प्राचीन संस्कृत साहित्य के उद्धारक



भारत के प्राचीन धार्मिक और अन्य साहित्य का दूसरी सभ्यताओं की तुलना में विशाल भंडार है  किंतु यह साहित्य दो सौ साल पहले तक आम भारतीय के लिए उपलब्ध नहीं था । इसके कुछ कारण हैं, पहला, यह सारा साहित्य मुख्यतः संस्कृत भाषा में है जो जन सामान्य की या बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी, कुछ खास लोग ही संस्कृत सीखते थे । दूसरा, जिनके पास प्राचीन साहित्य की 2-4 पुस्तकें होती थीं उन्हें वही खास लोग ही पढ़ सकते थे, एक विशेष वर्ग के लिए उन्हें पढ़ना निषिद्ध था । तीसरा, केवल हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार की जाती थीं इसलिए दुर्लभ थीं । जिनके पास थीं वे दूसरों को प्रायः नहीं देते थे । एक हजार वर्षों से अधिक की राजनैतिक अस्थिरता के कारण भी ज्ञान-विज्ञान का विकास बाधित रहा । कुछ प्राचीन पुस्तकालय विदेशी आक्रांताओं द्वारा नष्ट कर दिए गए । इन सब कारणों से उस विपुल साहित्य का देश-विदेश में प्रचार-प्रसार न हो सका । इस संदर्भ में विशेष बात यह है कि 5 हजार वर्षों तक छिपाकर रखे गए उक्त साहित्य को देश-विदेश में प्रसारित करने की शुरुआत विदेशियों ने की ।
 

चूँकि संस्कृत भाषा सामान्य व्यवहार में प्रचलित नहीं थी इसलिए संस्कृत में लिखे गए उस साहित्य को ऐसी भाषा में अनुवाद किया जाना आवश्यक था जो शासक वर्ग की भाषा हो और जिसे शासित वर्ग भी सीखता हो । 500 साल पहले तत्कालीन शासक अकबर ने इस संबंध में अल्प प्रयास किया था । 200 साल पहले अंग्रेजी शासन के समय में यह कार्य वृहद पैमाने पर हुआ । उस समय प्राचीन भारतीय साहित्य का अधिकतर अनुवाद कार्य अंग्रेजी, जर्मन और फ्रेंच में विदेशी विद्वानों के द्वारा किया गया । इस लेख में इन्हीं कार्यों का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया गया है ।
 

16 वीं शताब्दी के आठवें दशक में अकबर ने महाभारत के सभी 18 अध्यायों का फारसी में अनुवाद करवाया था । इस कार्य के लिए उसने फारसी और संस्कृत विशेषज्ञों की एक टीम बनाई थी । इस टीम में नाकिब खान, मुल्ला शीरी, सुल्तान थानीसरी, बदायूंनी, देव मिश्र, शतावधान, मधुसूदन मिश्र, आदि सम्मिलित थे । अकबर ने अथर्ववेद का भी अनुवाद करने का आदेश दिया किंतु यह कार्य नहीं हो सका । भगवद्गीता के फारसी अनुवादकों में अबुल फजल, फैजी और अब्दुर्रहमान चिश्ती का नाम भी लिया जाता है । चिश्ती ने अपने अनुवाद का शीर्षक ‘मिरात-अल-हकाइक’ अर्थात ‘सत्य का दर्पण’ रखा था । दारा शिकोह ने योग वाशिष्ठ और कुछ उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया था । 17 वीं सदी के आरंभ में रामायण की कथा का फारसी में काव्यरूपांतरण गिरधर दास नामक कवि के अतिरिक्त शाद अल्लाह पानीपती ने भी किया था । अगली 3 शताब्दियों तक फारसी में अनूदित इन पुस्तकों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार होती रहीं और पढ़ने के इच्छुक लोगों तक पहुँचती रहीं । संस्कृत के मूलग्रंथ तो उनके लिए दुर्लभ थे ।
 

