Showing posts with label संत-चर्चा. Show all posts
Showing posts with label संत-चर्चा. Show all posts

भारत की संत परंपरा - तब और अब




भारत सदा से संतों की भूमि रहा है । आज भी संत उपाधि धारण करने वाले अनेक हैं किंतु इनकी विशेषताएं अतीत के संतों से नितांत भिन्न परिलक्षित होती हैं । विगत आठ-नौ सौ वर्षों तक भारतीय समाज और संस्कृति को एक सूत्र में पिरोए रखने में संतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उत्तर भारत में रामानंद से लेकर स्वामी रामतीर्थ तक हज़ारों संतों की सुविख्यात परंपरा ने भारतीय जन-मानस को श्रेष्ठ संस्कार प्रदान किया है। देश के इतिहास में अनेक बार विस्तारवादी शक्तियों ने न केवल भौगोलिक-राजनैतिक आक्रमण किए वरन् देश की सांस्कृतिक संरचना को भी विच्छिन्न करने का प्रयास किया । इन परिस्थियों में उन महान संतों ने ही देश की सुप्त चेतना को जागृत कर मानवतामूलक धर्म का संदेश दिया और हमारी गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित किया ।

तब

संतों की परंपरा दक्षिण भारत में छठवीं शताब्दी से आलवार संतों से प्रारंभ होती है । ये भक्तिमार्गी संत थे । पुराणों की रचना के पश्चात वेदांत के एकेश्वरवाद की महत्ता क्षीण होने लगी  और बहुदेववाद का प्रचार होने लगा । इसके प्रभाव में शैव, वैष्णव, शाक्त, नाथ, तांत्रिक आदि अनेक उपधर्म या संप्रदाय अस्तित्व में आ गए । जैन और बौद्ध धर्म भी संप्रदायों में विभाजित हो चुका था ।  इन सभी उपधर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार के बाह्योपचार और कर्मकांडयुक्त धार्मिक क्रियाओं का महत्व अधिक था । इन्हीं कर्मकांडों के प्रतिकार के लिए समन्वयवादी संतों का प्रादुर्भाव हुआ । उन्होंने जनसामान्य को कर्मकांड, आडंबर, अंधश्रद्धा, अज्ञान, और कुरीतियों के जाल में फंसा हुआ देखा। ऐसे समय में भ्रमित जनता को मार्ग दिखाने का कार्य संतों ने किया। संत परंपरा के सर्वप्रथम पथदर्शक प्रसिद्ध कवि जयदेव थे। उनसे लेकर 16वीं सदी तक सधना, वेणी, त्रिलोचन, नामदेव, रामानंद, सेना, कबीर, पीपा, रैदास, दादूदयाल, रज्जब जैसे कई संतों ने संतमत को समृद्ध किया। ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि संतों की भक्तिधारा ने महाराष्ट्र के सर्वसामान्य जनजीवन को सँवारा और सुधारा। इन संतों ने भक्तिमार्ग के साथ-साथ मानवतावादी विचारधारा को एक नया सार्थक स्वरूप प्रदान किया।

आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लोकमत एवं वेदमत का जो समन्वय होना आरंभ हुआ था वह भाषा एवं विचार दोनों दृष्टियों से लोकामिमुख हो रहा था। 14 वीं शताब्दी में स्वामी रामानंद ने इस आंदोलन को व्यापक बनाया । उन्होंने भक्ति के लिए वेदशास्त्र, संस्कृत भाषा, वर्णभेद, बाह्याचार, अंधविश्वास आदि को अनिवार्य नहीं माना। उन्होंने निम्न जातियों और स्त्रियों के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया। वस्तुतः उत्तर भारत में भक्ति-आन्दोलन का आरंभ करने और मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाने का श्रेय रामानन्द को ही है। वे ब्राह्मण थे किंतु उन्होंने वैष्णव धर्म में दो बड़े सुधार किये - 1. भक्ति मार्ग में जाति भेद की संकीर्णता को मिटाया। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर छोटी समझी जाने वाली जातियों को अपना शिष्य बनाया तथा अपने सम्प्रदाय में शामिल किया। 2. उन्होंने संस्कृत की अपेक्षा जनभाषा में अपने मत का प्रचार किया।

स्वामी रामानंद के विचारों से प्रेरित होकर उत्तर भारत में कबीर, महाराष्ट्र में नामदेव, पंजाब में नानक तथा बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने समाज तथा धर्म-सुधार आन्दोलन को गति प्रदान की । इन संतों ने जातिविहीन समाज, रूढ़िवादिता का परित्याग, वाह्याडंबरों का त्याग तथा भक्ति द्वारा शरीर को शुद्ध करने का मार्ग प्रशस्त किया। इस संदर्भ में कबीर ने समाज की भलाई के लिए अन्य संतों से अधिक कार्य किया है। कबीर साहब ने यदि स्वातंत्र्य एवं निर्भीकता को अधिक प्रधानता दी, तो गुरुनानक ने समन्वय तथा एकता पर विशेष बल दिया और दादूदयाल ने उसी प्रकार सद्भाव और सेवा को श्रेष्ठ माना। नाथपंथ ने वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया । सामाजिक और धार्मिक एकता के जिस भवन का निर्माण कबीर, दादू और नानक ने किया था उसे रज्जब साहब ने और मजबूत बनाया । उन्होंने हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म की संकुचित चहारदीवारी को लाँघ कर सृष्टिकर्ता से प्रीति करने का संदेश संसार को दिया । एक ओर मूर्तिपूजा, जप, तप, छापा-तिलक, वाह्याडंबर, अंधविश्वास की प्रधानता थी तो दूसरी ओर ं हज, नमाज, रोजा आदि पर विश्वास अधिक था। इसके साथ ही साथ दोनों धर्मों में पाखण्ड-प्रवृत्ति का भी समावेश हो गया था। प्रत्यक्ष जाति-पाँति का भेदभाव, वाह्याडंबर के कारण समाज में वर्गगत विषमता और द्वेष की भावना प्रबल थी। इस समस्या को कबीर की भांति पलटूदास ने भी अनुभव किया था और वर्ण व्यवस्था को कायम रखने वालों पर ही प्रहार किया। उन्होंने समाज की आन्तरिक और बाह्य प्रवृत्तियों पर एक साथ प्रहार किया और लोगों को भावना प्रधान होने की प्रेरणा प्रदान की । इस्लाम के सूफी संतों ने भी सामाजिक समरसता का ही संदेश दिया ।

यद्यपि अनेक संत सवर्ण समुदाय से भी हुए हैं किंतु अधिकांश संत नीची समझी जाने वाली जातियों के थे, इसलिए उनके क्रिया-कलापों, धार्मिक सिद्धान्तों, आदि के विरुद्ध सवर्णों एवं धर्माचार्यों का एक बड़ा समुदाय खड़ा था । उन्हें कदम-कदम पर प्रताड़ित किया जाता था । उन्हें समाज का उपेक्षित व्यक्ति समझा जाता था। इसीलिए संतों ने समाज में जाति-प्रथा का विरोध किया था, ऊँच-नीच का भेद-भाव उनके यहाँ नहीं था, समाज का प्रत्येक व्यक्ति समान था। संतों ने अपने इस मानवतावादी विचारों का विरोध होते हुए स्वयं देखा और अनुभव किया था। सवर्णों और वर्ण-व्यवस्था के पक्षधरों द्वारा किए जा रहे इस विरोध की प्रतिक्रिया में संतों ने अपनी वाणियों के माध्यम से जनता को यह संदेश दिया था कि जातिवादी ऊँच-नीच की विचारधारा, बाह्याडंबर, वहुदेववाद आदि स्वार्थपरक नीतियों से संचालित हैं । इसी क्रम में सिद्धों, नाथों और हठयोगियों की निन्दा करने में भी वे पीछे नहीं हैं। वास्तविक संत तो वही है जिसके भीतर मोक्ष, तीर्थ, व्रत, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि की कामना न हो। उसका न तो कोई मित्र होता है न शत्रु। उसके लिए सभी वर्ण के मनुष्य समान हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती इसी कड़ी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व हुए जिन्होंने पाखंड और धर्मान्धता के प्रति समाज को जागरूक करने में एकेश्वरवाद का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर जन-जागृति का मंत्र फूँका। अशिक्षा, अज्ञान, कुरीतियों, सती प्रथा आदि बुराइयों पर उन्होंने अपने उद्बोधन द्वारा नई चेतना जागृत की जो बाद में आर्य समाज के रूप में पूरे देश में फैली। आर्य समाज की धारणा ने सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर प्रगतिशील विचारधारा को जन्म दिया जिसका भारतीय जनमानस पर व्यापक प्रभाव हुआ ।



