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जिज्ञासा और तर्क - मनुष्य के धर्म



 

मनुष्य और अन्य प्राणियों में महत्पूर्ण अंतर यह है कि मनुष्य में सोचने, तर्क करने और विकसित भाषा का प्रयोग करने की क्षमता होती है । शेष कार्य तो सभी प्राणी न्यूनाधिक रूप से करते ही हैं । उक्त विशेष गुणों के कारण ही मनुष्य में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है । 16 वीं शताब्दी के फ्रांसीसी गणितज्ञ-दार्शनिक रेने दकार्त का प्रसिद्ध वाक्य है- ‘‘मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ ।’’ दकार्त को सबसे पहले स्वयं के अस्तित्व के संबंध में ही जिज्ञासा हुई । उसने कहा कि चूँकि में सोच सकता हूँ, तर्क कर सकता हूँ इसलिए बिना संदेह के मेरा अस्तित्व है । इस कथन में यह तात्पर्य भी छिपा हुआ है कि यदि कोई मनुष्य तर्क नहीं करता, जिज्ञासा नहीं करता, सोचता नहीं है तो उसे अपने मनुष्य होने पर संदेह करना चाहिए ।
 

मनुष्य जब अपने विकास की प्रारंभिक अवस्था में था तब उसकी बुद्धि विकसित चौपायों से किंचित ही अधिक थी । समय के साथ-साथ प्रकृति के नियमों के आधार पर मनुष्य के शरीर और बुद्धि में विकास हुआ फलस्वरूप भावनाओं का भी विकास हुआ । अब वह प्राकृतिक  और घटनाओं को देख कर आश्चर्यचकित और भयभीत भी होने लगा । बुद्धि का जब और विकास हुआ तब मनुष्य में  जो एक नई प्रवृत्ति जागृत हुई वह थी जिज्ञासा, प्रकृति में हो रही विभिन्न घटनाओं को और अधिक जानने-समझने की जिज्ञासा, कार्य के पीछे छिपे कारण को जानने की जिज्ञासा । इस जिज्ञासा को प्रेरित किया आश्चर्य और भय ने । यहीं से शुरुआत होती है मनुष्य की चिंतन-प्रक्रिया और उसके द्वारा किए जाने वाले आविष्कारों की । पत्थर का औजार मनुष्य द्वारा आविष्कृत और निर्मित पहला जीवनोपयोगी साधन या ‘यंत्र’ था । इस साधन के निर्माण में केवल जिज्ञासा का योगदान नहीं था बल्कि बुद्धि का एक और गुण ‘तर्क’ का भी योगदान था । फिर तो हज़ारों-लाखो वर्षों की अवधि में मनुष्य ने जिज्ञासा और तर्क के सहारे तीर-कमान, आग, नाव, पहिया, झोपड़ी, वस़्त्र, कृषि, वाद्ययंत्र, भाषा आदि से लेकर कृष्ण विवर, ईश्वरीय कण, तंतु सिद्धांत, जीनोम, कृत्रिम बौद्धिकता आदि तक की खोज कर ली।
 

यह स्वयंसिद्ध है कि सभी मनुष्यों में जिज्ञासा और तर्क की क्षमता एक समान नहीं होती । आदिम मनुष्यों में से कुछ की जिज्ञासा और तार्किक क्षमता ने खोज और आविष्कार की बजाय एक अलग रास्ते का वरण किया । प्राकृतिक घटनाओं से वे भी चकित और भयभीत हुए । उन्होंने भी ‘कार्य और कारण’ के संबंध में ही विचार किया किंतु अधिक तर्क न कर सीधे निष्कर्ष पर पहुँच गए । उन्होंने प्रकृति की शक्तियों पर देवत्व का आरोपण किया । दुनिया के अनेक प्राचीन सभ्यताओं के विविध अवशेषों में इसके साक्ष्य मिलते हैं । प्रारंभ में प्राकृतिक शक्तियों को देवता माना जाना भावनात्मक निष्कर्ष है, तार्किक नहीं । क्योंकि ये सभी शक्तियांँ, जैसे, सूर्य, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वनस्पति आदि सभी प्राणियों के जीवन का पोषण करती हैं इसलिए इन्हें देवतुल्य सम्मान देना तब स्वाभाविक ही था । इस तरह मनुष्य की जिज्ञासा  और तर्क ने दो विचारधाराओं को जन्म दिया जो  मनुष्य की चिंतन-संस्कृति की नींव बनीं । आज ये दोनों विचार धाराएँ विज्ञान और दर्शन के नाम से जानी जाती हैं।
 