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में सन् 1783 में विलियम जोन्स नामक एक बहुभाषाविद् और अध्ययनप्रेमी अंग्रेज तत्कालीन भारत के सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त किए गए । जोन्स ने अनुभव किया की भारत की संस्कृति विशिष्ट है किंतु इसके बारे में यूरोप में विशेष अध्ययन नहीं होता । उन्होंने भारतीय संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन के लिए 1784 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की स्थापना की । इस संस्थान में देश के विभिन्न स्थानों से प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों का संकलन-अध्ययन का कार्य प्रारंभ किया गया । विलियम जोन्स पहले अंग्रेज विद्वान थे जिन्होंने संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए संस्कृत सीखी । 1790 से 1796 के बीच उन्होंने अभिज्ञान शाकुंतलम्, गीत गोविंद, हितोपदेश, मनुस्मृति आदि संस्कृत ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया । इसके पहले 1784 में एशियाटिक सोसायटी के एक सदस्य चार्ल्स विल्कीन्स ने भगवद्गीता का अंग्रेजी अनुवाद किया था। यह किसी संस्कृत साहित्य का पहला अंग्रेजी अनुवाद था ।
 

होरेस हायमेन विल्सन भारत में एशियाटिक सोसायटी के 21 वर्षों तक सचिव रहे । 1813 में कालिदास के मेघदूतम् और 1840 में विष्णुपुराण का अंग्रेजी अनुवाद किया । सन् 1823 में यूरोप में संस्कृत की जो पहली पुस्तक प्रकाशित हुई वह भगवद्गीता थी जिसमें श्लीगेल द्वारा किया गया लैटिन अनुवाद भी था । जर्मन भाषा में 1826 में पंचतंत्र और 1829 में हितोपदेश प्रकाशित हुई । जार्ज फास्टर ने कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम का जर्मन में अनुवाद किया था । इस पुस्तक ने जर्मन लोगों में भारतीय संस्कृति और भाषाओं को जानने के लिए प्रेरित किया ।
 

ई. बर्जेस अमेरिकन मिशनरी थे । इन्होंने 1850 में सूर्यसिद्धांत, कौशीतकी और मैत्रायनी उपनिषद का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया । जेम्स राबर्ट बेलन्टाइन 16 वर्षों तक बनारस संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य रहे । इन्होंने 1855 में हिंदी, संस्कृत और मराठी के व्याकरण प्रकाशित कराए । 1856 में वरदराज की लघुकौमुदी और पतंजलि के योगसूत्र का प्रकाशन कराया । विलियम व्हिटनी अमेरिकन अकाडमी ऑफ आर्ट्स एंड साइंसेज़ के सदस्य थे । इन्होंने ने 1856-57 में अथर्ववेद संहिता का अनुवाद किया था ।
 

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के भाषाशास्त्र के प्रोफेसर फ्रेडरिक मैक्स मूलर पहले पाश्चात्य विद्वान थे जिन्होंने संपूर्ण ऋग्वेद का सायण भाष्य के आधार पर अनुवाद किया था । यह कार्य उन्होंने 1849 से 1874 के मध्य संपन्न किया । 1846 में हितोपदेश का जर्मन अनुवाद किया । इनके निर्देशन में 50 भागों में ‘द सीक्रेट बुक्स ऑफ द ईस्ट’ का लेखन 1950 में पूर्ण हुआ जिसमें प्राचीन भारतीय वाङ्मय का विस्तृत विवरण है । 1860 में इन्होंने ‘ए हिस्ट्री ऑफ एन्सिएंट संस्कृत लिटरेचर’ प्रकाशित कराया । इनके निधन पर लोकमान्य तिलक ने श्रद्धांजलि देते हुए इन्हें वेद महर्षि मोक्ष मुल्लर भट्ट कहा था किंतु स्वामी दयानंद सरस्वती इनके संस्कृत ज्ञान को अधूरा समझते थे ।
 