इन संतों  की वाणियों में यह स्वर निरंतर गूंजता रहता है कि सद्भावना, सदाचार और सहृदयता से केवल व्यक्ति ही नहीं बल्कि पूरा समाज लाभान्वित होता है। प्रेम, परोपकार, त्याग, अहिंसा, क्षमा, अहिंसा, सहनशीलता एवं सत्य के अनुपालन से समाज का कल्याण और उत्थान संभव है। उनकी सामाजिक सोच का प्रतिबिम्ब मिलता है, जिनमें जाति या वर्ण का किंचित भेद नहीं मिलता। इस दृष्टि से भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी के पश्चात् मध्यकालीन भारत में संतों ने सामाजिक न्याय और समानता के लिए अथक प्रयास किया। सामाजिक चेतना जगाने में जो महत्वपूर्ण कार्य संतों ने किया है, उसे नकारना सम्पूर्ण समन्वयवादी चिन्तन पर अविश्वास करने के समान है ।

अब

यह माना जाता है कि उन महान संतों ने अपने-अपने पंथ और संप्रदाय स्थापित किए किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न संप्रदायों का प्रचलन उनके शिष्यों ने किया होगा । जो संत जीवन भर गैरसंप्रदायवादी विचारों को प्रचारित करते रहे वे ही किसी संप्रदाय की स्थापना भला क्यों करेंगे ! आज भी ये संप्रदाय अस्तित्व में हैं किंतु ये उन महान संतों के विचारों और आदर्शों से बहुत दूर प्रतीत होते हैं ।  व्यक्ति की स्वार्थलोलुपता और वर्चस्व के मोह के कारण प्रत्येक संप्रदाय का अनेक बार विभाजन हो चुका है । नए-नए मठ, आश्रम, गद्दी, डेरा, अखाड़ा आदि स्थापित हो रहे हैं । इनमें विराजित होने वाले व्यक्ति अपने नाम के साथ स्वामी और आचार्य जोड़ते हैं जबकि सूर और तुलसी जैसे ब्राह्मण संत भी अपने नामों के साथ दास लिखते थे ।  गत कुछ वर्षों की घटनाओं से यह तथ्य सामने आया है कि आज के इन स्वयंभू संतों का उद्देश्य केवल धनसंग्रह करना और विलासितापूर्ण जीवन जीना ही है ।

संतों का प्रमुख लक्षण त्याग है, संग्रह नहीं । पूर्वयुग के संतों की कथनी, करनी और रहनी में समानता थी किंतु आज के तथाकथित संतों में यह विशेषता लेशमात्र भी नहीं दिखाई देती । स्वामी विवेकानंद भारत की संत-परंपरा की  अंतिम विभूति थे । भारत जैसे परंपरावादी, रूढ़िवादी, जाति व्यवस्था, वाह्याडंबर और अंधविश्वास वाले देश में स्वामी रामानंद से लेकर स्वामी विवेकानंद तक के अनेक संतों ने समााजक चेतना जगाने का जो प्रयास किया था, वह प्रयास अभी अधूरा ही है। यद्यपि तब और अब के सांसारिक परिदृश्य में बहुत परिवर्तन हो चुका है किंतु संतों की ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और मानवतावाद की प्राचीन अवधारणा सदैव प्रासंगिक रहेगी । इस अवधारणा के पुनरुत्थान के लिए क्रान्तिकारी चेतना विकसित करना आवश्यक है।

- महेन्द्र वर्मा














संत किसन दास

राजस्थान के प्रमुख संतों में से एक थे- संत किसन दास। इनका जन्म वि.सं. 1746, माघ शुक्ल 5 को नागौर जनपद के  टांकला नामक स्थान में हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी थे। वि.सं. 1773, वैशाख शुक्ल 11 को इन्होंने संत दरिया साहब से दीक्षा ग्रहण की।
 
संत किसनदास रचित पदों की संख्या लगभग 4000 है जो साखी, चौपाई, कवित्त, चंद्रायण, कुंडलियां,आदि छंदों में लिखी गई हैं। इनके प्रमुख शिष्यों की संख्या 21 थी जिनमें से 11 ने साहित्य रचना भी की।
 
वि.सं. 1835, आषाढ़ शुक्ल 7 को टांकला में इन्होंने देहत्याग किया।
 
प्रस्तुत है, संत किसनदास रचित कुछ साखियां-

बाणी कर कहणी कही, भगति पिछाणी नाहिं,
किसना गुरु बिन ले चला, स्वारथ नरकां माहिं।

किसना जग फूल्यो फिरै, झूठा सुख की आस,
ऐसो जग में जीवणे, पाणी माहिं पतास।

बेग बुढ़ापो आवसी, सुध-बुध जासी छूट,
किसनदास काया नगर, जम लै जासी लूट।

दिवस गमायो भटकता, रात गमायो सोय,
किसनदास इस जीव को, भलो कहां से होय।

कुसंग कदै ना कीजिए, संत कहत है टेर,
जैसे संगत काग की, उड़ती मरी बटेर।

दया धरम संतोस सत, सील सबूरी सार,
किसन दास या दास गति, सहजां मोख दुवार।

उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का अमृत बैण,
किसनदास वै नित मिलौ, रामसनेही सैण।

संत दीन दरवेश


सूफी संत दीन दरवेश के जन्मकाल के संबंध में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिलती। एक मत के अनुसार इनका जन्म विक्रम संवत 1810 में उदयपुर के निकट गुड़वी या कैलाशपुरी नामक ग्राम में हुआ था। दूसरे मत के अनुसार इनका जन्म गुजरात के डभोड़ा नामक ग्राम में वि.सं. 1867 में हुआ था।
अपने गुरु अतीत बालनाथ से दीक्षित होने के पूर्व ये अनेक हिंदू तथा मुस्लिम विद्वानों से मिल चुके थे और प्रसिद्ध तीर्थस्थलों की यात्रा कर चुके थे। यही कारण है कि इनके काव्य में सूफीवाद तथा वेदांत दर्शन के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदायों की विचारधारा का प्रभाव परिलक्षित होता है।
कहते हैं कि दीन दरवेश ने अपने हृदय के पावन उद्गारों को व्यक्त करते हुए सवा लाख कुंडलियों की रचना कर ली थी किंतु उनकी अधिकांश रचनाएँ अप्राप्य हैं। इनकी कुंडलियों का एक लघु संग्रह वि.सं. 2008 में गुजराती लिपि में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ था। इनके काव्य के प्रमुख विषय माया, ईश्वर प्रेम, सहज जीवन, विश्वप्रेम, परोपकार आदि हैं।
संवत 1910 में चंबल नदी में स्नान करते समय डूब जाने से इनका देहावसान हुआ था।

प्रस्तुत है, संत दीन दरवेश की 3 कुंडलियां-

1.
माया माया करत है, खाया खर्च्या नाहिं,
आया जैसा जाएगा, ज्यूँ बादल की छाँहिं।
ज्यूँ बादल की छाँहि, जायगा आया जैसा,
जान्या नहिं जगदीस, प्रीत कर जोड़ा पैसा।
कहत दीन दरवेश, नहीं है अम्मर काया।
खाया खर्च्या नाहिं, करत है माया माया।


2.
बंदा कहता मैं करूँ, करणहार करतार,
तेरा कहा सो होय नहिं, होसी होवणहार।
होसी होवणहार, बोझ नर बृथा उठावे,
जो बिधि लिखा लिलार, तुरत वैसा फल पावे।
कहत दीन दरवेश, हुकुम से पान हलंदा,
करणहार करतार, तुसी क्या करसी बंदा।


3.
सुंदर काया छीन की, मानो क्षणभंगूर,
देखत ही उड़ जायगा, ज्यूँ उडि़ जात कपूर।
ज्यूँ उडि़ जात कपूर, यही तन दुर्लभ जाना,
मुक्ति पदारथ काज, देव नरतनहिं बखाना।
कहत दीन दरवेश, संत दरस जिन पाया,
क्षणभंगुर संसार, सुफल भइ सुंदर काया।

संत कवि परसराम


संत कवि परसराम का जन्म बीकानेर के बीठणोकर कोलायत नामक स्थान पर हुआ था। इनका जन्म वर्ष संवत 1824 है और इनके देहावसान का काल पौष कृष्ण 3, संवत 1896 है। परसराम जी संत रामदास के शिष्य थे।
राम नाम को सार रूप में ग्रहण करके संत कवि ने वचन पालन, नाम जप, सत्संगति करना, विषय वासनाओं का त्याग, हिंसा का त्याग, अभिमान का त्याग तथा शील स्वभाव अपनाने पर जोर दिया।
उनका कहना है कि अंत समय में सभी को मरना है, फिर जब तक जीवन है तब तक सुकर्म ही करना चाहिए। परसराम के काव्य में सहज भावों की अभिव्यक्ति सहज भाषा में की गई है। उनकी भाषा में राजस्थानी और खड़ी बोली का पुट दिखाई देता है। उन्होंने अधिकांश उपदेश छप्पय छंद में लिखे हैं। दोहों में जगत और जीवन के संजीवन बोध को प्रकट किया है जो अत्यंत सहज और सरल है।