दर्शन के विषय-वस्तुओं में जिज्ञासा के बहुत सारे विषय थे । उनमें से जिनका उत्तर प्रत्यक्ष रूप से दिया जा सकता था वे सब विज्ञान के हिस्से में आ गए । जैसे, सृष्टि की रचना कैसे हुई, पदार्थ के मूल तत्व क्या हैं, परम तत्व (उर्जा) क्या है, समय और आकाश क्या है आदि प्रश्नों के उत्तर वैज्ञानिक देने लगे हैं । दर्शन में कुछ प्रश्न ऐसे थे जिनका उत्तर तार्किक रूप से देना संभव ही नहीं है, जैसे, ईश्वर का अस्तित्व, स्वर्ग-नर्क, आत्मा आदि । ऐसे प्रश्नों को आस्था का आधार मिला और इनके तर्क से परे उत्तरों को धर्म की संज्ञा दी गई । इस प्रकार दर्शन का विचार-क्षेत्र धर्म और विज्ञान में विभाजित हो गया । सुकरात और उपनिषदों से प्रारंभ हुई दार्शनिक चिंतन की परंपरा हीगेल और आदि शंकराचार्य तक आकर समाप्त हो जाती है । हीगेल ने तो ‘दर्शन की मृत्यु’ भी घोषित कर दी थी ।

 

भारतीय चिंतन प्रारंभ में प्रत्यक्ष और तर्क पर आधारित था । वैदिक संहिताओं में सर्वत्र पर्यावरणीय घटकों को जीवन का आधार माना गया है । बौधायन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, आर्यभट आदि भारतीय वैज्ञानिकों की जिज्ञासा, उनके प्रयोग और तर्क आधारित विश्वास ने उन्हें गणितज्ञ और वैज्ञानिक बनाया । जिज्ञासा और तर्क की यह परंपरा ऋग्वेद से ही प्रारंभ हो जाती है । दसवें मंडल के नासदीय सूक्त में सूक्त के रचयिता तथ्य और तर्क प्रस्तुत करते हुए विभिन्न प्रश्न करते हैं और अंत में अपना संदेह और  जिज्ञासा भी इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘‘इन विभिन्न सृष्टियों को किसने रचा ? इन  सृष्टियों के जो स्वामी दिव्यधाम में निवास करते हैं, वही इनकी रचना के विषय में जानते हैं । यह भी  संभव है कि उन्हें भी यह सब बातें ज्ञात न हों ।’’  इस सूक्त में आस्था निर्बल है जबकि जिज्ञासा और तर्क प्रबल हैं ।डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसी सूक्त पर टिप्पणी करते हुए 'ए सोर्स बुक इन इंडियन फिलॉसफी' में लिखते हैं - "प्रश्न पूछने की भावना उन में बार-बार बलवती होती थी । चारों ओर संशय का वातावरण था । इस काल का भारतीय अपने देवताओं और समस्त वस्तुओं के अंतिम स्रोत के बारे में जानने की अभिलाषा से ओत-प्रोत था । उसने आस्था तक के लिए प्रार्थना की । और, आस्था के लिए प्रार्थना तब तक संभव नहीं होती जब तक आस्था में ही विश्वास डिग न जाए ।"

 

