश की सुप्त चेतना को जागृत कर मानवतामूलक धर्म का संदेश दिया और हमारी गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित किया ।

तब

संतों की परंपरा दक्षिण भारत में छठवीं शताब्दी से आलवार संतों से प्रारंभ होती है । ये भक्तिमार्गी संत थे । पुराणों की रचना के पश्चात वेदांत के एकेश्वरवाद की महत्ता क्षीण होने लगी  और बहुदेववाद का प्रचार होने लगा । इसके प्रभाव में शैव, वैष्णव, शाक्त, नाथ, तांत्रिक आदि अनेक उपधर्म या संप्रदाय अस्तित्व में आ गए । जैन और बौद्ध धर्म भी संप्रदायों में विभाजित हो चुका था ।  इन सभी उपधर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार के बाह्योपचार और कर्मकांडयुक्त धार्मिक क्रियाओं का महत्व अधिक था । इन्हीं कर्मकांडों के प्रतिकार के लिए समन्वयवादी संतों का प्रादुर्भाव हुआ । उन्होंने जनसामान्य को कर्मकांड, आडंबर, अंधश्रद्धा, अज्ञान, और कुरीतियों के जाल में फंसा हुआ देखा। ऐसे समय में भ्रमित जनता को मार्ग दिखाने का कार्य संतों ने किया। संत परंपरा के सर्वप्रथम पथदर्शक प्रसिद्ध कवि जयदेव थे। उनसे लेकर 16वीं सदी तक सधना, वेणी, त्रिलोचन, नामदेव, रामानंद, सेना, कबीर, पीपा, रैदास, दादूदयाल, रज्जब जैसे कई संतों ने संतमत को समृद्ध किया। ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि संतों की भक्तिधारा ने महाराष्ट्र के सर्वसामान्य जनजीवन को सँवारा और सुधारा। इन संतों ने भक्तिमार्ग के साथ-साथ मानवतावादी विचारधारा को एक नया सार्थक स्वरूप प्रदान किया।

आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लोकमत एवं वेदमत का जो समन्वय होना आरंभ हुआ था वह भाषा एवं विचार दोनों दृष्टियों से लोकामिमुख हो रहा था। 14 वीं शताब्दी में स्वामी रामानंद ने इस आंदोलन को व्यापक बनाया । उन्होंने भक्ति के लिए वेदशास्त्र, संस्कृत भाषा, वर्णभेद, बाह्याचार, अंधविश्वास आदि को अनिवार्य नहीं माना। उन्होंने निम्न जातियों और स्त्रियों के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया। वस्तुतः उत्तर भारत में भक्ति-आन्दोलन का आरंभ करने और मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाने का श्रेय रामानन्द को ही है। वे ब्राह्मण थे किंतु उन्होंने वैष्णव धर्म में दो बड़े सुधार किये - 1. भक्ति मार्ग में जाति भेद की संकीर्णता को मिटाया। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर छोटी समझी जाने वाली जातियों को अपना शिष्य बनाया तथा अपने सम्प्रदाय में शामिल किया। 2. उन्होंने संस्कृत की अपेक्षा जनभाषा में अपने मत का प्रचार किया।

स्वामी रामानंद के विचारों से प्रेरित होकर उत्तर भारत में कबीर, महाराष्ट्र में नामदेव, पंजाब में नानक तथा बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने समाज तथा धर्म-सुधार आन्दोलन को गति प्रदान की । इन संतों ने जातिविहीन समाज, रूढ़िवादिता का परित्याग, वाह्याडंबरों का त्याग तथा भक्ति द्वारा शरीर को शुद्ध करने का मार्ग प्रशस्त किया। इस संदर्भ में कबीर ने समाज की भलाई के लिए अन्य संतों से अधिक कार्य किया है। कबीर साहब ने यदि स्वातंत्र्य एवं निर्भीकता को अधिक प्रधानता दी, तो गुरुनानक ने समन्वय तथा एकता पर विशेष बल दिया और दादूदयाल ने उसी प्रकार सद्भाव और सेवा को श्रेष्ठ माना। नाथपंथ ने वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया । सामाजिक और धार्मिक एकता के जिस भवन का निर्माण कबीर, दादू और नानक ने किया था उसे रज्जब साहब ने और मजबूत बनाया । उन्होंने हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म की संकुचित चहारदीवारी को लाँघ कर सृष्टिकर्ता से प्रीति करने का संदेश संसार को दिया । एक ओर मूर्तिपूजा, जप, तप, छापा-तिलक, वाह्याडंबर, अंधविश्वास की प्रधानता थी तो दूसरी ओर ं हज, नमाज, रोजा आदि पर विश्वास अधिक था। इसके साथ ही साथ दोनों धर्मों में पाखण्ड-प्रवृत्ति का भी समावेश हो गया था। प्रत्यक्ष जाति-पाँति का भेदभाव, वाह्याडंबर के कारण समाज में वर्गगत विषमता और द्वेष की भावना प्रबल थी। इस समस्या को कबीर की भांति पलटूदास ने भी अनुभव किया था और वर्ण व्यवस्था को कायम रखने वालों पर ही प्रहार किया। उन्होंने समाज की आन्तरिक और बाह्य प्रवृत्तियों पर एक साथ प्रहार किया और लोगों को भावना प्रधान होने की प्रेरणा प्रदान की । इस्लाम के सूफी संतों ने भी सामाजिक समरसता का ही संदेश दिया ।