प्रस्तुत है संत परसराम जी रचित कुछ दोहे-

प्रथम शब्द सुन साधु का, वेद पुराण विचार,
सत संगति नित कीजिए, कुल की काण विचार।

झूठ कपट निंदा तजो, काम क्रोध हंकार,
दुर्मति दुविधा परिहरो, तृष्णा तामस टार।

राग दोस तज मछरता, कलह कल्पना त्याग,
संकलप विकलप मेटि के, साचे मारग लाग।

पूरब पुण्य प्रताप सूं, पाई मनखा देह,
सो अब लेखे लाइए, छोड़ जगत का नेह।

धीरज धरो छिमा गहो, रहो सत्य व्रत धार,
गहो टेक इक नाम की,  देख जगत जंजार।

दया दृष्टि नित राखिए, करिए पर उपकार,
माया खरचो हरि निमित, राखो चित्त उदार।

जल को पीजे छानकर, छान बचन मुख बोल,
दृष्टि छान कर पांव धर, छान मनोरथ तोल।

जति पांति का भरम तज, उत्तम करमा देख,
सुपात्तर को पूजिए, का गृहस्थ का भेख।

देहि सिवा बर मोहि इहै


 गुरु गोविंदसिंह जी विरचित सुविख्यात ग्रंथ ‘श्री दसम ग्रंथ‘ एक अद्वितीय आध्यात्मिक और धार्मिक साहित्य है। इस ग्रंथ में गुरु जी ने लगभग 150 प्रकार के वार्णिक और मात्रिक छंदों में भारतीय धर्म के ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक पात्रों के जीवन-वृत्तों की जहाँ एक ओर पुनर्रचना की है, वहीं देवी चंडी के प्रसंगों एवं चैबीस अवतारों के माध्यम से लोगों में धर्म-युद्ध का उत्साह भी भरा है।

 ‘जापु‘, ‘अकाल उसतति‘, ‘तैंतीस सवैये‘ आदि रचनाएँ आध्यात्मिक विकास एवं मानसिक उत्थान के मार्ग में आने वाले अवरोधों और उनके निराकरण का मार्ग प्रस्तुत करते हुए प्रेम को भगवद्प्राप्ति का सबल साधन मानती हैं।

‘चंडी चरित‘, ‘चंडी दी वार‘ स्त्री शक्ति को स्थापित करते हुए समाज में स्त्री को उचित सम्मान दिलाने का संकेत करती हैं।

प्रस्तुत है, ‘श्री दसम ग्रंथ‘ के अंतर्गत ‘चंडी चरित्र उकति बिलास‘ से उद्धरित आदिशक्ति देवी शिवा की अर्चना-

देहि सिवा बर मोहि इहै, सुभ करमन ते कबहूँ न टरौं।
न डरौं अरि सों जब जाई लरौं, निसचै करि आपनि जीत करौं।।
अरु सिखहों आपने ही मन को, इह लालच हउ गुन तउ उचरौं।
जब आव की अउध निदान बनै, अति ही रन में तब जूझ मरौं।।

अर्थ- हे परम पुरुष की कल्याणकारी शक्ति ! मुझे यह वरदान दो कि मैं शुभ कर्म करने में न हिचकिचाऊँ। रणक्षेत्र में शत्रु से कभी न डरूँ और निश्चयपूर्वक युद्ध को अवश्य जीतूँ। अपने मन को शिक्षा देने के बहाने मैं हमेशा ही तुम्हारा गुणानुवाद करता रहूँ तथा जब मेरा अंतिम समय आ जाए तो मैं युद्धस्थल में धर्म की रक्षा करते हुए प्राणों का त्याग करूँ।

सूफी संत मंसूर




सन् 858 ई. में ईरान में जन्मे सूफी संत मंसूर एक आध्यात्मिक विचारक, क्रांतिकारी लेखक और सूफी मत के पवित्र गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनका पूरा नाम मंसूर अल हलाज था।

इनके पिता का जीवन अत्यंत सादगीपूर्ण था। बालक मंसूर पर इसका व्यापक असर हुआ। सांसारिक माया-मोह के प्रति ये विरक्त थे। इन्होंने सूफी महात्मा जुनैद बगदादी से आध्यात्म की शिक्षा ग्रहण की। बाद में अमर अल मक्की और साही अल तुस्तारी भी मंसूर के गुरु हुए।

मंसूर ने देश-विदेश की यात्राएं की। इस दौरान उन्होंने भारत और मध्य एशिया के अन्य देशों का भ्रमण किया। वे एक वर्ष तक मक्का में रहकर आध्यात्मिक चिंतन करते रहे। इसके बाद उन्होंने एक क्रांतिकारी वाक्य का उच्चारण करना शुरू कर दिया- ‘अनल हक‘, अर्थात, मैं सत्य हूं, और फिर बार-बार इस वाक्य को दुहराते रहे। ईरान के शासक ने समझा कि मंसूर स्वयं को परमात्मा कह रहा है । इसे गंभीर अपराध माना गया और उन्हें 11 वर्ष कैद की सजा दे दी गई। 

अनल हक कहने का मंसूर का आशय यह था कि जीव और परमात्मा में अभेद है। यह विचार हमारे उपनिषदों का एक सूत्र- अहं ब्रह्मास्मि के समान है।

सच बोलने वालों को नादान दुनियावी लोगों ने सदैव मौत की सजा दी है। सुकरात से रजनीश तक, सब की एक ही कहानी है। 26 मार्च, 922 ई. को संत मंसूर को अत्यंत क्रूर तरीके से अपार जन समुदाय के सामने मृत्युदण्ड दे दिया गया। पहले उनके पैर काटे गए, फिर हाथ और अंत में सिर। इस दौरान संत मंसूर निरंतर मुस्कुराते रहे, मानो कह रहे हों कि परमात्मा से मेरे मिलने की राह को काट सकते हो तो काटो।
मंसूर की आध्यात्मिक रचनाएं ‘किताब-अल-तवासीन‘ नामक पुस्तक में संकलित हैं।

प्रस्तुत है, संत मंसूर की एक आध्यात्मिक ग़ज़ल। यह रचना उर्दू में है। संत मंसूर उर्दू नहीं जानते थे इसलिए यह ग़ज़ल प्रत्यक्ष रूप से उनके द्वारा रचित नहीं हो सकती। संभव है, उनके किसी हिंदुस्तानी अनुयायी ने उनकी फ़ारसी रचना को उर्दू में अनुवाद किया हो। चूंकि ग़ज़ल में अनल हक और मक्ते में मंसूर आया है इसलिए इसे मंसूर रचित ग़ज़ल का उर्दू अनुवाद माना जा सकता है। बहरहाल, प्रस्तुत है, ये आध्यात्मिक ग़ज़ल-

अगर है शौक मिलने का, तो हरदम लौ लगाता जा,
जलाकर ख़ुदनुमाई को, भसम तन पर लगाता जा।

पकड़कर इश्क की झाड़ू, सफा कर हिज्र-ए-दिल को,
दुई की धूल को लेकर, मुसल्ले पर उड़ाता जा।

मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त फरिश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।

न मर भूखा, न रख रोज़ा, न जा मस्जिद, न कर सज्दा,
वजू का  तोड़  दे  कूजा, शराबे  शौक  पीता  जा।

हमेशा खा, हमेशा पी, न गफलत से रहो एकदम
नशे में सैर कर अपनी, ख़ुदी को तू जलाता जा।

न हो मुल्ला, न हो बह्मन, दुई की छोड़कर पूजा,
हुकुम शाहे कलंदर का, अनल हक तू कहाता जा।

कहे ‘मंसूर‘ मस्ताना, ये मैंने दिल में पहचाना,
वही मस्तों का मयख़ाना, उसी के बीच आता जा।

संत गंगादास

महाकवि संत गंगादास का जन्म ई. सन् 1823 में मेरठ जनपद के रसूलपुर गांव में हुआ था। इनका परिवार अत्यंत संपन्न था। उस समय इनके पिता के पास 600 एकड़ जमीन थी। किंतु परिवार से विरक्ति के कारण 12 वर्ष की उम्र में ही इन्होंने बाबा विष्णुदास उदासी से शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में संत गंगादास और उनके शिष्यों का उल्लेखनीय योगदान रहा।

