आभास



लगता है सत्य कभी
अथवा आभास,
तिनके-से जीवन पर
मन भर विश्वास।

स्वप्नों की हरियाली
जीवन पाथेय बनी,
जग जगमग कर देती
आशा की एक कनी।

डाल-डाल उम्र हुई
पात-पात श्वास।

जड़ता खिलखिल करती
बैद्धिकता आह !
अमरत्व मरणशील
कहानी अथाह।

चिदाकाश करता है,                 
मानो उपहास।

                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

जिस पर तेरा नाम लिखा हो




लम्हा  एक  पुराना  ढूंढ,
फिर खोया अफ़साना ढूंढ।

वे गलियां वे घर वे लोग,
गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढ।

भला मिलेगा क्या गुलाब से,
बरगद  एक  सयाना  ढूंढ।

लोग बदल से गए यहां के,
कोई  और  ठिकाना  ढूंढ।

कुदरत में है तरह तरह के,
  सुंदर  एक  तराना ढूंढ।

दिल की गहराई जो नापे,
ऐसा  इक  पैमाना   ढूंढ।

जिस पर तेरा नाम लिखा हो,
ऐसा   कोई   दाना   ढूंढ।



                                          - महेन्द्र वर्मा

डरता है अंधियार

जगमग हर घर-द्वार  कि अब दीवाली आई,
पुलकित  है  संसार  कि  अब  दीवाली आई।


दुनिया के  कोने-कोने  में  दीप  जले हैं, 
डरता है अंधियार कि अब दीवाली आई।


गीत प्यार के गीत मिलन के गीत ख़ुशी के, 
गाओ  मेरे   यार   कि  अब   दीवाली  आई।


जी भर जी लो गले लगालो सबको हंसकर,
जीवन के  दिन  चार  कि अब दीवाली आई।


दुनिया से  अब  द्वेष  मिटाकर ही दम लेंगे,
दिल में रहे बस प्यार कि अब दीवाली आई।


सुख समृद्धि स्वास्थ्य संपदा मिले सभी को,
यही  कामना   चार  कि   अब दीवाली आई।


धरती  सागर  जंगल सरिता गगन पवन पर,
हो सबका  अधिकार कि  अब  दीवाली आई।


खुद  भी  जियो   और   दूसरों को जीने दो,
जीवन  का यह सार कि अब  दीवाली  आई।



जीवन के इस महा समर में दुआ करें हम,
हो न किसी की हार कि अब दीवाली आई।


अक्षत  रोली  और  मिठाई  ले  आया  हूं,
स्वीकारो  उपहार  कि अब दीवाली  आई।

दीपावली की अशेष शुभकामनाओं के साथ...

                                       -महेन्द्र वर्मा

जानना और समझना

                                   जो जानते हैं, जरूरी नहीं कि वे समझते भी हों। लेकिन जो समझते हैं, वे जानते भी हैं। जानना पहले होता है, समझना उसके बाद। यह तत्काल बाद भी हो सकता है और बरसों भी लग सकते हैं । कभी-कभी जानना और समझना साथ-साथ चलता है। जानते हुए समझना से ज्यादा बेहतर है- समझते हुए जानना। जानना आसान है, समझना कठिन। जानना सतही होता है, एक विमीय होता है, जबकि समझने में कर्इ आयामों से गुजरना पड़ता है। वैसे, गहनता और गंभीरतापूर्वक जानना को समझना कह सकते हैं।
                                   जानने की प्रक्रिया  ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों और मस्तिष्क के सहयोग से कुछ ही समय में सम्पन्न हो जाती है। कोर्इ व्यकित स्वयं अपने प्रयासों से चीजोंतथ्यों के बारे में जान सकता है या फिर, दूसरों के अनुभवों को सुनकर, किताबों से पढ़कर या आधुनिक संचार माध्यमों के जरिए जान सकता है। लेकिन इन्हीं चीजोंतथ्यों के बारे में समझना भी हो तो  केवल ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों और मस्तिष्क का उपयोग व्यर्थ साबित होगा।
                                    समझने की प्रक्रिया में जिसका भरपूर योगदान होता है, वह है- बुद्धि।  बुद्धि का प्रमुख काम यह है कि यह उनको सोचने के लिए प्रेरित और कभी-कभी बाध्य भी करती है, जिनके पास यह होती है। होती तो सभी मनुष्यों के पास है, किंतु स्तर या मात्रा में भिन्नता होती है। बुद्धि के स्तर में अंतर होने के कारण सोचने के स्तर में भी अंतर हो ही जाता है। सोचने के इस अंतर के कारण समझने में फर्क आना स्वाभाविक है। सोचने और फिर समझने की इस प्रक्रिया में व्यकित का पूर्वज्ञान, पूर्व अनुभव और विवेक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
                     समझ का यही अंतर विवादों का जनक होता है।
एक बात और- बिना जाने समझना संभव नहीं है लेकिन बिना समझे जानना व्यर्थ है, निरर्थक है।
                                                                                                                                                                                                                                -                                                                                                                         * महेन्द्र वर्मा