जार्ज बूलर जर्मन विद्वान थे । ये 10 भाषाएं जानते थे । प्रो. मैक्समूलर के आमंत्रण पर ये 1863 में भारत आए । ये रायल एशियाटिक सोसायटी, मुम्बई के सदस्य नामित हुए । इन्होंने पश्चिमी भारत से लगभग 5000 हस्तलिखित प्राचीन ग्रंथों का संकलन किया जिसमें कल्हण की राजतरंगिणी सबसे प्राचीन थी । सन् 1880 में इन्होंने आपस्तम्ब, वशिष्ठ और गौतम के धर्मसूत्रों का जर्मन में अनुवाद किया । अल्ब्रेख़्त फ्रेडरिक वेबर बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे । ये मैक्समूलर के घनिष्ठ मित्र थे । इन्होंने 1852 में बर्लिन वि. वि. में भारतीय साहित्य पर व्याख्यान दिया जो मुख्यतः संस्कृत साहित्य पर था । यह जर्मन में पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुआ । किसी भी भाषा में संस्कृत साहित्य का यह पहला इतिहास ग्रंथ था । 1856 में इनके द्वारा कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् का जर्मन में अनुवाद किया गया । फ्रांज किलहार्न पुणे के डेक्कन कालेज में संस्कृत के प्रोफेसर थे । इन्होंने पांतजलि कृत व्याकरण महाभाष्य का अनुवाद किया । 1871 से 1874 के बीच इटली के एंटोनियो मराज़ी ने कालिदास, विशाखदत्त और मुद्राराक्षस के नाटकों का इटैलियन में अनुवाद किया ।
 

मूरिस ब्लूमफील्ड पोलैण्ड के थे लेकिन अमेरिका में बस गए थे । ये अमेरिका के जॉन हाफकिन इंस्टीट्यूट में 45 वर्षों तक संस्कृत के प्रोफेसर रहे । इन्होंने 1897 में अथर्ववेद का और 1899 में गोपथ ब्राह्मण का अंग्रेजी में अनुवाद किया । एडवर्ड कावेल प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता में 1856 में प्रोफेसर नियुक्त हुए  । 1894 में अश्वघोष के बुद्धचरित का अंग्रेजी अनुवाद इन्होंने किया । इनके शिष्य एडवर्ड फिटजेराल्ड ने 1859 में उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद किया था ।
 

जार्ज विलियम थिबाउट म्योर सेंट्रल कॉलेज इलाहाबाद के प्राचार्य थे । ये भी जर्मन थे किंतु इंग्लैंड के नागरिक हो गए थे । इनका महत्वपूर्ण कार्य बौधायन शुल्व सूत्र और वराह मिहिर के पंचसिद्धांतिका का अंग्रेजी में अनुवाद था जो 1875-78 में पूर्ण हुआ था । शंकराचार्य के वेदांत सूत्र का भी अनुवाद किया था । राल्फ थामस ग्रिफिथ संस्कृत महाविद्यालय बनारस के प्राचार्य थे । 1870 से 1899 के मध्य वाल्मीकि रामायण और कालिदास के कुमारसंभव तथा चारों वेदों का अनुवाद सायण भाष्य के आधार पर इन्होंने  किया । ‘पंडित’ नामक संस्कृत पत्रिका के 8 वर्षों तक संपादक रहे ।
 