संत गंगादास ने 25 से अधिक काव्य ग्रंथों और सैकड़ों स्फुट पदों का सृजन कर भारतेंदु हरिश्चंद्र के बहुत पहले खड़ी बोली को साहित्यिक भाषा का दर्जा दिया। इनके द्वारा रचित प्रमुख कथा-काव्य इस प्रकार हैं- पार्वती मंगल, नल दमयंती, नरसी भगत, ध्रुव भक्त, कृष्ण जन्म, नल पुराण, राम कथा, नाग लीला, सुदामा चरित, महाभारत पदावली, बलि के पद, रुक्मणी मंगल, भक्त प्रहलाद, चंद्रावती नासिकेत, भ्रमर गीत मंजरी, हरिचंद होली, हरिचंद के पद, गिरिराज पूजा, होली पूरनमल, पूरनलाल के पद, द्रौपदी चीर आदि।

संत गंगादास का देहावसान 90 वर्ष की आयु में भाद्रपद कृष्ण 8 वि. संवत 1970 तदनुसार ई. सन् 1913 को हुआ। इनकी समाधि रसूलपुर गांव के निकट चोपला में स्थित है।

प्रस्तुत है, संत गंगादास की दो कुंडलियां-

1.
बोए पेड़ बबूल के, खाना चाहे दाख,
ये गुन मत परगट करे, मन के मन में राख।
मन के मन में राख, मनोरथ झूठे तेरे,
ये आगम के कथन, कभी फिरते न फेरे।
गंगादास कह मूढ़, समय बीती जब रोए,
दाख कहां से खाय, पेड़ कीकर के बोए।


2.
जे पर के अवगुण लखे, अपने राखे गूढ़, 
सो भगवत के चोर हैं, मंदमती जड़ मूढ़।
मंदमती जड़ मूढ़, करे निंदा जो पर की,
बाहर भरमें फिरे, डगर भूले निज घर की।
गंगादास बेगुरु पते पाए न घर के,
वो पगले हैं आप, पाप देखें जो पर के।


संत नागरीदास


राजपाट छोड़कर सन्यास ग्रहण करने वाली विभूतियों में संत नागरी दास जी का नाम अग्रगण्य है। आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व राजस्थान के किशनगढ़ राज्य के राजा सावंतसिंह ने वैराग्य ग्रहण कर शेष जीवन ईश्वरभक्ति और काव्य सृजन में व्यतीत किया था। 
इनका जन्म वि. सं. 1756, पौष कृष्ण 13 को हुआ था। गुरु श्री वृंदावनदेवाचार्य से इन्होंने दीक्षा प्राप्त की। गुरु की प्रेरणा से वि. सं. 1780 में संत नागरी दास जी ने सर्वप्रथम मनोरथ मंजरी नामक ग्रंथ की रचना की। इसके पश्चात आने वाले वर्षों में उन्होंने अनेक काव्यग्रंथों की रचना की, जिनमें से प्रमुख ये हैं- रसिक रत्नावली, विहार चंद्रिका, निकुंज विलास, ब्रजयात्रा, भक्तिसार, पारायणविधिप्रकाश, कलिवैराग्यलहरी, गोपीप्रेमप्रकाश, ब्रजबैकुंठतुला, भक्तिमगदीपिका, फागविहार, युगलभक्तिविनोद, बालविनोदन, वनविनोद, सुजनानंद, तीर्थानंद और वनजनप्रशंसा। इन सभी ग्रंथों का संकलन ‘नागर समुच्चय‘ नाम से प्रकाशित हो चुका है।
संत नागरी दास जी ने वि. सं. 1821 में वृंदावन में मुक्ति प्राप्त की।

प्रस्तुत हैं, संत नागरी दास जी के कुछ नीतिपरक दोहे-

जहां कलह तहं सुख नहीं, कलह सुखनि कौ सूल,
सबै कलह इक राज में, राज कलह कौ मूल।


दिन बीतत दुख दुंद में, चार पहर उत्पात,
बिपती मरि जाते सबै, जो होती नहिं रात।


मेरी मेरी करत क्यों, है यह जिमी सराय,
कइ यक डेरा करि गए, कई किए कनि आय।


द्रुम दौं लागैं जात खग, आवैं जब फल होय,
संपत के साथी सबै, बिपता के नहिं कोय।


नीको हू लागत बुरा, बिन औसर जो होय,
प्रात भई फीकी लगै, ज्यों दीपक की लोय।


शत्रु कहत शीतल वचन, मत जानौ अनुकूल,
जैसे मास बिसाख में, शीत रोग कौ मूल।


काठ काठ सब एक से, सब काहू दरसात,
अनिल मिलै जब अगर कौ, तब गुन जान्यो जात।

स्वामी रामतीर्थ


                   कौन थे वे ?

‘मेरे लिए तो वृक्ष की छाया मकान का काम दे सकती है,राख मेरी पोशाक का, सूखी धरती मेरे बिस्तर का और दो-चार घरों से मांगी रोटी मेरे भोजन का।‘
उक्त बातें मिशन कॉलेज लाहौर के गणित के एक प्रोफेसर ने सन् 1896 में एक पत्र में लिखी थी। ....कौन थे वे ?
एक बार उनका नाम प्रांतीय सिविल सेवा के लिए प्रस्तावित किया गया तो उन्होंने अस्वीकार कर दिया। नौकरी छोड़कर उर्दू में ‘अलिफ‘ नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। विभिन्न तीर्थों की यात्राएं कीं। भारतीय और पाश्चात्य दर्शन ग्रंथों का अध्ययन किया। द्वारकापीठ के शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आए।
........कौन थे वे ?
सन् 1900 ई. में तीर्थयात्रा के दौरान अपने पास की सारी संपत्ति गंगा में बहा दी।
पत्नी को परिजनों के सहारे छोड़कर सन्यास ग्रहण किया और हिमालय की शरण में चले गए। सर्वधर्म सम्मेलन में व्याख्यान देने अमेरिका और जापान की यात्राएं कीं।.....कौन थे वे ?
अनेक लेखों-व्याख्यानों के अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी में 100 और उर्दू में 150 कविताएं लिखीं। संयोग देखिए- 22 अक्टूबर, 1873 ई. को दीपावली के दिन पंजाब के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला गांव में उनका जन्म हुआ और 17 अक्टूबर, 1906 ई. को दीपावली के ही दिन मात्र 33 वर्ष की आयु में उन्होंने गंगा में जल समाधि ग्रहण कर ली।......कौन थे वे ?
वे महान विभूति थे- प्रसिद्ध विद्वान, संत, दार्शनिक, गणितज्ञ, और कवि स्वामी रामतीर्थ।

प्रस्तुत है, उर्दू में उनकी एक दार्शनिक भावों वाली कविता-

जब उमड़ा दरिया उल्फ़त का, हर चार तरफ आबादी है।
हर रात नई इक शादी है, हर रोज मुबारकबादी है।
ख़ुश ख़ंदा है रंगा गुल का, ख़ुश शादी शाह मुरादी है।
बन सूरज आप दरफ़्शां है, ख़ुद जंगल है,ख़ुद वादी है।
नित राहत है, नित फ़र्हत है, नित रंग नए, आजादी है।


हर रग रेशे में हर मू में, अमृत भर-भर भरपूर हुआ।
सब कुल्फ़त दूरी दूर हुई, मन शादी मर्ग से चूर हुआ।
हर बर्ग बधाइयां देता है, हर जर्रा-जर्रा तूर हुआ।
जो है सो है अपना मजहर, ख़्वाह आबी नारी बादी है।
क्या ठंडक है, क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


रिमझिम रिमझिम आंसू बरसें, यह अब्र बहारें देता है।
क्या खूब मजे की बारिश में, वह लुत्फ़ वस्ल का लेता है।
किश्ती मौजों में डूबे हैं, बदमस्त उसे कब खेता है।
यह गर्क़ाबी है जी उठना, मत झिझको उफ बरबादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


मातम, रंजूरी, बीमारी, गलती, कमजोरी, नादारी।
ठोकर ऊंचा नीचा मिहनत, जाती है इन पर जां वारी।
इन सब की मददों के बाइस, चश्मा मस्ती का है जारी।
गुम शीर की शीरीं तूफों में, कोह और तेशा फरहादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


इस मरने में क्या लज़्ज़त है, जिस मुंह की चाट लगे इसकी।
थूके हैं शाहंशाही पर, सब नेमत दौलत हो फीकी।
मय चहिए दिल सिर दे फूंको,और आग जलाओ भट्ठी की।
क्या सस्ता बादा बिकता है, ले लो का शोर मुनादी है।
क्या ठंडक है क्या राहत है, क्या शादी है, आजादी है।


