जब मैं ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान में कार्यरत था तब सेवारत शिक्षकों और प्रशिक्षु शिक्षकों को वैदिक गणित विषय पर प्रशिक्षण देने का अवसर प्राप्त हुआ था । हमें एक पुस्तक दी गई थी-‘वैदिक गणित’ । पुस्तक के शीर्षक से ऐसा ध्वनित होता है कि इस में जिस गणित का वर्णन है वह वेदों में है । कक्षा में प्रशिक्षण देने के पूर्व मैंने उसका अध्ययन किया । मुझे कुछ संदेह हुआ कि क्या यह सचमुच वैदिक है ?
और फिर मैंने अपने स्तर पर इस संदर्भ में खोजबीन करना आरंभ किया । इस प्रक्रिया में मुझे जो जानकारी मिली वह अप्रत्याशित नहीं थी ।
इस विषय की मूल पुस्तक Vedic Mathematics शीर्षक से 1965 में प्रकाशित हुई जिसके लेखक स्व. स्वामी श्री भारतीकृष्ण तीर्थ जी महाराज हैं जिसमें 16 ‘सूत्र’ दिए गए हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन स्वामी जी के स्वर्गारोहण के पश्चात हुआ था । विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला ‘वैदिक गणित’ इसी पुस्तक पर आधारित है । वर्तमान में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के अतिरिक्त कई राज्यों में स्कूली विद्यार्थियों को ‘वैदिक गणित‘ पढ़ाया जा रहा है लेकिन सर्वप्रथम इस विषय का शिक्षण उत्तरप्रदेश के विद्यालयों में सन् 1992 में प्रारंभ हुआ ।
1993 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के गणितज्ञ डॉ. एस.जी.दानी का अंग्रेज़ी में एक लेख फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। अपने विस्तृत लेख में एक स्थान पर वे लिखते हैं - ‘‘स्वामी जी की पुस्तक में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वैदिक गणित कहा जाए । यहां तक कि इस में परवर्ती काल की भारतीय गणितीय सिद्धांतों और प्रक्रियाओं की समृद्ध परंपरा का भी वर्णन नहीं है ।’’ डॉ. दानी की इस टिप्पणी ने मुझे मूल पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित किया ।
मैंने मूलतः अंग्रेज़ी में लिखित Vedic Mathematics का अध्ययन-मनन प्रारंभ किया । स्वामी जी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं - ‘‘हम यह जान कर आश्चर्यचकित हुए कि अथर्ववेद के परिशिष्ट में उल्लेखित सूत्रों की सहायता से गणित के कठिन प्रश्नों को बहुत आसानी से हल किया जा सकता है ।’’ किंतु इसी पुस्तक में स्वामी जी की एक शिष्या श्रीमती मंजुला त्रिवेदी अपने वक्तव्य में लिखती हैं - ‘‘ये सूत्र अथर्ववेद के किसी परिशिष्ट में नहीं हैं, वास्तव में ये सूत्र अथर्ववेद में यत्र-तत्र बिखरी हुई सामग्री से स्वामी जी के द्वारा सहजबोध से पुनर्सृजित किए गए हैं ।’’
श्री वी. एस. अग्रवाल, जो इस पुस्तक के संपादक हैं, अपने संपादकीय लेख में इस से भिन्न बात लिखते हैं-‘‘स्वामी जी की यह कृति अपने आप में एक नया परिशिष्ट माने जाने का अधिकार रखती है और इसीलिए आश्चर्य नहीं कि यहां दिए गए सूत्र वेदों के किसी भी ज्ञात परिशिष्ट में उपलब्ध नहीं होते ।’’
उपर्युक्त तीनों बातों में कोई सामंजस्य नहीं है ।
पुस्तक के संपादक ने अपने संपादकीय में जिन विद्वानों के प्रति आभार व्यक्त किया है उनमें डॉ. ब्रजमोहन का भी नाम है जो उस समय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के गणित विभाग के अध्यक्ष थे । डॉ. ब्रजमाहन ने संपादक के आग्रह पर ‘वैदिक गणित’ की पाण्डुलिपि की गणनाओं की सत्यता की जांच की थी । मैंने डॉ. ब्रजमोहन की 1965 में प्रकाशित पुस्तक ‘गणित का इतिहास’ में इस का संदर्भ खोजना शुरू किया ।