आयरलैंड के प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन 1898 से 1902 तक भारतीय भाषा सर्वेक्षण के निदेशक रहे । इन्होंने 19 भागों में भारत का भाषायी सर्वेक्षण को संपादित और  प्रकाशित किया । पाल जैकब डायसन जर्मन विद्वान थे । ये प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे और स्वामी विवेकानंद के मित्र थे । इस संस्कृतप्रेमी विद्वान को उनके मित्र देवसेन कहते थे । 1906 से 1912 के बीच इन्होंने 60 उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र का जर्मन में अनुवाद किया । जूलियस इगलिंग ने शतपथ ब्राह्मण का जर्मन में अनुवाद किया । जर्मनी के ही विद्वान थियोडोर गोल्डस्टकर ने 1942 में कृष्ण मिश्र के प्रबोध चंद्रोदय का जर्मन अनुवाद कर प्रकाशित कराया । जर्मनी के हैले विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर यूजीन जूलियस थियोडोर हल्ट्ज ने अन्नम भट्ट के तर्कसंग्रह का जर्मन में अनुवाद किया । एक अन्य संस्कृतप्रेमी जूलियस जॉली ने विष्णु, नारद और बृहस्पति धर्मसूत्र का अनुवाद किया ।
 

आर्थर कीथ एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में संस्कृत और पाली के प्रोफेसर थे । इन्होंने तैत्तिरीय संहिता, ऐतरेय और कौशीतकी ब्राह्मण का अंग्रेजी में अनुवाद किया । एक रूसी-जर्मन विद्वान ऑटो वान बूतलिंक ने छांदोग्य उपनिषद और पाणिनी के अष्टाध्यायी का जर्मन में अनुवाद किया था । इनके द्वारा तैयार किया गया संस्कृत-जर्मन शब्दकोष संस्कृत का किसी विदेशी भाषा में पहला शब्दकोष था । हेनरी थामस कोलब्रुक ने ईस्ट इंडिया कंपनी में कई बड़े पदों पर काम किया । वे एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल के अध्यक्ष भी रहे । इनके द्वारा अनूदित ग्रंथों में विज्ञानेश्वर रचित मिताक्षरा, जीमूतवाहन का दायभाग, ब्रह्मगुप्त का ब्रह्मस्फुट सिद्धांत और भास्कराचार्य की गणित संबंधी पुस्तकें प्रमुख हैं ।
 

उक्त विवरण में अनुवाद कार्यों के कुछ ही उदाहरण दिए गए हैं । और भी अनेक विदेशी लेखकों ने संस्कृत साहित्य की पुस्तकों का न केवल अनुवाद किया बल्कि समीक्षात्मक पुस्तकें भी लिखीं । उपर्युक्त सभी अनुवाद विदेशी भाषाओं में थे । भारतीय भाषाओं में अभी तक संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद उपलब्ध नहीं था । 20 वीं सदी के आरंभ में कुछ भारतीय लेखकों ने संस्कृत साहित्य का अनुवाद कार्य अंग्रेजी में ही किया लेकिन हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी होने लगा । भारत में कुछ प्रिंटिग प्रेस ने इस कार्य को आगे बढ़ाया जिनमें दिल्ली के मोतीलाल बनारसी दास, मुंबई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बनारस का चौखंबा प्रकाशन, गीताप्रेस गोरखपुर आदि ने संस्कृत साहित्य को भारतीय पाठकों के लिए सुलभ बनाया ।

-महेन्द्र वर्मा





हम भारत के लोग

आज से पचास  हज़ार वर्ष पूर्व जब  न तो आज के समान जातियाँ थीं, न संगठित धर्मों का अस्तित्व था, न कोई देश था न कोई राज्य, तब कबीलाई समाज का अस्तित्व था और उनमें आदिकालीन लोकधर्मों की विविध परंपराओं का प्रचलन था तब ये कबीले भोजन और पानी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास करते रहते थे। इस प्रवास के दौरान एक मानव समुदाय दूसरे मानव समुदाय से मिलता रहा, उनमें सामाजिक संबंध होते रहे, फलस्वरूप नए-नए मानव वंशों या नस्लों का जन्म होता रहा । यह प्रक्रिया पिछले 50-60 हज़ार वर्षों से आज तक जारी है । यही कारण है कि आज दुनिया भर में सैकड़ों प्रकार के मानव वंश हैं, हज़ारों प्रकार की जातियाँ हैं । समाज में जाति और धर्म के आधार पर मनुष्यों के विभाजन की परंपरा पिछले 4-5 हज़ार वर्षों में ही निर्मित और प्रचलित हुई है। हम में से किसी के लिए भी निश्चयपूर्वक और प्रमाण सहित यह बता पाना मुश्किल है कि आज से 5 हज़ार वर्ष पूर्व के हमारे हमारे पूर्वज किस जाति या धर्म के थे, किस मानव-समूह या नस्ल के थे और पृथ्वी के किस भाग के निवासी थे ।