दिन शब का झगड़ा न देखा, गो सूरज का चिट्ठा सिर है।
जब खुलती दीद-ए-रौशन है,हंगामा-ए-ख़्वाब कहां फिर है।
आनंद सरूर समंदर है, जिसका आगाज़ न आख़िर है।
सब राम पसारा दुनिया का, जादूगर की उस्तादी है।
नित राहत है नित फ़र्हत है, नित रंग नए, आजादी है।

संत ललित किशोरी


(हमारे देश में ऐसा भी समय था जब लोग लाखों-करोड़ों की पैतृक संपत्ति को त्याग कर सन्यासी बन जाया करते थे और आज का समय है जब लोग तथाकथित सन्यासी बन कर करोड़ों-अरबों की संपत्ति एकत्रित करने में लगे रहते हैं।)



संत ललित किशोरी का जन्म समय अज्ञात है किंतु ये भारतेंदु हरिश्चंद्र के समकालीन थे। लखनउ के प्रसिद्ध जौहरी शाह गोविंद दास के दो पुत्र हुए, शाह कुंदनलाल और शाह फुंदनलाल।  संवत 1913 विक्रमी में दोनों भाई लखनउ छोड़कर वृंदावन चले आए और भगवद्भक्ति में लीन हो गए। शाह कुंदन लाल ललित किशोरी के नाम से और शाह फुंदन लाल ललित माधुरी के नाम से भक्तिपदों की रचना करने लगे। इन्होंने लगभग दस हजार पदों की रचना की। ललित किशोरी जी का देहावसान कार्तिक शुक्ल 2, संवत 1930 विक्रमी को हुआ।

प्रस्तुत है, ललित किशोरी जी का एक पद-

दुनिया के परपंचों में हम, मजा कछू नहिं पाया जी,
भाई बंधु पिता माता पति, सब सों चित अकुलाया जी।
छोड़ छाड़ घर गांव नांव कुल, यही पंथ मन भाया जी,
ललित किशोरी आनंदघन सों, अब हठि नेह लगाया जी।


क्या करना है संतति संपति, मिथ्या सब जग माया है,
शाल दुशाले हीरा मोती, में मन क्यों भरमाया है।
माता पिता पती बंधू सब, गोरखधंध बनाया है,
ललित किशोरी आनंदघन हरि, हिरदे कमल बसाया है।


बन बन फिरना बिहतर हमको, रतन भवन नहिं भावे है,
लता तरे पड़ रहने में सुख, नाहिन सेज सुहावे है।
सोना कर धरि सीस भला अति, तकिया ख्याल न आवे है,
ललित किशोरी नाम हरी का, जपि जपि मन सचि पावे है।


तजि दीनो जब दुनिया दौलत, फिर कोइ के घर जाना क्या,
कंद मूल फल पाय रहें अब, खट्टा मीठा खाना क्या।
छिन में साही बकसैं हमको, मोती माल खजाना क्या,
ललित किशोरी रूप हमारा, जानैं ना तहं जाना क्या।


अष्टसिद्धि नवनिद्धि हमारी, मुट्ठी में हरदम रहती,
नहीं जवाहिर सोना चांदी, त्रिभुवन की संपति चहती।
भावे न दुनिया की बातें, दिलबर की चरचा सहती,
ललित किशोरी पार लगावे, माया की सरिता बहती।

संत बुल्लेशाह


ना मैं मुल्ला ना मैं काजी



                                       लाहौर जिले के पंडील गांव में विक्रम संवत 1737 में संत बुल्लेशाह का जन्म हुआ। इनके पिता शाह मुहम्मद दरवेश अरबी तथा फारसी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। बुल्लेशाह पहले साधु दर्शनीनाथ के संपर्क में रहे और फिर इनायत शाह के संपर्क में आ गए। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे और कुसूर नामक स्थान में निवास करते हुए सदैव अपनी साधना में लीन रहे। इस्लाम और सूफी धर्म -शिक्षा, धर्म-ग्रंथों के व्यापक और गहन अध्ययन से बुल्लेशाह में जहां गहन संस्कारों का प्रभाव पड़ा, वहां परमात्मा को पाने की अपूर्व लौ भी लग गई।
                                     संत बुल्लेशाह की विचारधारा, सूफीमत की ही भांति, वेदांत से भी बहुत कुछ प्रभावित थी। कबीर साहब के समान विचार की स्वतंत्रता में इनकी आस्था थी। उन्ही की भांति ये बाह्याडंबर के कट्टर विरोधी थे। इनकी धारणा थी कि मंदिर -मस्जिद में प्रेमरूपी परमात्मा का निवास होना असंभव है। इनके अनुसार सरलहृदय होना तथा अहंकार का परित्याग सबसे अधिक आवश्यक है। ये अपना काफिर होना स्वीकार करते थे। इनका देहावसान विक्रम संवत 1810 में हुआ। कसूर के निकट पांडोके नामक गांव में इनकी मजार है जहां प्रतिवर्ष उर्स लगता है।

प्रस्तुत है, संत बुल्लेशाह का एक पद-

टुक बूझ कौन छप आया है।
इक नुकते में जो फेर पड़ा, तब ऐन गैन का नाम धरा।
जब मुरसिद नुकता दूर कियो, तब ऐनो ऐन कहाया है।
तुसीं इल्म किताबा पढ़दे हो, केहे उलटे माने करते हो।
वे मुजब ऐबें लड़दे हो, केहा उलटा बेद पढ़ाया है।
दुइ दूर करो कोई सोर नहीं, हिंदू तुरक कोई होर नहीं।
सब साधु लखो कोइ चोर नहीं, घट घट में आप समाया है।
ना मैं मुल्ला ना मैं काजी, ना मैं सुन्नी ना मैं हाजी।
बुल्लेशाह नाल जाइ बाजे, अनहद सबद बजाया है।

भावार्थ-
जरा देखो, अगोचर वेश में कौन आया है। जिस प्रकार अरबी के एक अक्षर ऐन में एक नुकता या बिंदु लगा देने से वह गैन बन जाता है, उसी प्रकार पूर्ण परमात्मा भी केवल नाम-रूप की उपाधि के कारण सीमित जान पड़ता है। सतगुरु ने यह भ्रम दूर किया। तुम ज्ञान और धर्मशास्त्र की किताबें पढ़ते हो और उलटे अर्थ लगाकर आपस में लड़ते हो। हिंदू और तुर्क भिन्न नहीं हैं, दोनों में परमात्मा का वास है। इसलिए सभी साधु हैं। मैं मुल्ला, काजी, सुन्नी या हाजी नहीं हूं। बुल्लेशाह कहते हैं कि मेरे निकट तो केवल उस परमात्मा का अनहद नाद ही सुनाई देता है।

नारायण स्वामी


दो दिन कौ मेहमान



नारायण स्वामी का जन्म विक्रम संवत 1886 में रावलपिंडी में हुआ। ये बाल्यावस्था से ही संतों और भगवद्भक्तों में विशेष रुचि रखते थे। संवत 1900 में ये वृंदावन की यात्रा के लिए निकले और वहीं रहने लगे। जीविका निर्वाह के लिए लालबाबू के मंदिर के कार्यालय में नौकरी कर ली। दिन भर काम करते और रात को मंदिरों में जाकर श्रीकृष्ण के दर्शन करते तथा पद रचना करते। 
नारायण स्वामी प्रायः केशीघाट पर खपटिया बाबा के घेरे में यमुना तट पर रहते थे। वृंदावन की रासमंडली में उनके पदों का गायन होता था। कुछ दिनों बाद उन्होंने नौकरी छोड़कर पूर्ण वैराग्य ले लिया। नारायण स्वामी ने ब्रज विहार नामक एक ग्रंथ की रचना की थी। उसमें भगवान की लीलाओं का श्रृगाररस से ओत-प्रोत सरस वर्णन हुआ है। उनके दोहे और पद बड़े ही उपदेशप्रद और सरल हैं। श्रीगोवर्धन के समीप फाल्गुन कृष्ण एकादशी संवत 1957 को उन्होंने देहत्याग किया।

प्रस्तुत है, नारायण स्वामी का एक पद-

मूरख, छांड़ि वृथा अभिमान।
औसर बीति चल्यौ है तेरो, दो दिन कौ मेहमान।
भूप अनेक भयो पृथ्वी पर, रूप तेज बलवान।
कौन बच्यो या काल ब्याल तें, मिट गए नाम निसान।
धवल धाम धन गज रथ सेना, नारी चंद्र समान।
अंत समै सब ही कों तजकै, जाय बसे समसान।
तजि सतसंग भ्रमत बिषयन में जा बिधि मरकट स्वान।
छिन भरि बैठि न सुमरनि कीन्हों, जासों होय कल्यान।
रे मन मूढ़ अनत जनि भटकै, मेरी कहो अब मान।
नारायण ब्रजराज कुंवर सों, बेगहि करि पहिचान।