पितर-पूजन का पर्व



                                     आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की कोई  तिथि। अभी सूर्योदय में कुछ पल शेष है। छत्तीसगढ़ के एक गांव का घर। गृहलक्ष्मी रसोईघर के सामने के स्थल को गोबर से लीपती है। उस पर चावल के आटे से चौक पूरती है, पुष्पों का आसन बिछाती है। पुत्र बालसुलभ जिज्ञासा से पूछता है- 'ये क्या है मां ?' मां श्रद्धापूरित स्वरों में कहती है-'आज हमारे पितर आएंगे।' पुत्र के मन में यह दृश्य अंकित हो जाता है।
                                           तालाब में पुरुषों के स्नान घाट के एक पत्थर पर बैठा गृहस्वामी अंगूठे और तर्जनी के मध्य कुश धारण कर जल, तिल और चावल का तर्पण करता है। पुत्र प्रश्न करता है- 'आप क्या कर रहे हैं ?' उत्तर मिला-'पितरों का स्मरण कर उन्हें जल तर्पण कर रहा हूं।' पुत्र के मानस-पटल पर यह दृश्य भी अंकित हो जाता है। घर लौट कर गृहस्वामी रसोईघर के सामने घी-गुड़ और चीला-बरा का हूम-धूप देता है। पुत्र पुन: पूछता है-'ये क्या है ?' पिता कहता है-'पितरों को भोग लगा रहा हूं।' ये सभी दृश्य पुत्र के मन को संस्कारित कर देते हैं और उसमें पुरखों की अनंत श्रृंखला के प्रति आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा उत्पन्न कर देते हैं।
                                           पुरखों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने की यह परम्परा लोक-जीवन में आदिम है। भारत में जब आर्यों ने शास्त्रों की रचना प्रारंभ की तो लोक-जीवन में प्रचलित यही परंपराएं भोजपत्र में लिपिबद्ध हो कर शास्त्र में परिवर्तित हुई । पुराणों में पितृपक्ष या श्राद्धपक्ष के संबंध में विविध रूपों में विवरण और कथाएं वर्णित हैं। शास्त्रों में व्याख्यायित होने के पूर्व यह लोक-परंपरा कैसे विकसित हुई  होगी ?                                                                                  दिवंगत अपनों को जन्मतिथि के स्थान पर मृत्युतिथि पर सम्मानांजलि अर्पित करने की परंपरा के संबंध में विचार करें तो प्राचीन काल के कुछ महत्वपूर्ण व्यावहारिक तथ्य इस प्रकार उभरते हैं- संतान यह जानती थी कि उनके जनक-जननी ने उसका सप्रेम लालन-पालन जन्मपूर्व से युवावस्था पर्यन्त किया है। उन्होंने अपनी देह त्यागने तक का प्रत्येक क्षण संतान के हित के लिए ही जिया है। कृतज्ञ भाव से संतान ने भी अपने माता-पिता की मृत्युपर्यंत सेवा की। माता-पिता की मृत्यु के पश्चात उस समय के लोक-चिंतन-परंपरा के अनुसार कृतज्ञ संतान को अनुभूति हुई  कि मुझे अपने माता-पिता की आत्मा की भी सेवा करनी चाहिए। उसे यह भी अनुभूति हुई  कि मेरे माता-पिता के माता-पिता ने भी अपने संतानों की सुरक्षा और लालन-पालन किया होगा और इसी के साथ पुरखों की लंबी श्रृंखला के प्रति उसमें कृतज्ञता का भाव उत्पन्न हुआ।  तब उसने महत्वपूर्ण अवसरों पर अपने मृत माता-पिता के साथ अपने पूर्वजों का भी आवाहन, स्मरण और पूजन करना प्रारंभ किया। संतान के मन में विश्वास उत्पन्न हुआ कि पूर्वजों के आशीर्वाद से ही उसका जीवन सुखपूर्वक बीतेगा, कष्ट के समय पूर्वज उनकी सहायता करेंगे।