प्रारंभिक उपनिषदों में भी जिज्ञासा और तर्क की प्रधानता है, आस्था की नहीं । ‘न्याय दर्शन’ के प्रवर्तक महर्षि गौतम ने प्रमाण और तर्क का विस्तृत विवेचन किया है । किंतु इसके बाद के चिंतकों ने जिज्ञसा और तर्क की बजाय आस्था को अधिक महत्व दिया और दर्शन को धार्मिक विचारों में परिवर्तित कर दिया । इन विचारों का प्रभाव इतना अधिक था कि 11वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक  भारत में विज्ञान मृतप्राय  अवस्था में रहा । जिज्ञासा और तर्क ज्ञान-विज्ञान के भूखे होते हैं । एक जिज्ञासु भिन्न-भिन्न तरह से प्रश्न करता है, स्वयं से भी और दूसरों से भी । उसकी जिज्ञासा तभी संतुष्ट होती है जब उसे वांछित ज्ञान-विज्ञान प्राप्त हो जाता है । ‘द जंगल बुक’ के लेखक, नोबल पुरस्कार विजेता साहित्यकार रुडयार्ड किपलिंग ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी है- ‘‘मैं छह ईमानदार सेवक अपने पास रखता हूँ । इन्होंने मुझे हर वह चीज सिखाई है, जो मैं जानता हूँ । इनके नाम हैं- क्या, क्यों, कब, कैसे, कहाँ और कौन ।’’ किपलिंग का जन्म भारत में हुआ था । उन्होंने लिखा है- ‘‘प्रश्न और तर्क करना मैंने भारतीय दर्शन से सीखा है ।’’ आस्था प्रश्न नहीं करती क्योंकि उसे ज्ञान-विज्ञान की आवश्यकता नहीं होती । आज यह स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है कि दुनिया के जिन क्षेत्रों में अतिशय आस्था है वहाँ ज्ञान-विज्ञान की उपेक्षा सप्रयास की जा रही है ।
 

प्रारंभ में धर्म का अर्थ कर्तव्य था । मनीषियों के द्वारा जो धर्मशास्त्र लिखे गए उनमें तत्कालीन समाज व्यवस्था के अनुरूप मनुष्यों के लिये करणीय नैतिक कर्तव्यों का ही विवरण है । इसीलिए उस समय वर्णधर्म, आश्रम धर्म, राजधर्म, गृहस्थधर्म जैसी अवधारणाएँ विकसित हुईं । गौतम धर्मसूत्र में ‘आत्मगुणोः धर्मः’ कहा गया है अर्थात किसी का स्व-गुण ही उसका धर्म कहलाता है । मनुष्य में जिज्ञासा और तर्क का गुण जन्मजात होता है इसलिए प्रकृति प्रदत्त ये दोनों गुण मनुष्य के धर्म हैं ।  यह गुण बचपन में अत्यधिक सक्रिय होता है । बाद में परिवार और समाज द्वारा प्रदत्त रूढ़िजनित संस्कारों के फलस्वरूप उसमें न्यूनता आ जाती है जिससे उसे अपने व्यावहारिक जीवन में अनेक बार असफलताओं का सामना भी करना पड़ता है । जिज्ञासा और तर्क से दूर रहने वालों के लिए अंत में एक बात और- गीता (7.17) में अर्जुन के एक प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘‘मुझे जिज्ञासु और ज्ञानी सबसे अधिक प्रिय हैं ।’’
 

-महेन्द्र वर्मा


परंपरागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान




आज से हज़ारों वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने प्राकृतिक घटनाओं को समझना प्रारंभ किया तब उसके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं था । इसलिए उसने अनुमान के आधार पर व्याख्या करने का प्रयास किया । जैसे, सूर्य और चंद्रग्रहण की घटना का कारण यह समझा गया कि इन्हें कोई राक्षस निगल लेता है । यह व्याख्या उनके लिए ‘ज्ञान’ बन गई । प्राचीन धर्म और दर्शन की शुरुआत इसी तरह से हुई और आज भी इन दोनों क्षेत्रों में अनुमान के आधार पर ज्ञान रचने की यही परंपरा जारी है ।


यदि धर्म और दर्शन द्वारा इस तरह संकलित ज्ञान सत्य और शाश्वत होता तो इनकी अनेक शाखाएं-उपशाखाएं नहीं होतीं । ये शाखाएं एक-दूसरे के द्वारा स्थापित ज्ञान को ग़लत सिद्ध करती रहती हैं ।