भावार्थ-
अरे मूर्ख मन, तू व्यर्थ का अभिमान त्याग दे। तेरा समय बीत चुका है, इस संसार में अब तू केवल दो दिन का मेहमान है। इस पृथ्वी पर रूप, तेज और बलयुक्त अनेक राजा हुए किंतु सब काल के गाल में समा गए। धन, संपत्ति, रथ सेना आदि को अंतिम समय में छोड़कर श्मशान में जाना पड़ा। जैसे कुत्ता मरे हुए जीवों के आस-पास विचरण करता है, उसी तरह तू सतसंग को छोड़कर विषयों में भटक रहा है। कुछ क्षण बैठ कर हरि को स्मरण नहीं करता जिससे तेरा कल्याण होगा। अब और मत भटक, श्रीकृष्ण के साथ शीघ्र ही पहचान बना ले।

संत चरणदास




वि.सं. 1760 की भाद्रपद शुक्ल तृतीया, मंगलवार को मेवात के अंतर्गत डेहरा नामक स्थान में संत चरणदास का जन्म हुआ था। इनका पूर्व नाम रणजीत था। पांच-सात वर्ष की अवस्था में ही इन्हें कुछ आध्यात्मिक ज्ञान हो गया था। इनके गुरु का नाम शुकदेव था। संत चरणदास ने गुरु से दीक्षित होकर कुछ दिनों तक तीर्थाटन किया और बहुत दिनों तक ब्रजमंडल में रहकर श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया। इनके अंतिम 50 वर्ष अपने मत के प्रचार में ही बीते। इन्होंने सं. 1839 की अगहन सुदी 4 को दिल्ली में अपना देह त्याग किया।
संत चरणदास को ग्रंथ रचना का अच्छा अभ्यास था। इनके द्वारा रचित 21 ग्रंथों का पता चलता है। ये ग्रंथ मुंबई और लखनउ से प्रकाशित हो चुके हैं। इनके मुख्य 12 ग्रंथों के प्रधान विषय योग साधना, भक्तियोग एवं ब्रह्म ज्ञान है। ये नैतिक शुद्धता के पूर्ण पक्षधर है और चित्त शुद्धि, प्रेम, श्रद्धा एवं सद्व्यवहार को उसका आधार मानते हैं। इनकी रचनाओें में इनकी स्वानुभूति के साथ-साथ अध्ययनशीलता का भी परिचय मिलता है।
प्रस्तुत है, संत चरणदास का एक पद-

साधो निंदक मित्र हमारा।
निंदक को निकटे ही राखो, होन न देउं नियारा।
पाछे निंदा करि अब धोवै, सुनि मन मिटै विकारा।
जैसे सोना तापि अगिन में, निरमल करै सोनारा।
घन अहिरन कसि हीरा निबटै, कीमत लच्छ हजारा।
ऐसे जांचत दुष्ट संत को, करन जगत उजियारा।
जोग-जग्य-जप पाप कटन हितु, करै सकल संसारा।
बिन करनी मम करम कठिन सब, मेटै निंदक प्यारा।
सुखी रहो निंदक जग माहीं, रोग न हो तन सारा।
हमरी निंदा करने वाला, उतरै भवनिधि प्यारा।
निंदक के चरनों की अस्तुति, भाखौं बारंबारा।
चरनदास कह सुनियो साधो, निंदक साधक भारा।


भावार्थ-
हे साधक, निंदा करने वाला तो हमारा मित्र है, उसे अपने पास ही रखो, दूर मत करो। भले ही वह निंदा करता है लेकिन उसे सुनकर हमारे मन के विकार नष्ट हो जाते हैं। जैसे सुनार सोने को आग में तपा कर और जौहरी हीरे को कठोर कसौटी में कसता है जिससे उसकी कीमत लाखों हजारों हो जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग जगत में प्रकाश फैलाने के लिए संतो की परख करते हैं। पूरा संसार योग, यज्ञ जप आदि से अपने पापों के नाश का उपाय करते हैं लेकिन बिना कुछ प्रयास किए मेरे कुटिल कर्मों को निंदक मिटा देता है। इस संसार में निंदक सुखी रहें, उन्हें कोई रोग न हो, उसे भवसागर से मुक्ति मिले। मैं उसके चरणों की वंदना करता हूं। चरणदास जी कहते हैं कि साधक के लिए निंदक महत्वपूर्ण है।

संत ज्ञानेश्वर






मराठी भाषा की गीता माने जानी वाली ‘ज्ञानेश्वरी‘ के रचयिता संत ज्ञानेश्वर महान संत गोरखनाथ की परम्परा में हुए। इनका जन्म सन 1275 ई. माना जाता है। जन्मस्थान आलंदी ग्राम है जो महाराष्ट्र् के पैठण के निकट है। इनके तिा का नाम विट्ठल पंत था। अपने बड़े भाई ग्यारह वर्षीय निवृत्तिनाथ से आठ वर्षीय ज्ञानेश्वर ने दीक्षा ली और संत बन गए। नाथपंथी, हठयोगी होते हुए, वेदांत के प्रखर विद्वान होने के बावजूद भक्ति के शिखर को छूने वाले संत ज्ञानेश्वर ने चार पुरुषार्थों के अतिरिक्त भक्ति को पांचवे पुरुषार्थ के रूप में स्थापित किया।
संत ज्ञानेश्वर, जो ज्ञानदेव के नाम से भी विख्यात हैं, वारकरी संप्रदाय के प्रवर्तक थे। वारकरी का अर्थ है- यात्रा करने वाला। संत ज्ञानेश्वर सदा ही यात्रारत रहे। इन्होंने उज्जयिनी, काशी, गया, अयोध्या, वृंदावन, द्वारिका,पंढरपुर आदि तीर्थों की यात्राएं कीं। ज्ञानेश्वरी के पश्चात अपने गुरु की प्रेरणा से अपने आध्यात्मिक विचारों को आकार देते हुए एक स्वतंत्र ग्रंथ ‘अमृतानुभव‘ की रचना की। इस ग्रंथ में 806 छंद हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित अन्य ग्रंथ चांगदेवपासष्टी, हरिपाठ तथा योगवशिष्ठ टीका है।
तीर्थयात्रा से लौटकर संत ज्ञानेश्वर ने अपनी समाधि की तिथि निश्चित की। शक संवत 1218 कृष्णपक्ष त्रयोदशी, गुरुवार तदनुसार 25 अक्ठूबर 1296 को मात्र 22 वर्ष की अल्पायु में संत ज्ञानेश्वर ने आलंदी में समाधि ली।
प्रस्तुत है नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित उनका एक पद-


सोई कच्चा वे नहिं गुरु का बच्चा।
दुनिया तजकर खाक रमाई, जाकर बैठा बन मा।
खेचरी मुद्रा बज्रासन मा, ध्यान धरत है मन मा।
तीरथ करके उम्मर खोई, जागे जुगति मो सारी।
हुकुम निवृति का ज्ञानेश्वर को, तिनके उपर जाना।
सद्गुरु की जब कृपा भई तब, आपहिं आप पिछाना।


भावार्थ-
बाह्याचरण, सन्यास लेकर, शरीर पर राख मलकर, वन में वास करके और विभिन्न मुद्राओं में आसन लगाने से सच्चा वैराग्य उत्पन्न नही होता। ऐसे ही तीर्थों में जाकर स्नान पूजा करना भी व्यर्थ है। इस संसार में गुरु के आदेशों पर चलने से अध्यात्म सधता है और आत्म तत्व की पहचान होती है।