                                                        यह सहज, श्वेत-श्याम लोक-परंपरा जब शास्त्रों में लिपिबद्ध हुई  तो उसमें विद्वता और शास्त्रीयता के रंगों का उभरना स्वाभाविक था। पूर्वजों के लिए शास्त्रों में पितर: शब्द का उल्लेख है जो पिता का पर्यावाची पितृ का बहुवचन है। छत्तीसगढ़ी में पितर: का रूप पितर हो गया। पुराणों में पितरों के समूह को देवगण के समान पितृगण की संज्ञा दी गई । इनके निवास स्थल को पितृलोक कहा गया। ब्रहमाण्ड पुराण के अनुसार पितृगण के चार वर्ग हैं-अगिनष्वात्त, बर्हिषद, सौम्य और काव्य। यह वर्ग विभाजन तत्कालीन चतृर्वर्ण व्यवस्था के अनुरूप प्रतीत होता है। वायुपुराण में ऋषियों से पितर, पितरों से देवता और देवताओं से संपूर्ण स्थावर-जंगम सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई  है। इस प्रकार पितरों को देवताओं से भी उच्च स्थान प्राप्त है। भागवतपुराण और वायुपुराण में कहा गया है कि पितरों के प्रति केवल जलदान अर्थात तर्पण करने से ही अक्षय सुख प्राप्त होता है तथा वंश की वृद्धि होती है। मत्स्यपुराण में गया, वाराणसी, प्रयाग आदि कुल 222 तीरथों को पितृतीर्थ कहा गया है।
                                                        पुराणों में आश्विन मास के कृष्णपक्ष को पितृपक्ष माना गया है। इसे ही श्राद्धपक्ष या महालय भी कहते हैं। पितृमोक्ष अमावस्या की संज्ञा महालया है। 'श्रद्धा हेतुत्वेन असित अस्य'- पितरों के प्रति श्रद्धा की भावांजलि अर्पित करना ही श्राद्धपक्ष में कर्तव्य है। जिस पूर्वज की मृत्यु जिस तिथि में हुई  हो उसी तिथि में श्राद्ध-तर्पण करने का विधान है। यदि तिथि का स्मरण न हो तो पुरुषों का अष्टमी को, महिलाओं का नवमी को, जो पूर्वज वैरागी रहे हों उनका द्वादशी को, जिनकी अकाल मृत्यु हुई  हो उनका श्राद्धकर्म त्रयोदशी और चतुर्दशी को किया जाता है। अन्य सभी का श्राद्धकर्म अमावस्या को किया जाता है।
                                                         आधुनिक समय में जीवित माता-पिता, दादा-दादी के प्रति सम्मान में न्यूनता दिखाई  देती है। विचार करें कि हमारे पुरखे कितने सभ्य और कृतज्ञ थे जिन्होंने न केवल जीवित माता-पिता की सेवा की बलिक मृत पूर्वजों या पितरों के प्रति भी श्रद्धा   व्यक्त कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा की। वराहपुराण और मत्स्यपुराण में वर्णित पितृगीत से ज्ञात होता है कि पुरखे अपने वंशजों के सुख-समृद्धिपूर्ण जीवन के लिए किस प्रकार लालायित होकर कहते हैं-
                                                          ''क्या हमारे कुल में कोई  ऐसा बुद्धिमान, धन्य मनुष्य जन्म लेगा जो वित्तलोलुपता त्याग कर हमारे निमित्त पिण्डदान करेगा ! सम्पतित होने पर जो हमारे उददेश्य से महापुरुषों  को रत्न, वस्त्र व अन्य भोग-सामग्री का दान करेगा ! केवल अन्न-वस्त्र मात्र वैभव होने पर श्राद्धकाल में भकितविनम्र चित्त से याचकों को यथाशकित भोजन ही कराएगा ! क्या हमारे कुल में कोई  ऐसा मनुष्य जन्म लेगा जो अन्न देने में भी असमर्थ होने पर सज्जनों को वन्य फल-मूल, शाक और किंचित दक्षिणा ही दे सकेगा ! यदि इसमें भी असमर्थ रहा तो किसी भी द्विजश्रेष्ठ को प्रणाम करके एक मुटठी काला तिल ही देगा या हमारे उददेश्य से भकित एवं नम्रतापूर्वक सात-आठ तिलों से युक्त जलांजलि ही देगा ! यदि इसका भी अभाव हो तो कहीं से घास लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक हमारे उददेश्य से गौ को खिलाएगा ! इन सभी वस्तुओं का अभाव होने पर क्या हमारा वंशज दोनों हाथों को उठाकर सूर्य आदि दिक्पालों से उच्च स्वर में यह कहेगा-

