आत्मा का आहार


दुनिया कैसी हो गई, छोड़ें भी यह जाप,
सब अच्छा हो जायगा,खुद को बदलें आप।

दोष नहीं गुण भी जरा, औरों की पहचान,
अपनी गलती खोजिए, फिर पाएं सम्मान।

धन से यदि सम्पन्न हो, पर गुण से कंगाल,
इनका संग न कीजिए, त्याग करें तत्काल।

कवच नम्रता का पहन, को कर सके बिगार,
रुई कभी कटती नहीं, वार करे तलवार।

सद्ग्रंथों को जानिए, आत्मा का आहार,
मन के दोषों का करे, बिन औषध परिहार।

जो करता अन्याय है, वह करता अपराध,
पर सहना अन्याय का, वह अपराध अगाध।
                                                                        -महेन्द्र वर्मा

सोचिए ज़रा



कितनी लिखी गई किताब सोचिए ज़रा,
क्या मिल गए सभी जवाब सोचिए ज़रा।

काँटों बग़ैर ज़िंदगी कितनी अजीब हो,
अब खिलखिला रहे गुलाब सोचिए ज़रा।

ज़र्रा है तू अहम विराट कायनात का,
भीतर उबाल आफ़ताब सोचिए ज़रा।

चले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
तकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
 

दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
उसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा


                                                    -महेन्द्र वर्मा