स्वामी रामानंद




रामभक्ति के आचार्य स्वामी रामानंद का जन्म विक्रम संवत 1356 में हुआ।
इनके पिता का नाम पुण्यसदन तथा माता का नाम सुशीला देवी था। रामानंद ने स्वामी राघवानंद से दीक्षा ली। गुरु से उन्हें विशिष्टाद्वैत के सिद्धांतों के साथ साथ समस्त शास्त्रों और तत्वज्ञान की भी शिक्षा मिली। रामानंद स्वामी का केन्द्रीय मठ वाराणसी में पंचगंगा घाट पर आज भी विद्यमान है। उन्होंने भारत के विभिन्न तीर्थों की यात्रा करके शास्त्रार्थ में विपक्षियों को परास्त किया और अपने मत का प्रचार किया। उनके प्रयत्न से ही देश भर में राम नाम की महिमा फैली। उन्होंने भक्ति आंदोलन में उत्तर और दक्षिण को जोड़ने के लिए एक पुल का काम किया। 
तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात गुरुभाइयों से मतभेद के कारण गुरु राघवानंद ने उन्हें नया सम्प्रदाय चलाने का परामर्श दिया। इस प्रकार रामानंद सम्प्रदाय का आरंभ हुआ। इस सम्प्रदाय का नाम श्री सम्प्रदाय या बैरागी सम्प्रदाय भी है। रामानंद ने उदार भक्ति का मार्ग दिखाया। उनके यहां भक्ति के द्वार सबके लिए खुले थे। कर्मकांड का महत्व इनके यहां बहुत कम था। स्वामी रामानंद के शिष्यों में अनंतानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास तथा पीपा जैसे संत भी सम्मिलित हैं। 
उनकी रचनाओं में कुछ संस्कृत की भी बताई जाती है। केवल दो का अभी तक हिंदी पदो ंके रूप में होना स्वीकार किया जाता है। इनमें से गुरुग्रंथ साहिब में केवल एक ही संग्रहीत है। प्रस्तुत है स्वामी रामानंद का एक पद-

कत जाइयो रे घर लागो रंगु,
मेरा चित न चलै मन भयो पंगु।
एक दिवस मन भयो उमंग,
घसि चोवा चंदन बहु सुगंध।
पूजन चाली ब्रह्म की ठाईं,
ब्रह्म बताइ गुरु मन ही माहिं।
जहं जाइए तहं जल पषान,
तू पूरि रहो है सब समान।
बेद पुरान सब देखे जोई,
उहां जाइ तउ इहां न होई।
सतगुरु मैं बलिहारी तोर।
रामानंद र्साइं रमत ब्रह्म,
गुरु सबद काटे कोटि करम।

भावार्थ-
कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है, परमतत्व की वास्तविक स्थिति का आनंद घर में ही प्राप्त हो गया। किंतु मेरा चित्त और मन नहीं मानता। एक दिन उमंग में चंदन आदि लगाकर पूजा के लिए मैं ईश्वर के स्थान पर गया किंतु गुरु ने बताया कि वह ब्रह्म तो मन में ही है। जल, थल सभी जगह वह परमतत्व समान रूप से उपस्थित है। सभी शास्त्रों को विचारपूर्वक देखने से ज्ञात हुआ कि वह तो यहीं, मन में है। हे सतगुरु, आपने मेरी सारी विकलता और भ्रम को दूर किया। ब्रह्म में रमण करने वाले गुरु के उपदेश से सारे कर्मों का विनाश हो जाता है।

संत सुंदरदास

सावधान क्यूं न होई



संत सुंदरदास, संत दादू दयाल के योग्यतम शिष्यों में से एक थे। इनका जन्म जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी दौसा नगर में विक्रम संवत 1653 की चैत्र सुदी 9 को हुआ था। इनके जन्म स्थान का खंडहर आज भी विद्यमान है। इनके पिता का नाम परमानंद तथा माता का नाम सती था। दादू जी की संवत 1658 में दौसा यात्रा के दौरान इनके पिता ने इन्हें दादू जी के चरणों में डाल दिया था। तभी से ये निरंतर दादू जी के सान्निध्य में रहते थे। दादू जी ने सुंदरदास को विद्योपार्जन के लिए काशी भेजा जहां 14 वर्षों तक इन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। अनेक वर्षों तक योगाभ्यास भी किया। आपने संपूर्ण भारत का भ्रमण करते हुए काव्य सृजन किया। 
संत सुंदरदास ने कुल 42 ग्रंथों की रचना की जिनका संग्रह सुंदर ग्रंथावली के नाम से प्रकाशित हो चुका है। इनके दो बड़े ग्रंथ ज्ञान समुद्र और सुंदर विलास हैं। जिनमें से प्रथम में मुख्यतया नवधाभक्ति, अष्टांग योग, सांख्य और अद्वैत मत का पांडित्यपूर्ण विवेचन है तथा द्वितीय में 563 छदों द्वारा अन्य विषयों का प्रतिपादन हुआ है। दार्शनिक विषयों का समावेश होते हुए भी इनके ग्रंथों में भाषा एकाधिकार एवं काव्य कौशल के कारण सहज रोचकता है। इनका देहावसान विक्रम संत 1746 में सांगानेर में हुआ।
प्रस्तुत है संत सुंदरदास जी की एक रचना-

बार बार कह्यो तोहि, सावधान क्यूं न होइ,
ममता की मोट काहे, सिर को धरतु है।
मेरो धन मेरो धाम, मेरो सुत मेरी बाम,
मेरे पसु मेरे गाम, भूल्यो ही फिरतु है।
तू तो भयो बावरो, बिकाइ गई बुद्धि तेरी,
ऐसो अंधकूप गेह, तामे तू परतु है।
सुंदर कहत तोहि, नेकहु न आवे लाज,
काज को बिगार कै, अकाज क्यों करतु है।

भावार्थ-तुझे बार-बार समझाया गया किंतु तू सावधान क्यों नहीं होता। मोह-माया का बोझ अपने सिर पर ढो रहा है। मेरा धन, मेरा महल, मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरे पशु, मेरा गांव कहते हुए भ्रम में पड़ा हुआ है। तू बावला हो गया है, तेरी बुद्धि नष्ट हो चुकी है जो इस प्रकार संसार रूपी अंधेरे कुंए में गिर गया है। मोह-माया के बंधन को त्याग, इस कार्य को बिगाड़ कर अकार्य क्यों कर रहा है ?

संत पीपा जी

जो खोजै सो पावै




राजस्थान में गागरोनगढ़ का गढ़ झालावाड़ से कुछ दूरी पर है। यहां एक शूरवीर शक्तिशाली राजा हुए जिनका नाम था, प्रतापराय। विक्रम संवत 1380 में इनका जन्म हुआ। ये 52 गढ़ों के एकछत्र शासक थे। फिरोजशाह तुगलक की सेना को पराजित करने वाले प्रतापी राजा प्रतापराय इतना सब होते हुए भी भक्ति एवं साधना के लिए कुछ समय निकालकर परमात्मा का ध्यान व स्मरण करते रहते थे। इसे वह परमात्मा की कृपा मानते और संतों की सेवा के लिए तथा प्रजा की भलाई के लिए सदैव दत्तचित्त रहते।
स्वामी रामानंद से उन्होंने गुरुदीक्षा ली। एक बार स्वामी रामानंद संत कबीर, संत रैदास तथा अन्य कई शिष्यों के साथ गागरोन आए। राजा प्रताप राय ने उनका भव्य स्वागत किया। गुरु रामानंद ने अपने शिष्य राजा प्रतापराय को यहीं मंत्र देकर उपदेश दिया -‘‘हे शिष्य, तू लोक हित के लिए प्रेम रस ‘पी‘ और दूसरों को भी ‘पा‘ अर्थात पिला।‘‘ बस इसी उपदेश के दो अक्षरों ‘पी‘ और ‘पा‘ को जोड़कर राजा प्रताप राय ने अपने जीवन का मुक्ति सूत्र बना लिया और अपना नाम ही ‘पीपा‘ रख लिया। उसके बाद वे संत पीपा के नाम से विख्यात हो गए। इनकी वाणियों की दो हस्तलिखित प्रतियां द्वारिका के एक मठ में उपलब्ध हैं।
गुरुग्रंथ साहिब में संकलित संत पीपा जी के निम्नलिखित पद में उनके दार्शनिक विचारों का परिचय मिलता है-

काया देवा काया देवल, काया जंगम जाती।
काया धूप दीप नइबेदा, काया पूजा पाती।
काया के बहुखंड खोजते, नवनिधि तामें पाई। 
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो, राम जी की दुहाई।
जो ब्रह्मंडे सोई पिंडे, जो खोजे सो पावे।
पीपा प्रणवै परम तत्त है, सतगुरु होय लखावै।

भावार्थ-
इस देह के भीतर ही सच्चा देवता स्थित है। इस देह में ही हरि और उसका मंदिर है। यह देह ही चेतन यात्री है। यह देह ही धूप दीप प्रसाद हैं तथा यही फूल और पत्ते हैं। जिस नौ निधि को विभिन्न स्थानों पर खोजते हैं वह भी इसी देह में है। आववागमन से परे अविनाशी तत्व भी इसी देह में है। जो समस्त ब्रह्मांड में है वह सब इस देह में भी है। सतगुरु की कृपा से उस परम तत्व के दर्शन हो सकते हैं।