धर्म और दर्शन की एक और परंपरा है, ये अपनी बातों को स्पष्ट रूप से सरल भाषा में व्यक्त न कर काव्यात्मक भाषा में व्यक्त करते रहे हैं । जब भाषा और तर्क भी हार मानने लगे तब धर्म आस्था का विषय बन गया और उसे ‘अकथ’ कह कर तर्क से दूर रखा जाने लगा । लेकिन परंपरागत दर्शन में कविता की भाषा के समान अस्पष्ट और भावनात्मक तर्क सदैव दिए जाते रहे ।


बीसवीं सदी के जर्मन विचारक हैन्स राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत धर्म और दर्शन की इस अस्पष्ट और काव्यात्मक भाषा की आलोचना की और कहा कि दर्शन के प्रश्नों का उत्तर विज्ञान की भाषा में ही दिए जाने चाहिए । 1930 ई. में उन्होंने ‘वैज्ञानिक दर्शन का उदय’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने परंपरागत दर्शन की समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उनका आधुनिक विज्ञान की भाषा में तर्कसंगत उत्तर प्रस्तुत किया है ।

हैन्स राइख़ेन बाख़ (1891-1953)



हैन्स राइख़ेन बाख़ के उक्त पुस्तक से उद्धरित निम्नांकित विचार मनन करने योग्य हैं -
‘‘सृष्टि की कहानी एक मिथ्या व्याख्या है.....मनोवैज्ञानिक इच्छाओं की पूर्ति को व्याख्या नहीं कहा जा सकता.....परंपरागत  दार्शनिक अवैज्ञानिक भाषा इसलिए बोलता है क्योंकि वह उन प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करता है जिनसे संबंधित ज्ञान उसके पास उपलब्ध ही नहीं होते....।’’


‘‘...विज्ञान के जिम्मे ऐसा सामाजिक कार्य आ गया है जिसकी पूर्ति पहले धर्म के द्वारा होती थी, वह काम था- अंतिम सुरक्षा प्रदान करने का । विज्ञान में विश्वास ने बड़े पैमाने पर ईश्वर में विश्वास का स्थान ले लिया है......विज्ञान नई संभावनाओं के द्वार खोलता है । संभव है, किसी दिन हमारा परिचय उन भावनाओं से करा दे जिनका हमने पहले कभी अनुभव ही नहीं किया....।’’

‘‘तर्क से संबंधित समस्याएं चित्रमय भाषा से हल नहीं होतीं बल्कि उनके लिए गणितीय व्याख्या जैसी शुद्धता की आवश्यकता होती है.....नया तर्क परंपरागत दर्शन से नहीं बल्कि गणित की धरती से उत्पन्न हुआ है ।’’

‘‘.....उस व्यक्ति को जो सत्य को चाहता है, जब निषेधात्मक रूप में सत्य उपस्थित हो तो निराश नहीं होना चाहिए ।..अप्राप्य की मांग करने की अपेक्षा निषेधात्मक सत्य को जानना श्रेयस्कर है ।’’


अपनी पुस्तक में राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत दर्शन की भले ही आलोचना की हो लेकिन इसमें जहां भी वैज्ञानिक और गणितीय दृष्टिकोण लक्षित हुआ है उसकी प्रशंसा भी की है ।


विज्ञान प्रकृति के जितना निकट है, धर्म और दर्शन उससे उतनी ही दूर हैं । परंपरागत दर्शन और धर्म की मान्यताएं मनुष्य को कट्टरतावादी सोच की ओर उन्मुख करती हैं जबकि वैज्ञानिक दर्शन किसी मान्यता को अंतिम सत्य होने का दावा नहीं करता बल्कि उसका एक सत्य किसी और नए सत्य की शोध के लिए संभावनाओं का द्वार खोलता है ।