अपनी पुस्तक की भूमिका में डॉ. ब्रजमोहन ने स्वामी जी के वैदिक सूत्रों के संबंध में यह लिखा है- ‘‘स्वामी जी ने अपने व्याख्यानों और व्यक्तिगत वार्ता में अनेक गणितीय सूत्रों की चर्चा की थी । स्वामी जी ने इन सूत्रों का यह अभिदेश दिया था : अथर्ववेद, परिशिष्ट 1 । मुझे अथर्ववेद के जितने भी संस्करण काशी के पुस्तकालयों में मिल सके, मैंने सब छान मारे । मुझे उपरिलिखित सूत्र कहीं नहीं मिले । मैंने स्वामी जी को इस विषय में तीन पत्र लिखे । मुझे कोई उत्तर नहीं मिला । तत्पश्चात मैं वेदों के उद्भट विद्वानों से मिला जैसे, पं. गिरधर शर्मा चतुर्वेदी, और पंचगंगा घाट काशी के पं. रामचंद्र भट्ट । उन्होंने बताया कि उपरिलिखित सूत्रों की भाषा ही वैदिक संस्कृत से मेल नहीं खाती अतः ये वैदिक सूत्र नहीं हो सकते ।.....हम उक्त सूत्रों का वास्तविक अभिदेश जानने के लिए उत्सुक हैं । किंतु जब तक यथार्थ अभिदेश न मिल जाए तब तक हम इतनी अप्रमाणित बात अपनी पुस्तक में नहीं दे सकते ।’’
अस्तु, ‘वैदिक गणित’ के संपादक ने डॉ. ब्रजमोहन के उक्त जिज्ञासा का समाधान संपादकीय में यह लिखकर कर दिया था कि ये सूत्र अथर्ववेद के किसी भी परिशिष्ट में उपलब्ध नहीं हैं ।
‘वैदिक गणित’ के वैदिक न होने के संबंध में सन् 1993 से 2000 तक कई गणितज्ञों और वैज्ञानिकों के लेख अंग्रेज़ी अख़बारों में प्रकाशित हुए । इन के प्रत्युत्तर में सन् 2000 में वार्षिक शोध पत्रिका ‘संबोधि’ में संपादक डॉ. एन.एम.कंसारा ने Vedic Sources of Vedic Mathematics शीर्षक से 30 पृष्ठों का एक लेख लिखा । किंतु इस लेख में वे ‘वैदिक गणित’ को वैदिक सिद्ध नहीं कर सके और लेख के अंत में उन्होंने निष्कर्ष लिखा कि ये सूत्र वेदों में एक स्थान पर नहीं है बल्कि यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं । श्री कंसारा इस ‘यत्र-तत्र’ का एक भी संदर्भ नहीं दे पाए ।
अब यह निश्चित हो गया कि ‘वैदिक गणित’ के किसी भी अंश का वैदिक साहित्य में कोई संदर्भ नहीं है । अब मैंने ‘यत्र-तत्र’ को ध्यान में रखते हुए पांचवी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक के मध्यकालीन भारतीय गणितज्ञों के प्राचीन ग्रंथों में इसका संदर्भ खोजना प्रारंभ किया ।
अपने अध्ययन के दौरान मुझे कुछ संदर्भ मिले । ‘वैदिक गणित’ में एक सूत्र है- ‘ऊर्ध्व तिर्यग्भ्याम्’, इस सूत्र का पुस्तक में व्यापक प्रयोग हुआ है । इस सूत्र में जिस एल्गोरिद्म का प्रयोग हुआ है वह महान भारतीय गणितज्ञ महावीराचार्य (9वीं शताब्दी ई).की प्रसिद्ध पुस्तक ‘गणित सार संग्रह’ (2.31) में है ।
स्वामी जी का एक उपसूत्र ‘यावदूनम्’ का एल्गोरिद्म ब्रह्मगुप्त (7 वीं श,) के ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धांत’ (12.55,64) में तथा भास्कराचार्य द्वितीय की प्रसिद्ध पुस्तक ‘लीलावती’ (सू. 13.9) में है । बोधायन के शुल्व सूत्र के प्रसिद्ध प्रमेय, जिसे अब पायथोगोरस का प्रमेय कहा जाता है, की जो उपपत्ति ‘वैदिक गणित’ में दी गई है वह वास्तव में भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा दी गई उपपत्ति है ।
इतना अवश्य है कि स्वामी जी ने अपनी पुस्तक में गणितीय नियमों को ‘ट्रिक्स’ और ‘शार्टकट्स’ में परिवर्तित किया है ।
मेरे संदेह का समाधान हो चुका है । आपको भी इस लेख के शीर्षक-प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो गया होगा ।
-महेन्द्र वर्मा