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नवगीत



कुछ दाने, कुछ मिट्टी किंचित
सावन शेष रहे ।

सूरज अवसादित हो बैठा
ऋतुओं में अनबन,
नदिया पर्वत सागर रूठे
पवनों में जकड़न,

जो हो, बस आशा.ऊर्जा का
दामन शेष रहे ।

मौन हुए सब पंख पखेरू
झरनों का कलकल,
नीरवता को भंग कर रहा
कोई कोलाहल,

जो हो, संवादी सुर में अब
गायन शेष रहे । 

-
महेन्द्र वर्मा

कृष्ण विवर

कुछ भी नहीं था
पर शून्य भी नहीं था
चीख रहे उद्गाता ।

जगती का रंगमंच
उर्जा का है प्रपंच,
अकुलाए-से लगते
आज महाभूत पंच,

दिक् ने ज्यों काल से
तोड़ लिया नाता।

न कोई तल होगा
न ही कोई शिखर,
अस्ति और नास्ति को
निगलेगा कृष्ण विवर,

तुम्ही जानते हो
न जानते विधाता।

                    
-महेन्द्र वर्मा

सर्पिल नीहारिका

ठिठके-से तारों की ऊँघती लड़ी,
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।

                     होनी के हाथों में जकड़न-सी आई
                     सूरज की किरणों को ठंडक क्यों भाई,

झींगुर को फाँस रही नन्ही मकड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
                     

                     पश्चिम के माथे पर सुकवा की बिंदी,
                     आलिंगन को आतुर गंगा कालिंदी

संध्या नक्षत्रों की खोलती कड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
                     

                      वर्तुल में घूमता है सप्तर्षि मन,
                      चंदा की जुगनू से कैसी अनबन,

सर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।

 


                                                                    -महेन्द्र वर्मा


आभास



लगता है सत्य कभी
अथवा आभास,
तिनके-से जीवन पर
मन भर विश्वास।

स्वप्नों की हरियाली
जीवन पाथेय बनी,
जग जगमग कर देती
आशा की एक कनी।

डाल-डाल उम्र हुई
पात-पात श्वास।

जड़ता खिलखिल करती
बैद्धिकता आह !
अमरत्व मरणशील
कहानी अथाह।

चिदाकाश करता है,                 
मानो उपहास।

                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

नवगीत



शब्दों से बिंधे घाव
उम्र भर छले,
आस-श्वास पीर-धीर
मिल रहे गले।

सुधियों के दर्पण में
अलसाये-से साये,
शुष्क हुए अधरों ने
मूक छंद फिर गाए,

हृद के नेहांचल में
स्वप्न-सा पले।

उज्ज्वल हो प्रात-सा
युग का नव संस्करण,
चिंतन के सागर में
सुलझन का अवतरण,

रावण के संग-संग
कलुष सब जले।

-महेन्द्र वर्मा

ज्ञान हो गया फकीर

नैतिकता कुंद हुई
न्याय हुए भोथरे,
घूम रहे जीवन के
पहिए रामासरे।

भ्रष्टों के हाथों में
राजयोग की लकीर,
बुद्धि भीख माँग रही
ज्ञान हो गया फकीर।

घूम रहे बंदर हैं
हाथ लिए उस्तरे।

धुँधला-सा दिखता है
आशा का नव विहान,
क्षितिज पार तकते हैं
पथराए-से किसान।

सोना उपजाते हैं
लूट रहे दूसरे।
                                                                -महेन्द्र वर्मा

नवगीत



पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।

                    सहमे-सहमे से सपने हैं,
                    आशा के अपरूप,
                    वक्र क्षितिज से सूरज झाँके,
                    धुँधली-धुँधली धूप।

तरस न खाओ मेरे हाल पर,
मेरा भव्य अतीत रहा है।
पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।


                    छला गया मीठी बातों से,
                    नाजुक मन भयभीत।
                    मिले सभी को अंतरिक्ष से,
                    जीवन का संगीत।

अब तक कानों में जो गूँजा,
कोई काँपता गीत रहा है।
पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।

                                                

                                                   -महेन्द्र वर्मा







झिलमिल झिलमिल झिलमिल


दीपों से आलोकित
डगर-डगर, द्वार-द्वार।


पुलकित प्रकाश-पर्व,
तम का विनष्ट गर्व,
यत्र-तत्र छूट रहे
जुग-जुगनू के अनार।


नव तारों के संकुल,
कोरस गाएं मिलजुल,
संगत करते सुर में,
फुलझडि़यों के सितार।


सब को शुभकामना,
सुख से हो सामना,
झिलमिल झिलमिल झिलमिल,
खुशियां छलके अपार।

                                          -महेंद्र वर्मा

नवगीत


आश्विन के अंबर में
रंगों की टोली,
सूरज की किरणों ने
पूर दी रंगोली।


नेह भला अपनों का,
मीत बना सपनों का,
संध्या की आंखों में
चमकती ठिठोली।


आश्विन के अंबर में,
रंगों की टोलीं।


उष्णता पिघलती है,
आस नई खिलती है,
आने को आतुर है,
शीतलता भोली।


सूरज की किरणों ने 
पूर दी रंगोली।

                                     -महेंद्र वर्मा

नवगीत

अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।


प्रात स्नान कर दिनकर निकला,
छुपा क्षणिक आनन को दिखला,

संध्या के आंचल में लाली
वीर बहूटी दहके।
अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।


दुख श्यामल घन-सा अंधियारा,
इंद्रधनुष-सा सुख उजियारा,


जीवन की हरियाली बन कर
हरा-हरा तृण महके।
अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।

                                       -महेंद्र वर्मा

नवगीत


पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी,
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।


धू-धू कर धधक रहे
किरणों के शोले,
उग आए धरती के 
पांव पर फफोले।


शीतलता बंदी है 
सूर्य की कचहरी।
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।


उबली हवाओं की 
पोटली खुली है,
बुधियारिन नीम तले
छांव सी रही है।


जमुहाई लेती है
मुंह खोले गगरी।
पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी।

                             -महेन्द्र वर्मा

नवगीत




पंछी के कोटर में 
सपनों के जाले।
चुगती है संध्या भी
नेह के निवाले।


गगन तिमिर निरख रहा
तारों का क्रंदन,
रजनी के भाल, चंद्र
लेप गया चंदन।


दृग संपुट खोल रहे
भोर के उजाले।


जुगनू की देह हुई
रश्मि पुंज वर्तन,
नूपुर छनकाता है
झींगुर का नर्तन।


नीरव के अधरों के
तोड़ सभी ताले।

                        -महेन्द्र वर्मा