 
-महेन्द्र वर्मा

दर्शन और गणित का संबंध




मानवीय ज्ञान के क्षेत्र में दो शास्त्र- गणित और दर्शन- ऐसे विषय हैं जिनका स्पष्ट संबंध मस्तिष्क की चिंतन क्षमता और तर्क से है। मानव जाति के उद्भव के साथ ही इन दोनों विषयों का प्रादुर्भाव हुआ है। इनके विषय वस्तु में कोई प्रत्यक्ष समानता नहीं है किंतु अध्ययन की प्रणाली और इनके सिद्धांतों और निष्कर्षों में अद्भुत सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में गणित और दर्शन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों विषय किसी न किसी प्रकार से एक रहस्यमय संबंध के द्वारा जुड़े हुए हैं। जिन मनीषियों ने गणित के क्षेत्र में जटिल नियमों और सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है, उन्होंने ही दर्शन के क्षेत्र में क्रांतिकारी विचारों को जन्म दिया है। प्लेटो, अरस्तू, पायथागोरस, डेकार्ट, लाइब्निट्ज, बर्कले, रसेल, व्हाइटहेड आदि ने दर्शन और गणित, दोनों क्षेत्रों में अपने विचारों से युग को प्रभावित किया है।

दर्शन तर्क का विषय है और तर्क गणित का आवश्यक अंग है। चिंतन की वांछित प्रणाली प्राप्त करने के लिए गणित का अध्ययन आवश्यक है। दार्शनिकों को इन्द्रियों के प्रत्यक्ष ज्ञान की अविश्वसनीयता ने सदैव उद्वेलित किया है किंतु उन्हें यह जानकर आनंद का अनुभव हुआ कि उनके सामने ज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र भी है जिसमें भ्रम या धोखे के लिए कोई स्थान नहीं है- वह था, गणितीय ज्ञान। गणित संबंधी धारणाओं को सदा ही ज्ञान की एक ऐसी प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया है जिसमें सत्य के उच्चतम मानक पर खरा उतरने की क्षमता विद्यमान है।

‘प्रकृति की पुस्तक गणित की भाषा में लिखी गई है‘- गैलीलियो के इस कथन का सत्य उसके अनुवर्ती शताब्दियों में निरंतर प्रकट होता रहा है। ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी के यूनानी गणितज्ञ पायथागोरस ने गणित और दर्शन को मिला कर एक कर दिया था। उनकी मान्यता थी कि प्रकृति का आरंभ संख्या से ही हुआ है।
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के जनक फ्रांस के रेने डेकार्ट को प्रथम आधुनिक गणितज्ञ भी कहा जाता है। इन्होंने निर्देशांक ज्यामिति की नींव रखी। आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए उनके द्वारा प्रतिपादित यह स्वयंसिद्ध प्रसिद्ध है-‘मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं।‘ डेकार्ट का कहना है- ‘गणित ने मुझे अपने तर्कों की असंदिग्धता और प्रामाणिक लक्षण से आह्लादित किया है।‘

गणित में चलन-कलन के आविष्कारक और दर्शन में चिद्बिंदुवाद के प्रवर्तक जर्मन विद्वान गाटफ्रीड विल्हेम लाइब्निट्ज थे। प्रकृति के वर्णन के लिए गणितीय विधियों के सफल व्यवहार ने लाइब्निट्ज को यह विश्वास करने की प्रेरणा दी कि सारा विज्ञान गणित में परिणित हो सकता है। उन्होंने दर्शन और गणित के प्रतीकों का सामंजस्य करते हुए लिखा है-‘ ईश्वर 1 है और 0 कुछ नहीं। जिस प्रकार 1 और 0 से सारी संख्याएं व्यक्त की जा सकती हैं उसी प्रकार ‘एक‘ ईश्वर ने ‘कुछ नहीं‘ से सारी सृष्टि का सृजन किया है।
तर्कशास्त्र के इतिहास में मोड़ का बिंदु तब आया जब उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जार्ज बुले और डी मार्गन ने तर्कशास्त्र के सिद्धांतों को गणितीय संकेतन की विधि से प्रतीकात्मक भाषा में व्यक्त किया। जार्ज बुले ने बीजगणित के चार मूलभूत नियमों  के आधार पर दार्शनिक तर्कों का विश्लेषण किया था।
बट्र्रेंड रसेल दर्शन और गणित की समीपता को समझते थे। उनके द्वारा दार्शनिक प्रत्ययों का तार्किक गणितीय परीक्षण किया जाना दर्शन के क्षे़त्र में एक नई पहल थी।