यद्यपि अनेक संत सवर्ण समुदाय से भी हुए हैं किंतु अधिकांश संत नीची समझी जाने वाली जातियों के थे, इसलिए उनके क्रिया-कलापों, धार्मिक सिद्धान्तों, आदि के विरुद्ध सवर्णों एवं धर्माचार्यों का एक बड़ा समुदाय खड़ा था । उन्हें कदम-कदम पर प्रताड़ित किया जाता था । उन्हें समाज का उपेक्षित व्यक्ति समझा जाता था। इसीलिए संतों ने समाज में जाति-प्रथा का विरोध किया था, ऊँच-नीच का भेद-भाव उनके यहाँ नहीं था, समाज का प्रत्येक व्यक्ति समान था। संतों ने अपने इस मानवतावादी विचारों का विरोध होते हुए स्वयं देखा और अनुभव किया था। सवर्णों और वर्ण-व्यवस्था के पक्षधरों द्वारा किए जा रहे इस विरोध की प्रतिक्रिया में संतों ने अपनी वाणियों के माध्यम से जनता को यह संदेश दिया था कि जातिवादी ऊँच-नीच की विचारधारा, बाह्याडंबर, वहुदेववाद आदि स्वार्थपरक नीतियों से संचालित हैं । इसी क्रम में सिद्धों, नाथों और हठयोगियों की निन्दा करने में भी वे पीछे नहीं हैं। वास्तविक संत तो वही है जिसके भीतर मोक्ष, तीर्थ, व्रत, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि की कामना न हो। उसका न तो कोई मित्र होता है न शत्रु। उसके लिए सभी वर्ण के मनुष्य समान हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती इसी कड़ी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व हुए जिन्होंने पाखंड और धर्मान्धता के प्रति समाज को जागरूक करने में एकेश्वरवाद का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर जन-जागृति का मंत्र फूँका। अशिक्षा, अज्ञान, कुरीतियों, सती प्रथा आदि बुराइयों पर उन्होंने अपने उद्बोधन द्वारा नई चेतना जागृत की जो बाद में आर्य समाज के रूप में पूरे देश में फैली। आर्य समाज की धारणा ने सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर प्रगतिशील विचारधारा को जन्म दिया जिसका भारतीय जनमानस पर व्यापक प्रभाव हुआ ।



इन संतों  की वाणियों में यह स्वर निरंतर गूंजता रहता है कि सद्भावना, सदाचार और सहृदयता से केवल व्यक्ति ही नहीं बल्कि पूरा समाज लाभान्वित होता है। प्रेम, परोपकार, त्याग, अहिंसा, क्षमा, अहिंसा, सहनशीलता एवं सत्य के अनुपालन से समाज का कल्याण और उत्थान संभव है। उनकी सामाजिक सोच का प्रतिबिम्ब मिलता है, जिनमें जाति या वर्ण का किंचित भेद नहीं मिलता। इस दृष्टि से भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी के पश्चात् मध्यकालीन भारत में संतों ने सामाजिक न्याय और समानता के लिए अथक प्रयास किया। सामाजिक चेतना जगाने में जो महत्वपूर्ण कार्य संतों ने किया है, उसे नकारना सम्पूर्ण समन्वयवादी चिन्तन पर अविश्वास करने के समान है ।

अब

यह माना जाता है कि उन महान संतों ने अपने-अपने पंथ और संप्रदाय स्थापित किए किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न संप्रदायों का प्रचलन उनके शिष्यों ने किया होगा । जो संत जीवन भर गैरसंप्रदायवादी विचारों को प्रचारित करते रहे वे ही किसी संप्रदाय की स्थापना भला क्यों करेंगे ! आज भी ये संप्रदाय अस्तित्व में हैं किंतु ये उन महान संतों के विचारों और आदर्शों से बहुत दूर प्रतीत होते हैं ।  व्यक्ति की स्वार्थलोलुपता और वर्चस्व के मोह के कारण प्रत्येक संप्रदाय का अनेक बार विभाजन हो चुका है । नए-नए मठ, आश्रम, गद्दी, डेरा, अखाड़ा आदि स्थापित हो रहे हैं । इनमें विराजित होने वाले व्यक्ति अपने नाम के साथ स्वामी और आचार्य जोड़ते हैं जबकि सूर और तुलसी जैसे ब्राह्मण संत भी अपने नामों के साथ दास लिखते थे ।  गत कुछ वर्षों की घटनाओं से यह तथ्य सामने आया है कि आज के इन स्वयंभू संतों का उद्देश्य केवल धनसंग्रह करना और विलासितापूर्ण जीवन जीना ही है ।

संतों का प्रमुख लक्षण त्याग है, संग्रह नहीं । पूर्वयुग के संतों की कथनी, करनी और रहनी में समानता थी किंतु आज के तथाकथित संतों में यह विशेषता लेशमात्र भी नहीं दिखाई देती । स्वामी विवेकानंद भारत की संत-परंपरा की  अंतिम विभूति थे । भारत जैसे परंपरावादी, रूढ़िवादी, जाति व्यवस्था, वाह्याडंबर और अंधविश्वास वाले देश में स्वामी रामानंद से लेकर स्वामी विवेकानंद तक के अनेक संतों ने समााजक चेतना जगाने का जो प्रयास किया था, वह प्रयास अभी अधूरा ही है। यद्यपि तब और अब के सांसारिक परिदृश्य में बहुत परिवर्तन हो चुका है किंतु संतों की ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और मानवतावाद की प्राचीन अवधारणा सदैव प्रासंगिक रहेगी । इस अवधारणा के पुनरुत्थान के लिए क्रान्तिकारी चेतना विकसित करना आवश्यक है।

- महेन्द्र वर्मा