संत दरिया साहेब

दुनिया भरम भूल बौराई




                    मारवाड़ प्रदेश के जैतारन गांव में संत दरिया साहेब का जन्म संवत 1733 में हुआ था। इनके समसामयिक एक अन्य संत दरिया भी थे जो दरिया साहेब बिहार वाले के नाम से प्रसिद्ध हैं। यहां आज हम दरिया साहेब मारवाड़ वाले की चर्चा कर रहे हैं। अपने पिता का देहांत हो जाने के कारण ये परगना मेड़ता के रैनगांव में अपने मामा के यहां रहने लगे थे। इन्होंने संवत 1769 में बीकानेर प्रांत के खियानसर गांव के संत प्रेम जी से दीक्षा ग्रहण की थी। 
                    संत दरिया साहेब के अनुयायी इन्हें संत दादूदयाल का अवतार मानते हैं। इनकी वाणियों की संख्या एक हजार कही जाती है। इनकी रचनाओं का एक छोटा सा संग्रह प्रकाशित हुआ है जिससे इनकी विशेषताओं का कुछ पता चलता हे। इनके पदों एवं साखियों के अंतर्गत इनकी साधना संबंधी गहरे अनुभवों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इनका हृदय बहुत ही कोमल और स्वच्छ था। इनकी भाषा पर इनके प्रांत की बोलियों का अधिक प्रभाव नहीं है। अपने पदों में अनेक स्थानों पर इन्होंने स्त्रियों की महत्ता व्यक्त की है।
प्रस्तुत है, संत दरिया साहेब मारवाड़ वाले का एक पद-

संतो क्या गृहस्थ क्या त्यागी।
जेहि देखूं तेहि बाहर भीतर, घट-घट माया लागी।
माटी की भीत पवन का खंबा, गुन अवगुन से छाया।
पांच तत्त आकार मिलाकर, सहजैं गिरह बनाया।
मन भयो पिता मनस भइ माई, सुख-दुख दोनों भाई।
आसा तृस्ना बहनें मिलकर, गृह की सौज बनाई।
मोह भयो पुरुष कुबुद्धि भइ धरनी, पांचो लड़का जाया।
प्रकृति अनंत कुटुंबी मिलकर, कलहल बहुत मचाया।
लड़कों के संग लड़की जाई, ताका नाम अधीरी।
बन में बैठी घर घर डोलै, स्वारथ संग खपी री।
पाप पुण्य दोउ पार पड़ोसी, अनंत बासना नाती।
राग द्वेष का बंधन लागा, गिरह बना उतपाती।
कोइ गृह मांड़ि गिरह में बैठा, बैरागी बन बासा।
जन दरिया इक राम भजन बिन,घट घट में घर बासा।

भक्त नरसी मेहता

वैष्णव जन तो तेने कहिए


गुजरात के प्रसिद्ध भक्त कवि संत नरसी मेहता का जन्म सौराष्ट्र् के पूर्वी भाग के तलाजा गांव में सन् 1414 ई. को हुआ। इनके पिता का नाम कृष्णदास था। ये बचपन से ही भक्तिभाव में लीन रहते थे। उनका सारा व्यक्तित्व ही भक्तिभाव से ओत-प्रोत था। इनका विवाह माणिक बेन से हुआ। इनके पुत्र का नाम श्यामल तथा कन्या का नाम कुंवर था। 
नरसी मेहता मध्यकालीन गुजराती साहित्य के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय संतकवि माने जाते हैं। इनकी रचनाओं में हारमाला, श्रृंगारमाला, सामलशाह का विवाह, रामसहस्रपदी, चातुरी, सुदामा चरित, हुंडी और भामेरू विशेष महत्वपूर्ण है। श्रृंगारमाला के 740 पदों में श्रीकृष्ण के प्रति माधुर्य भावना व्यक्त की गई है। उन्होंने प्रभातियां नाम से प्रातःकालीन गाए जाने वाले भक्तिगान रचे हैं जो बहुत ही लोकप्रिय हुए। उनके संबंध में गुजराती के प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैया लाल मुंशी ने लिखा है-‘‘भले ही उनमें मीरा की कोमलता, सूर की गहनता, और तुलसी का पांडित्य नहीं है किंतु उन्होंने अपने युग की निर्जीव परंपराओं को तोड़ा है। नरसी भक्त, कवि और आर्य संस्कृति के मूर्तरूप हैं। गुजराती साहित्य में अद्वितीय हैं और न जाने कितने परवर्ती भक्त कवियों के प्रेरणास्रोत। नरसी गुजराती काव्य के सिरमौर है।‘‘
सन् 1480 में एक दिन नरसी मेहता ने अपने अंतरंग भक्तों को पास बुलाया और बोले मेरे तिरोधान का निर्दिष्ट लग्न समागत है। तुम सभी इस अंतिम समय में मेरे साथ मिल कर गाओ। अपने द्वारा रचित एक पद का गायन सुनते सुनते भावावेश में संतप्रवर ने इस धराधाम को सर्वदा के लिए त्याग दिया।
प्रस्तुत है भक्त नरसी मेहता द्वारा रचित एक लोकप्रिय पद जो गांधीजी को भी प्रिय था-

वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे,
पर दुक्खे उपकार करे तोए, मन अभिमान न आए रे।
सकल लोक मा सहुने वंदे, निंदा न करे केनी रे,
वाच काछ मन निश्चल राखे, धन धन जननी तेरी रे।
समदृष्टि ने तृष्ना त्यागी, परस्त्री जेने मात रे,
जिव्हा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे।
मोह माया व्यापै नहिं जेने, दृढ़ वैराग्य जिन मन मा रे,
राम नाम सूं ताली लागी, सकल तीरथ तेना मन मा रे।
वणलोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे,
भणे नरसैयो तेनुं दरशन करना, कुल एकोत्तरे तारे रे।

संत दादूदयाल

वाद विवाद काहू सो नाहीं


दादूपंथ के प्रवर्तक संत दादूदयाल का स्थान संत साहित्य में बहुत उच्च है। इनका जन्म फाल्गुन शुक्ल पक्ष 2, वि.सं. 1601 को अहमदाबाद में हुआ था। ग्यारह वर्ष की आयु में इन्हें संत वृद्धानंद या बुड्ढन से दीक्षा प्राप्त हुई थी। तब से ये कुछ समय तक देशाटन, सत्संग, चिंतन-मनन,एवं कतिपय साधनाओं में लगे रहे। लगभग 30 वर्ष की अवस्था में ये सांभर नामक स्थान में आकर रहने लगे थे। वहां पर अपने उपलब्ध अनुभवों के आघार पर ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की जो आगे चलकर दादूपंथ के नाम से विख्यात हुआ। विवाहोपरांत इनके दो पुत्र हुए, गरीबदास और मिस्कीनदास, इनमें से गरीबदास प्रसिद्ध संत हुए। आमेर में रहते समय संत दादूदयाल को बादशाह अकबर ने आध्यात्मिक चर्चा के लिए सीकरी बुला भेजा। संवत् 1643 में उनका यह सत्संग 40 दिनों तक चला। 
दादूदयाल अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे किंतु इनकी आध्यात्मिक अनुभूति गहरी और सच्ची थी तथा उसे व्यक्त करने के लिए भाषा के प्रयोग में ये बड़े निपुण थे। इनके द्वारा रचित वाणियों को इनके शिष्यों ने हरडेवाणी नाम से प्रस्तुत किया। इनके प्रमुख शिष्य रज्जब ने अंगबंधु नाम से संशोधित संकलन प्रस्तुत किया। इस संग्रह में 37 अंगों में विभाजित साखियों की संख्या 2658 है और पदों की संख्या 445 है।
अपनी नम्रता, क्षमाशीलता एवं कोमल हृदयता के कारण ये दादू से दादूदयाल कहलाने लगे। सर्वव्यापक परमात्म तत्व के प्रति इनकी अविच्छिन्न विरहासक्ति ने इन्हें प्रेमोन्मक्त सा बना दिया था। इनका देहावसान ज्येष्ठ कृष्ण 8 संवत् 1660 में हुआ।
प्रस्तुत है दादूदयाल जी का एक पद-

भाई रे जैसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गहि पूरा, अवरण एक अधारा।
वाद विवाद काहू सो नाहीं, माहिं जगत से न्यारा।
सम दृष्टि सुभाई सहज मैं, आपहि आप विचारा।
मैं तैं मेरी यहु मत नाहीं, निरबैरी निरकारा।
पूरण सबै देखि आपा पर, निरालंब निरधारा।
काहू के संग मोह न ममता, संगी सिरजनहारा।
मन नहि मन सो समझ सयाना, आनंद एक अपारा।
काम कल्पना कदै न कीजै, पूरण ब्रह्म पियारा।
इहि पथ पहुंचि पार गहि दादू, सो तत सहजि संभारा।



द्वै पख रहित- हिंदू मुस्लिम दोनों संप्रदायों से निरपेक्ष