न मे सित वित्तं न धनं च अन्य-
च्छ्राद्धस्य योग्यं स्वपितृन्नतो सिम।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ
भुजौ ततौ वत्र्मनि मारुतस्य।
                             
  'मेरे पास श्राद्धकर्म के योग्य न धन-संपत्ति है और न अन्य सामग्री, अत: मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूं। वे मेरी भक्ति से ही तृप्ति लाभ करें । मैंने अपनी दानों भुजाएं आकाश में उठा रखी हैं।''
                               उक्त पितृगान से स्पष्ट है कि पितर केवल श्रद्धा और भक्तिभाव से ही तृप्त होने की कामना अपने वंशजों से करते हैं।
                              श्राद्धकर्म की यदि परामनोवैज्ञानिक निहितार्थ के संबंध में विचार करें तो तथ्य यह है कि पितरों के प्रति जब हम अपने मन में श्रद्धा-भाव की मानस उर्जा उत्पन्न करते हैं तो वही उर्जा हमारे भीतर सकारात्मक शक्तियों का सृजन करती है।
   







HARIBHOOMI-OCT. 3, 2013
                                                                                                                             -महेन्द्र वर्मा



  


जिस्म पर फफोले

पराबैगनी किरणों के
एक समूह ने
ओजोन छिद्र से
धरती की ओर झांका
सयानी किरणों के
निषेध के बावजूद
कुछ ढीठ, उत्पाती किरणें
धरती पर उतर आर्इं
विचरण करने लगीं
बाग-बगीचों, नदी-तालाबों और
सड़कों-घरों में भी
कुछ पल बाद ही
मानवों के इर्द-गिर्द
घूमने वाली पराबैगनी किरणें
चीखती-चिल्लातीं
रोती-बिलखतीं
आसमान की ओर भागीं
उनके जिस्म पर
फफोले उग आए थे
कटोरों के आकार के
कराहती हुर्इ
वे कह रही थीं-
हाय !
कितनी भयानक
और घातक हैं
मनुष्यों से
निकलने वाली
'मनोकलुष किरणें' !

                                 -महेन्द्र वर्मा


नेह का दीप

सहमे से हैं लोग न जाने किसका डर है,
यही नज़ारा रात यही दिन का मंजर है।

दुनिया भर की ख़ुशियां नादानों के हिस्से,
अल्लामा को दुख सहते देखा अक्सर है।

सच कहते हैं लोग समय बलवान बहुत है,
रहा कोई महलों में लेकिन अब बेघर है।

हसरत भरी निगाहें तकतीं नील गगन में,
मगर कहां परवाज हो चुके हम बेपर हैं।

अच्छी सूरत वालों ने इतिहास बिगाड़ा,
सीरत जिसकी अच्छी बेशक वह सुंदर है।

मैं तो हूं बंदे का मालिक मेरा क्या है,
जहां नेह का दीप जले मेरा मंदर है।

मेरे मन की बात समझ न पाओगे तुम,
तेरे मेरे दुख में शायद कुछ अंतर है।

                                                   
- महेन्द्र वर्मा

उर की प्रसन्नता




दोनों हाथों की शोभा है दान करने से अरु,
मन की शोभा बड़ों का मान करने से है।
दोनों भुजाओं की शोभा वीरता दिखाने अरु,
मुख की शोभा तो प्यारे सच बोलने से है।
कान की शोभा है मीठी वाणी सुनने से अरु,
आंख की शोभा तो अच्छे भाव देखने से है।
चेहरा शोभित होता उर की प्रसन्नता से,
मानव की शोभा शुभ कर्म करने से है।

                                         -
महेन्द्र वर्मा

बिना बोले



विपत बनाती मनुज को, दुर्बल न बलवान,
वह तो केवल यह कहे, क्या है तू, ये जान।

कौन, कहां मैं, किसलिए, खुद से पूछें आप,
सहज विवेकी बन रहें, कम होगा संताप।

मूर्खों के सम्मुख स्वयं, जो बनते विद्वान,
विद्वानों के सामने, वही मूर्ख पहचान।

क्रोध जीतिए शांति से, मृदुता से अभिमान,
व्यर्थवादिता मौन से, लोभ जीतिए दान।

बड़े बिना बोले बचन, करते यों व्यवहार,
विनय सिखाते लघुन को, करते पर उपकार।


                                                                          
                                                                      -महेन्द्र वर्मा

संत बाबा किनाराम


                                   बनारस  जिले की चंदौली तहसील के रामगढ़ गांव में अकबर सिंह और मनसा देवी के घर जिस बालक ने जन्म लिया वही प्रसिद्ध संत बाबा किनाराम हुए। 12 वर्ष की अवस्था में इन्होंने गृह त्याग कर अध्यात्म की राह पकड़ी। बलिया जिले के कारों गांव निवासी बाबा शिवराम इनके गुरु थे। काशी में इन्होंने केदार घाट के बाबा कालूराम अघोरी से दीक्षा प्राप्त की। अपने गुरु की स्मृति में इन्होंने 4 मठों का निर्माण कराया। इनकी जन्मस्थली रामगढ़ में बाबा किनाराम का आध्यात्मिक आश्रम है।
                                  ये कवि भी थे। इनकी प्रधान रचना ‘विवेकसार‘ है। अन्य प्रकाशित रचनाएं ‘रामगीता‘, ‘गीतावली‘, ‘रामरसाल‘ आदि हैं। इनकी रचनाओं से इनके अवधूत मत का सहज ही अनुमान हो जाता है।