रसेल के गुरु अल्फ्रेड नार्थ व्हाइटहेड ने एक गणितज्ञ के रूप में अपना कार्य प्रारंभ किया किंतु उनके गणितीय सिद्धांतों में वे भाव पहले से ही थे जिनके कारण वे युगांतरकारी दार्शनिक विचार प्रतिपादित कर सके। विटजनस्टीन ने गणितीय भाषा से प्रभावित होकर ‘भाषायी दर्शन‘ तथा हेन्स राइखेन बाख ने ‘वैज्ञानिक दर्शन‘ की नींव डाली।

आधुनिक बीजगणित के समुच्चय सिद्धांत पर आधारित तर्कशास्त्र न केवल अनेक प्राकृतिक घटनाओं की बल्कि अनेक सामाजिक व्यवहारों की भी व्याख्या करने में समर्थ है। समुच्चयों को प्रदर्शित करने के लिए वैन नामक गणितज्ञ ने ‘वैन आरेख‘ पद्धति विकसित की जो उनके द्वारा लिखित ‘सिंबालिक लाजिक‘ नामक पुस्तक में वर्णित है। उनकी यह कृति प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र के तत्कालीन विकास का व्यापक सर्वेक्षण है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य

जिन ऋषियों ने उपनिषदों की रचना की उन्होंने ही वैदिक गणित और खगोलशास्त्र या ज्योतिर्गणित की रचना की है। ईशावास्य उपनिषद के आरंभ में आया यह श्लोक निश्चित ही ऐसे मस्तिष्क की रचना है जो गणित और दर्शन दोनों का ज्ञाता था - ‘ ओम् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्चते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।‘ इस की व्याख्या संख्या सिद्धांत के आधार पर इस तरह की जा सकती है- प्राकृत संख्याओं के अनंत समुच्चय में से यदि सम संख्याओं का अनंत समूह निकाल दिया जाए तो शेष विषम संख्याओं का समुच्चय भी अनंत होगा। इसी तरह ‘एकोहम् बहुस्याम्‘ ‘तत्वमसि‘ आदि सूत्रों का गणित से अद्भुत सामंजस्य है।

प्रख्यात गणितज्ञ प्रो. रामानुजम् गणित के अध्ययन-मनन को ईश्वर चिंतन की प्रक्रिया मानते थे। उनकी धारणा थी कि केवल गणित के द्वारा ही ईश्वर का सच्चा स्वरूप स्पष्ट हो सकता है।
दर्शन और गणित के इस गूढ़ संबंध का कारण यह है कि दोनों विषयों में जिन आधारभूत प्रत्ययों का अध्ययन-विश्लेषण होता है, वे सर्वथा अमूर्त हैं। दर्शन में ब्रह्म, आत्मा, माया, मोक्ष, शुभ-अशुभ आदि प्रत्यय जितने अमूर्त एवं जटिल हैं उतने ही गणित के प्रत्यय- बिंदु, रेखा, शून्य, अनंत, समुच्चय आदि भी अमूर्त एवं क्लिष्ट हैं।
भारतीय दर्शन का सत्य कभी परिवर्तित नहीं हुआ, ऐसे ही गणित के तथ्य भी शाश्वत सत्य हैं। गणित और दर्शन शुष्क विषय नहीं हैं बल्कि कला के उच्च प्रतिमानों की सृष्टि गणितीय और दार्शनिक मस्तिष्क में ही संभव है।
महान गणितज्ञ और दार्शनिक आइंस्टाइन का यह कथन गणित और दर्शन के संबंध को स्पष्ट करता है- ‘मैं किसी ऐसे गणितज्ञ और वैज्ञानिक की कल्पना नहीं कर सकता जिसकी धर्म और दर्शन में गहरी आस्था न हो।‘

                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा