इल्म की चाह ही बंदगी हो गई,
अक्षरों की छुअन आरती हो गई ।
सामना भी हुआ तो दुआ न सलाम,
अजनबी की तरह ज़िंदगी हो गई ।
प्यास ही प्यास है रेत ही रेत भी,
उम्र की शाम सूखी नदी हो गई ।
चुप रहूँ तो कहें बोलते क्यों नहीं,
बदज़ुबानी मगर,आह की,हो गई ।
खोखली है मगर छेड़ती सुर मधुर,
ज़िंदगी भी गज़ब बाँसुरी हो गई ।
सामना भी हुआ तो दुआ न सलाम,
अजनबी की तरह ज़िंदगी हो गई ।
प्यास ही प्यास है रेत ही रेत भी,
उम्र की शाम सूखी नदी हो गई ।
चुप रहूँ तो कहें बोलते क्यों नहीं,
बदज़ुबानी मगर,आह की,हो गई ।
खोखली है मगर छेड़ती सुर मधुर,
ज़िंदगी भी गज़ब बाँसुरी हो गई ।
-महेन्द्र वर्मा