मानव के विकास और उसके प्रवास संबंधी तथ्यों का अध्ययन भूगर्भशास्त्र, पुरातत्व और भाषाशास्त्र के अलावा अब विज्ञान या अनुवांशिकी की सहायता से भी किया जाता है । यह अध्ययन पुरातात्विक खुदाई से प्राप्त हजारों वर्ष पुराने मानव कंकालों और आज के मनुष्यों के डी.एन.ए.के विश्लेषण से किया जाता है । इससे प्राप्त परिणाम विश्वसनीय होते हैं । इसके अतिरिक्त मानव-समूहों के प्रवासन और उनमें अंतर्संबंधन के स्पष्ट प्रमाण तो ऐतिहासिक दस्तावेजों में उपलब्ध हैं । इस लेख में प्रारंभ से लेकर आज तक की इसी अध्ययन-प्रक्रिया का, विशेष तौर पर भारत के संदर्भ में, संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है । 

लगभग 30 लाख वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी भाग में मनुष्य नामक प्राणी का विकास हो चुका था । यहीं से पूरी दुनिया में मानव जाति प्रवासित हुई । करीब 17 लाख वर्ष पहले अफ्रीका से इन आदि मानवों का पहला समूह मध्य एशिया पहुंचा । 2 लाख वर्ष पहले अफ्रीका से मानव समूह का दूसरा प्रवासन एशिया और आस्ट्रेलिया तक हुआ । अंडमान-निकोबार के आदिवासी इसी समूह के लोग हैं जिनका जीवन आज भी उसी रूप में हैं । दोनों समूहों के प्रवासन में 15 लाख वर्षों का लंबा अंतराल है । तब तक अफ्रीका से मध्य एशिया गए समूह के लोगों के रंग-रूप में भौगोलिक परिस्थितियों के कारण काफी परिवर्तन आ चुका था । इन दोनों समूहों में अंतर्संबंध के फलस्वरूप रक्त सम्मिश्रण हुआं । 70 हज़ार साल पहले मिश्रित समूह वाले ये लोग दक्षिण एशिया, यूरोप और आस्ट्रेलिया पहुँचे । अमेरिका महाद्वीप में मनुष्यों की आबादी लगभग 20 हज़ार साल पहले पहुँची । 

भारतीय उपमहाद्वीप में अब तक 4 बड़े मानव समूहों का आगमन हुआ है । पहला समूह 65 हज़ार साल पहले मध्य एशिया से आया जो अफ्रीका के दो प्रवासीं समूहों का मिश्रण था । इन्हें ‘प्रथम भारतीय’ कहा गया । भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों की जीन संरचना में इस समूह का लगभग 60 प्रतिशत अवदान है । ये कौन सी भाषा बोलते थे, यह अज्ञात है । एक दूसरा समूह 10 हज़ार साल पहले ईरान के जग्रोस क्षेत्र से भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में आया । इस क्षेत्र में कृषिकार्य पहले से प्रचलित था । प्रवासी ईरानी लोग अपने साथ गेहूँ और बाजरे के बीज लाए थे फलस्वरूप इस क्षेत्र में गेहूँ और बाजरे की खेती भी की जाने लगी । इन दोनों समूहों ने सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की नींव रखी । इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा के संबंध में अभी तक कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है, संभवतः द्रविड़ भाषाओं का प्रारंभिक रूप प्रचलित हो । राखीगढ़ी से प्राप्त कंकाल के जीनोम विश्लेषण से यह अनुमान लगाया जा सकता है । 