प्रस्तुत है बाबा किनाराम रचित एक पद-

कथें ज्ञान असनान जग्य व्रत, उर में कपट समानी।
प्रगट छांडि करि दूरि बतावत, सो कैसे पहचानी।
हाड़ चाम अरु मांस रक्त मल, मज्जा को अभिमानी।
ताहि खाय पंडित कहलावत, वह कैसे हम मानी।
पढ़े पुरान कुरान वेद मत, जीव दया नहिं जानी।
जीवनि भिन्न भाव करि मारत, पूजत भूत भवानी।
वह अद्ष्ट सूझ नहिं तनिकौ, मन में रहै रिसानी।
अंधहि अंधा डगर बतावत, बहिरहि बहिरा बानी।
राम किना सतगुरु सेवा बिनु, भूलि मरो अज्ञानी।।


वर्तमान की डोर




ज्ञान और ईमान अब, हुए महत्ताहीन,
छल-प्रपंच करके सभी, धन के हुए अधीन।

बिना परिश्रम ही किए, यदि धन होता प्राप्त,
वैचारिक उद्भ्रांत से, मन हो जाता व्याप्त।

जैसे-जैसे लाभ हो , वैसे बढ़ता लोभ,
जब अतिशय हो लोभ तब, मन में उठता क्षोभ।

भूत और भवितव्य पर, नहीं हमारा जोर,
सुलझाते चलते रहो, वर्तमान की डोर।

रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।

सुख की छाया में सदा, पलता रहता राग,
दुख का कारण बन गया, किंतु राग की आग।

जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।


                                                                         -महेन्द्र वर्मा


छत्तीसगढ़ी हाना



                             वाचिक परम्पराएं सभी संस्कृतियों का एक महत्वपूर्ण अंग होती हैं। लिखित भाषा का प्रयोग न करने वाले लोक समुदाय में संस्कृति का ढांचा अधिकतर मौखिक परम्परा पर आधारित होता है। कथा, गाथा, गीत, भजन, नाटिका, प्रहसन, मुहावरा, लोकोक्ति, मंत्र आदि रूपों में मौखिक साधनों द्वारा परम्परा का संचार ही वाचिक परम्परा  है। इसमें निहित लोक-संस्कृति समुदाय की अक्षुण्ण धरोहर है। विभिन्न विधाओं में वाचिक परम्परा की यह धरोहर आज लोक साहित्य की संज्ञा प्राप्त कर चुकी है।
                            अन्य संस्कृतियों की भांति ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति के संचार में वाचिक परम्परा ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। पंडवानी, भरथरी, चनैनी, लोरिक-चंदा, देवार गीत, बांस गीत और आल्हा जैसी लोकगाथाएं इतिहास को अपनी विशिष्ट शैली में रूपायित करती हैं। विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले सुआ, करमा, ददरिया, पंथी, सोहर, फाग, बिहाव गीत, गौरा गीत, जसगीत, निर्गुणी भजन आदि लोककाव्य लोक-जीवन के हर्ष-विषाद, आस-विश्वास, आमोद-प्रमोद, रीति-नीति, श्रद्धा-भक्ति, राग-विराग आदि भावों को अत्यंत सहजता से सप्राण करते रहे हैं। इसी प्रकार रहस और नाचा जैसी लोक-नाट्य की विशिष्ट परम्पराएं लोक-संस्कृति की अद्भुत ध्वज-वाहक हैं।
                               छत्तीसगढ़ की वाचिक परम्परा को समृद्ध बनाने में लोकोक्तियों अर्थात हाना का महत्वपूर्ण योगदान है। लोकोक्ति मात्र लोक उक्ति नहीं है बल्कि यह सु-उक्ति अर्थात सूक्ति या सुभाषित भी है। हाना छत्तीसगढ़ के लोक-जीवन का नीति शास्त्र है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता संक्षिप्तता है। कम शब्दों में बहुत गहरी बात कहने की क्षमता हाना में होती है। इनमें गागर में सागर भरा होता है। हाना जनमानस के लिए आलोक स्तंभ हैं जो जीवन-पथ को निरंतर आलोकित करता रहता है।
                               संसार की सभी सभ्यताओं में हाना या लोकोक्तियों का प्रचलन है। लोक-जीवन के अनुभवों के बल पर ही लोकोक्तियां बनती हैं। छत्तीसगढ़ में हजारों हाना प्रचलित हैं। किसी हाना विशेष को कब और किसने गढ़ा होगा, यह जान पाना असंभव है। किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सामान्य जीवनचर्या के किसी प्रसंग या विचार की उपयुक्तता अथवा अनुपयुक्तता को प्रमाणित करने के लिए प्रकृति के किसी अन्य समान गुणधर्म वाले प्रसंग को कम शब्दों में उद्धरित किए जाने से  हाना कहने की परम्परा विकसित हुई होगी। जिसने भी कोई हाना गढ़ा होगा, उसकी लोकनीति की समझ, त्वरित सूझ-बूझ और वाक्चातुर्य पर आश्चर्य होता है। हाना अमिधात्मक न होकर लक्षणात्मक और व्यंजनात्मक होता है। वार्तालाप के समय किसी बात या विचार की स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता अर्थात हां और ना दोनों के लिए हाना प्रयुक्त किया जाता है।

                                 छत्तीसगढ़ी हाना अपने गढ़न के लिए इतिहास, राजनीति, धर्म, नीति, समाज, घर-परिवार, स्वास्थ्य, चिकित्सा, कृषि, व्यापार, लोक-व्यवहार आदि विषयों से मूल तत्व ग्रहण करता है। प्रकृति का व्यवहार, जीव-जंतुओं के क्रियाकलाप, खाद्य पदार्थों के लक्षण, मनुष्य का आचरण, जाति विशेष के कार्य और गुण, पारिवारिक रिश्तों का ताना-बाना, वस्तुओं की विशेषताएं आदि से हाना के कथ्य लिए गए हैं। हाना के गढ़न में छत्तीसगढ़ी के ‘क्लासिकल‘ शब्दों का प्रयोग उसे सरसता प्रदान करता है। शब्दों का ऐसा सुंदर प्रयोग अन्यत्र परिलक्षित नहीं होता। कुछ में शब्दों की सादगी भी है किंतु हाना में व्यक्त भाव उसके अर्थ की व्यापकता को समृद्ध करता है। शब्द, अर्थ और भावों का समुच्चय हाना सूक्तियों का स्वरूप लेकर छत्तीसगढ़ की संस्कृति का भी दिग्दर्शन कराता है।
                                   छत्तीसगढ़ के जन-मानस में ‘अतिथि देवो भव‘  की भावना रची-बसी है। किंतु उदारता और बड़प्पन की असीमता देखिए, अतिथि यदि शत्रु हो तो भी उसका सम्मान करता है और ‘‘बैरी बर ऊंच पीढ़ा‘‘ कहकर गौरवान्वित अनुभव करता है। यही उदारता जब सीमा से अधिक होने लगी तो वह यह कहने से भी नहीं चूकता- ‘‘घर गोसइयां ला पहुना डरवावै‘‘। जब कोई व्यक्ति किसी की वस्तु पर अपना अधिकार पाने की अनधिकृत चेष्टा करता है तब इस हाना का प्रयोग किया जाता है।
                                  यहां के लोग भागयवाद पर नहीं बल्कि कर्मवाद पर विश्वास करते हैं । वे जानते हैं कि उचित कार्य न करने से प्रतिकूल परिणाम प्राप्त होता है किंतु व्यक्ति अपने कार्य में ध्यान न देकर भाग्य को दोष देता है। ऐसी ही परिस्थितियों के लिए कहा जाता है- ‘‘चलनी म दूध दुहै, करम ल दोस दै‘‘।
                                      यह प्रचलित मान्यता है कि गांव के लोग अंधविश्वासी होते हैं। क्या छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही है ? वर्तमान में भले ही कुछ मात्रा में हो, लेकिन इस हाना से ज्ञात होता है कि पहले ऐसा नहीं था-‘‘ जोग मा साख नहीं, आंखी मा भभूत आंजै।‘‘ ढोंग और दिखावे के प्रति कितना सटीक व्यंग्य !
                                   ‘‘पढ़े हे फेर कढ़े नइए‘‘, यह हाना इस तथ्य को संकेतित करता है कि पुस्तकीय ज्ञान की तुलना में जीवनानुभव के पन्ने अधिक महत्व रखते हैं। ऐसी सूझ-बूझ वाले छत्तीसगढ़ के लोग निश्चित रूप से पहले निरे भोले-भाले नहीं रहे होंगे।
                                    मानव-मन की एक दुर्बलता यह है कि वह अपने दुर्गुणों को छिपाता है और दूसरों के दुर्गुणों को बताने में अधिक रुचि लेता है। इस सार्वभौमिक सत्य को सहज शब्दों में किंतु कलात्मक ढंग से एक हाना में इस तरह कहा गया है-‘‘अपन ला तोपै, दूसर के ला उघारै‘‘। अमिधार्थ में हास्य है, लक्षणार्थ में मनोविज्ञान है और व्यंजनार्थ में तीखा व्यंग्य। यथार्थ को यूं कहने का अंदाज़ हाना में ही संभव है। दार्शनिक अंदाज़ का एक हाना यह है-‘‘करनी  दिखै, मरनी के बेर‘‘। जीवन भर मनुष्य अपने गलत कार्यों पर ध्यान नहीं देता किंतु मृत्यु के समय उसे सब याद आ ही जाता है।
                                      ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो परिश्रम से जी चुराते हैं लेकिन कार्य का श्रेय लेने में आगे रहते हैं। इनके लिए जो हाना गढ़ा गया उसमें दौंरी द्वारा फसल मिसाई के प्रसंग से तुलना की गई है। कोई बैल नांगर या गाड़ा में जोते जाने पर रेंगता नहीं है लेकिन दौंरी में जुतने के लिए तत्पर रहता है क्योंकि वहां दाना और पैरा दोनों खाने को मिलेगा, अर्थात, ‘‘काम के न धाम के, दौंरी बर बजरंगा‘‘। बजरंगा शब्द का ध्वन्यात्मक प्रभाव हाना के अर्थ को सुदृढ करता है।
