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श्वासों का अनुप्रास










 







सच को कारावास अभी भी,
भ्रम पर सबकी आस अभी भी ।

पानी ही पानी दिखता  पर,
मृग आँखों में प्यास अभी भी ।

मन का मनका फेर कह रहा,
खड़ा कबीरा पास अभी भी ।                                               

बुद्धि विवेक ज्ञान को वे सब,
देते हैं  संत्रास  अभी  भी ।

जीवन लय  को  साध  रहे हैं,
श्वासों का अनुप्रास अभी भी ।

पाने का  आभास क्षणिक था,
खोने का अहसास अभी भी ।

पंख हौसलों के ना कटते,
उड़ने का उल्लास अभी भी ।


                                 -महेन्द्र वर्मा







यूँ ही

यादों के कुछ ताने-बाने
और अकेलापन,
यूँ ही बीत रहीं दिन-रातें
और अकेलापन।
ख़ुद से ख़ुद की बातें शायद
ख़त्म कभी न हों,
कुछ कड़वी कुछ मीठी यादें
और अकेलापन।
जीवन डगर कठिन है कितनी
समझ न पाया मैं,
दिन पहाड़ खाई सी
रातें और अकेलापन।
किसने कहा अकेला हूँ मैं
देख ज़रा मुझको,
घेरे रहते हैं सन्नाटे
और अकेलापन।
पहले मेरे साथ थे ये सब
अब भी मेरे साथ,
आहें, आँसू, धड़कन
साँसें और अकेलापन।
 

-महेन्द्र वर्मा

शीत - सात छवियाँ



धूप गरीबी झेलती, बढ़ा ताप का भाव,
ठिठुर रहा आकाश है,ढूँढ़े सूर्य अलाव ।

रात रो रही रात भर, अपनी आंखें मूँद,
पीर सहेजा फूल ने, बूँद-बूँद फिर बूँद ।

सूरज हमने क्या किया, क्यों करता परिहास,
धुआँ-धुआँ सी जि़ंदगी, धुंध-धुंध विश्वास ।

मानसून की मृत्यु से, पर्वत है हैरान,
दुखी घाटियाँ ओढ़तीं, श्वेत वसन परिधान ।

कितनी निठुरा हो गई, आज पूस की रात,
नींद राह तकती रही, सपनों की बारात ।

उम्र नहीं अब देखती, छोटी चादर माप,
मन को ऊर्जा दे रहा, जीवन का संताप ।

बुझी अँगीठी देखती, मुखिया बेपरवाह,
परिजन हुए विमूढ़-से, वाह करें या आह ।
                                                                  -महेन्द्र वर्मा