2 वर्ष पूर्व  हरियाणा के राखीगढ़ी में उत्खनन से प्राप्त हड़प्पा कालीन मानव कंकाल के डी.एन.ए. परीक्षण की रिपोर्ट विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई । इस रिपोर्ट के अनुसार प्राप्त कंकाल के जीन्स दक्षिण भारतीय लोगों के जीन्स से मेल खाते हैं, उत्तर भारतीय लोगों से नहीं । निष्कर्ष यह निकला कि दक्षिण भारतीय लोग ही हड़प्पा सभ्यता के वासी थे । द्रविड़ भाषाओं का विकास इन्हीं लोगों ने किया था । इस रिपोर्ट से दो और निष्कर्ष निकलते हैं, या तो उस समय दक्षिण भारतीय लोग उत्तर भारत सहित संपूर्ण भारत में निवास करते थे या केवल उत्तर भारत में निवास करते थे और हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद किसी कारण से दक्षिण भारत की ओर प्रवास कर गए । यद्यपि इस संबंध में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं

भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र में तीसरा प्रवास 5-6 हज़ार साल पहले दक्षिण-पूर्व एशिया से हुआ था । यह समूह भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के निवासी बने । यही लोग बर्मा, थाईलैंड, वियतनाम आदि दक्षिण एशियाई देशों में भी गए । पुरातात्विक विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत सहित इन क्षेत्रों में धान की खेती इन्हीं प्रवासियों ने प्रारंभ की । इन्होंने ही दक्षिण-पूर्व एशिया में एस्ट्रोएशियाटिक भाषाओं को प्रचलित किया । चौथा प्रवासन 4 हज़ार वर्ष पहले मध्य एशिया के स्टेपी क्षेत्र के पशुपालकों का हुआ । ये भारोपीय भाषा बोलते थे । इनका एक दूसरा समूह यूरोप की ओर गया और भारोपीय भाषाओं के क्षेत्र का विस्तार किया । विशेषज्ञों के अनुसार वैदिक सभ्यता की नींव इसी समूह ने रखी । इन्हीं लोगों ने प्रकृति की विभिन्न शक्तियों और साधनों की पूजा करने की प्रथा प्रारंभ की जिसका उल्लेख वैदिक ऋचाओं में है । इन चारों प्रवासन से जो लोग भारतीय उपमहाद्वीप में आए उनमें सामाजिक अंतर्संबंध हुआ जिसके फलस्वरूप इस क्षेत्र में विविध भाषाएँ और संस्कृतियाँ विकसित हुईं लेकिन इस समय तक भी भारत में जाति प्रथा का आरंभ नहीं हुआ था । 

अन्य स्थानों से भारतीय भूमि पर बाद में कोई बड़ा प्रवासन नहीं हुआ किंतु पिछले 2 हज़ार सालों में समय-समय पर अन्य क्षेत्र के लोगों के समूह यहां आते रहे हैं जिनमें से कुछ लौट गए जबकि कुछ यहीं के निवासी बन गए । ये समूह आक्रमणकारी के रूप में आए और वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन भी करते रहे। ऐसे आक्रमणकारियों में मुख्य ये हैं- हूण, यवन, शक, कुषाण, पठान, सैयद, लोदी, मुगल, अंग्रेज। पिछले दो हज़ार सालों तक इन विदेशियों ने भारत की संस्कृति को कुछ सीमा तक प्रभावित किया । यवन, शक, कुषाण और मुस्लिम लोग तो भारत में ही रह गए । उस समय बहुत से भारतीय मुस्लिम हो गए थे । इन से जो पीढ़ियाँ आगे बढ़ीं वे मिश्रित जीन्स के कहे जाएंगे । यवन, शक और कुषाणों ने भारतीय संस्कृति को अपना लिया था और यहीं के वासी हो गए थे, उनकी पीढ़ियों का भी विस्तार हुआ है किंतु आज उनके वंशज कौन हैं, यह जानना असंभव है । इन के अतिरिक्त पिछले 200 सालों में पारसी और यहूदी लोग भी यहाँ आए और यहीं के हो कर रह गए । प्रसिद्द इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार मानते हैं- ''ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि आज जो लोग आर्य भाषाएँ बोलते हैं वे सब आर्यों की संतान हैं और जो द्रविड़ भाषाएँ बोलते हैं वे द्रविड़ों की ही संतति हैं,  नहीं, दोनों नृवंशों में परस्पर सम्मिश्रण खूब हुआ है ''

 जातियों का सम्मिश्रण या संकरण के संबंध में पुराणों और स्मृति ग्रंथों में अनेक विवरण हैं । मनुस्मृति के अध्याय 10 में अम्बष्ठ, वैदेह, मागध, उग्र, पारसव आदि 50 और महाभारत में 150 से अधिक संकर जातियों का उल्लेख है । महाभारत , वनपर्व, अध्याय 180 श्लोक 31 में नहुष के द्वारा जाति के संबंध में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर कहते हैं- ''हे महासर्प ! हे महा बुद्धिमान ! मेरी मति के अनुसार जगत के जितने मनुष्य हैं, सब ही में वर्णसंकर हैं । इस से उनकी जाति की परीक्षा करना कठिन है ।''

 प्रसिद्ध विद्वान डॉ. संपूर्णानंद ने अपनी पुस्तक  'हिन्दू देव परिवार का विकास' की भूमिका में लिखा है- "आज से कई हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्यों के पाँव में जैसे शनि ने अड्डा जमा लिया था, एक देश छोड़ कर दूसरे देश में जाना साधारण सी बात हो गई थी। आज तो देशांतर यात्रा पर कई प्रतिबन्ध होते हैं ।प्राचीनकाल में कोई रोक-टोक नहीं थी ।दृढ़ संकल्प और बाहु  में बल होना चाहिए था । जो जहाँ चाहे जा कर बस जाए ।इस प्रकार निरंतर चलते रहने का परिणाम यह हुआ कि यदि कभी उपजातियां थीं भी तो वे सब मिलजुल गईं । आज मनुष्य मात्र संकर है, कोई शुद्ध उपजाति नहीं है ।" महाकवि रामधारीसिंह दिनकर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखते हैं - "भारतीय संस्कृति भी इस देश में आकर बसने वाली अनेक जातियों- नीग्रो, औष्ट्रिक, आर्य, द्रविड़, मंगोल, यूनानी, यूची, शक, आभीर, हुण, तुर्क आदि- की संस्कृतियों के मेल से तैयार हुई है और अब यह पता लगाना बहुत मुश्किल है उनके भीतर किस जाति की संस्कृति का कितना अंश है ।"

इस विवेचना से निष्कर्ष यह निकलता है कि 30 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका से बाहर निकल कर पूरी दुनिया को आबाद करने वाले आदिमानवों के वंशजों के बीच ही हज़ारों सालों के अंतरालों में अनेक बार रक्तसंबंध हुआ है । यह प्रकृति के अस्तित्व और विकास का स्वाभाविक सिद्धांत है । जाति और धर्म का लबादा ओढ़ लेने से किसी के जीनोम की संरचना नहीं बदलती । वास्तव में पूरी मानव जाति अफ्रीकी आदिमानव का ही परिवार है इसलिए पूरी दुनिया के मनुष्य एक ही परिवार के हैं । हमारे किसी पूर्वज ने यही सच लिखा भी है-‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ (महोपनिषद 6.71) । 

-महेन्द्र वर्मा