                                     ‘‘कुसियार ह जादा मिठाथे त ओकर जरी ला नई चुहकैं‘‘। ध्यातव्य तथ्य प्राप्त होता है कि  पहले भी छत्तीसगढ़ में पारम्परिक फसलों के साथ-साथ गन्ने की फसल भी ली जाती थी। कुसियार से परिश्रमी व्यक्ति और सीधे-सादे व्यक्ति की तुलना, कार्य कराने से चुहकना की तुलना और स्वास्थ्य से  जरी की तुलना करते हुए हाना कहा गया।
                                     हाना में ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों का भी नाम मिलता है। जैसे-‘‘गोकुल के बिटिया, मथुरा के गाय, करम छांड़े त अंते जाय‘‘। अमिधार्थ स्पष्ट है। व्यंजनार्थ यह है कि सुख-सुविधा संपन्न स्थान पर आश्रित किसी व्यक्ति को वह स्थान छोड़ना पड़े तो यह उसका दुर्भाग्य ही होगा।
                                        कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमें जिस वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक मोह है, उसी के द्वारा हमारा अनर्थ हो, हानि हो, तब अपनी व्यथा को व्यक्त करते हुए उसे इस तरह व्यक्त करें तो कुछ संतुष्टि तो मिलेगी ही-‘‘जरै वो सोन, जेमा कान टुटै‘‘।
                                        ‘‘महतारी के परसे अउ मघा के बरसे‘‘ दोनों तृप्ति    कारक हैं। मां की तुलना मघा नक्षत्र से की गई है जिसमें हुई वर्षा संतान रूपी फसल को संतृप्त करती है। पत्नी के खाना परोसने में भला क्या अंतर है ? इसका उत्तर तो इस हाना में निहित है-‘‘डौकी टमड़ै कन्हिया, महतारी टमड़ै पेट‘‘।
                                          बेटियों को लेकर भी एक मार्मिक हाना है। बेटी के प्रति माता-पिता का असीम स्नेह है। बेटी की असामयिक मृत्यु     हो जाती है। माता-पिता पर दुख का पहाड़ टूट पड़ता है। परिवार के अन्य सदस्य उन्हें सांत्वना देते हुए कहते हैं- ‘‘दई लेगे लेगे, दमाद लेगे लेगे‘‘। बेटी को तो एक दिन इस घर से जाना ही था, अब उसे ईश्वर ले जाए या दामाद, एक ही बात है।
                                          छत्तीसगढ़ की संस्कृति की एक हल्की सी झलक इन उदाहरणों में अभिव्यक्त है, इस लघु आलेख में इतना ही संभव है। समग्र विवरण के लिए एक वृहद्काय ग्रंथ रचने की आवश्यकता होगी। क्योंकि छत्तीसगढ़ में लोकोक्तियों की संख्या अनुमानतः कई हजार है । ऊपर जो गिनती के प्रतिनिधि उदाहरण दिए गए हैं वे मध्य छत्तीसगढ़ में प्रचलित हैं। उत्तरी और दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्रों की बोलियों में प्रचलित लोकोक्तियों को भी सम्मिलित करें तो इनकी संख्या कितनी होगी, अनुमान लगाना कठिन है।
                                           अंत में, छत्तीसगढ़ की पीड़ा के मर्म को अभिव्यक्त करने वाला एक हाना । यह प्रदेश सदैव अन्य अंचलों के लोगों का आश्रयदाता रहा है। उन्हें अतिथि न मानकर परिवार का सदस्य माना गया। उनको भोजन और आवास देने के साथ-साथ यह भी बता दिया गया कि छत्तीसगढ़ की सम्पन्नता कहां छुपी है। कालांतर में छत्तीसगढ़ को लगा कि ऐसा कर उसने उचित नहीं किया। किसी समय बरबस उसके मुंह से जो हाना निकला , वह हमें अभी भी सचेत कर रहा है - ‘‘दू कोतरी दे दै, फेर दाहरा ला झन देखावै‘‘।
                                          हाना छत्तीसगढ़ की वाचिक परम्परा की एक विशिष्ट विधा है। अन्य विधाओं की अपेक्षा हाना में संस्कृति का समग्र और व्यापक उल्लेख मिलता है। यद्यपि इसमें कम शब्दों का प्रयोग होमा है किंतु प्रत्येक हाना छत्तीसगढ़ की संस्कृति के एक विशिष्ट प्रसंग को दृश्यमान बना देता है।

                                                                                                                  महेन्द्र  वर्मा

राजरानी देवी



                      सन् 1905 में एक माँ ने जिस बालक को जन्म दिया, वह हिंदी साहित्याकाश में नक्षत्र बन कर चमका। उस बालक को हिंदी और हिंदी साहित्य का ककहरा उसकी माँ ने ही सिखाया। माँ स्वयं एक भावप्रवण कवयित्री थीं। काव्य-सृजन का मर्म समझने और अपने बालक को कविता का संस्कार देने वाली उस माँ का नाम था- राजरानी देवी।
                      यह माना जाता है कि जिस प्रकार पुरुष कवियों में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविता का एक नया युग उपस्थित किया था उसी प्रकार राजरानी देवी ने महिला कवियों में एक नए संसार की सृष्टि की थी।
                       राजरानी देवी का जन्म मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के पिपरिया गांव में हुआ था। 12 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह नरसिंहपुर के लक्ष्मीप्रसाद जी से हुआ जो बाद में डिप्टी कलेक्टर हुए। प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. रामकुमार वर्मा इन्हीं के पुत्र थे।
                       प्रस्तुत है, राजरानी देवी की एक लंबी रचना के अंश जो एक शताब्दी बाद भी समाज के लिए प्रेरणाप्रद है-

नव-हरिद्र-रंजित अंग में, सर्वदा सुख में तुम्ही लवलीन हो,
ग्रंथि-बंधन के अनूप प्रसंग में, दूसरे के ही सदा अधीन हो।
 

बस तुम्हारे हेतु इस संसार में, पथ प्रदर्शक अब न होना चाहिए,
सोच लो संसार के कान्तार में, बद्ध होकर यदि जिए तो क्या जिए।
 

कर्म के स्वच्छन्य सुखमय क्षेत्र में, किंकिणी के साथ भी तलवार हो,
शौर्य हो चंचल तुम्हारे नेत्र में, सरलता का अंग पर मृदु भार हो।
 

सुखद पतिव्रत धर्म-रथ पर तुम चढ़ो, बुद्धि ही चंचल अनूप तरंग हांे,
दिव्य जीवन के समर में तुम लढ़ो, शत्रु के प्रण शीघ्र ही सब भंग हों।
 

हार पहनो तो विजय का हार हो, दुंदुभी यश की दिगंतों में बजे,
हार हो तो बस यही व्यवहार हो, तन चिता पर नाश होने को सजे।
 

मुक्त फणियों के सदृश कच-जाल हों, कामियों को शीघ्र डसने के लिए,
अरुणिमायुत हाथ उनके काल हों, सत्य का अस्तित्व रखने के लिए।

मृत्यु के निकट



आत्म प्रशंसा त्याज्य है, पर निंदा भी व्यर्थ,
दोनों मरण समान हैं, समझें इसका अर्थ।

एक-एक क्षण आयु का, सौ-सौ रत्न समान,
जो खोते हैं व्यर्थ ही, वह मनुष्य नादान।

इच्छा अजर अनंत है, अभिलाषा अति दुष्ट,
जो वीतेच्छा है वही, कहलाता संतुष्ट।

जिन कार्यों को पूर्ण कर, अंतर्मन हो शांत,
वही कर्म स्वीकार्य है, अन्य कर्म दिग्भ्रांत।

दुखी व्यक्तियों को सदा, खोजा करता कष्ट,
है यदि चित्त प्रसन्न तो, पल में कष्ट विनष्ट।

हर क्षण हम सब जा रहे, मृत्यु के निकट और,
इसीलिए सत्कर्म कर, करें सुरक्षित ठौर।

गुणीजनों के पास ही, गुण का होता पोष,
निर्गुण जन के निकट ये, बन जाते हैं दोष।

                                                                                      -महेन्द्र वर्मा