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प्राचीन संस्कृत साहित्य में होली

     


               

होली की मान्यता लोकपर्व के रूप में अधिक है किन्तु प्राचीन संस्कृत-शास्त्रों में इस पर्व का विपुल उल्लेख मिलता है । भविष्य पुराण में तो होली को शास्त्रीय उत्सव कहा गया है । ऋतुराज वसंत में मनाए जाने वाले रंगों के इस पर्व का प्राचीनतम सांकेतिक उल्लेख यजुर्वेद के तैत्तिरीय आरण्यक (1.3.5) में मिलता है- भाष्यकार सायण लिखते हैं- “वसंत ऋतु में देवता के वस्त्र हल्दी से रँगे हुए हैं ।" होली शब्द की उत्पत्ति ‘होलाका’ शब्द से हुई है । अथर्व वेद के परिशिष्ट (18,12.1) में फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि को होलाका कहा गया है- “फाल्गुनां पौर्णिमास्यां रात्रौ होलाका” । प्राचीन संस्कृत साहित्य में वसंतोत्सव का विस्तृत वर्णन है । यह उत्सव वसंत पंचमी से प्रारंभ हो कर चैत्र कृष्ण त्रयोदशी तक संपन्न होता था । होली इसी वसंतोत्सव के अंतर्गत एक विशेष पर्व है जिसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत साहित्य में विभिन्न नामों से मिलता है, यथा- फाल्गुनोत्सव, मधूत्सव, मदनोत्सव, चैत्रोत्सव, सुवसंतक, दोलोत्सव, रथोत्सव, मृगयोत्सव, अनंगोत्सव, कामोत्सव, फग्गु (प्राकृत) ।

 

पहली ईस्वी शती में कवि हाल द्वारा संकलित प्राकृत ग्रन्थ ‘गाथा सप्तशती’ में होली में एक-दूसरे पर रंगीन चूर्ण और कीचड़ फेंके जाने का वर्णन है- “नायिका अपनी हथेलियों में गुलाल ले कर खड़ी ही रह गई, नायक पर रंग डालने की उसकी योजना असफल हो गई (4.12) । किसी ने फाल्गुनोत्सव में तुम पर बिना विचारे जो कीचड़ डाल दिया है उसे धो क्यों रही हो (4.69) ।’’ चौथी-पाँचवीं शताब्दी के महाकवि कालिदास की कृति ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ में दो दासियों के वार्तालाप में वसंतोत्सव की चर्चा है- “कृपा कर बताइए कि राजा ने वसंतोत्सव मनाए जाने पर प्रतिबन्ध क्यों लगाया है ? मनुष्यों को राग-रंग सदा से प्रिय है इसलिए कोई बड़ा ही कारण होगा ।’’ कालिदास की ही रचना ‘मालविकाग्निमित्र’ के अंक 3 में विदूषक राजा से कहता है- “रानी इरावती जी ने वसंत के आरम्भ की सूचना देने वाली रक्ताशोक की कलियों की पहले-पहल भेंट भेज कर नए वसंतोत्सव के बहाने निवेदन किया है कि आर्यपुत्र के साथ मैं झूला झूलने का आनंद लेना चाहती हूँ ।" 7 वीं शती के कवि दंडी रचित 'दशकुमारचरित' में होली का उल्लेख 'मदनोत्सव' के रूप में किया गया है। इसी काल में हर्ष ने ‘रत्नावली’ नाटक लिखा । इस के पहले अंक में विदूषक राजा से होली की चर्चा इस प्रकार करता है- “इस मदनोत्सव की शोभा तो देखिए, युवतियाँ अपने हाथों में पिचकारी ले कर नागर पुरुषों पर रंग डाल रहीं हैं और वे पुरुषगण कौतूहल से नाच रहे हैं । उडाए गए गुलाल से दसों  दिशाओं के मुख पीत वर्ण के हो रहे  हैं ।“

 

कतिपय पुराणों में भी होली या फाल्गुनोत्सव का वर्णन है । माना जाता है कि पुराणों की रचना पहली से दसवीं शताब्दी तक होती रही है । भविष्य पुराण के फाल्गुनोत्सव नामक अध्याय 132 में होली के संबंध में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का रोचक संवाद देखिए- युधिष्ठिर पूछते हैं- “जनार्दन, फाल्गुन मास के अंत में पूर्णिमा के दिन गाँव-गाँव में प्रत्येक घर में जिस समय उत्सव मनाया जाता है, लड़के लोग क्यों प्रलाप करते हैं, होली क्यों और कैसे जलाई जाती है ? इसके संबंध में विस्तार से बताइए ।" उत्तर में श्रीकृष्ण होली पर्व के प्रारंभ होने की कथा सुनाते हैं । कथा के अंतर्गत शिव जी और वशिष्ठ का संवाद है । अंत में शिव जी  कहते हैं- “आज फाल्गुन मास की पूर्णिमा है, शीतकाल की समाप्ति और ग्रीष्म का आरंभ हो रहा है । अतः आप लोक को अभय प्रदान करें जिससे सशंकित मानव पूर्व की भांति हास्य-विनोद से पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें । बालकवृन्द हाथ में डंडे लिए समर के लिए लालायित योद्धा की भांति हँसी-खेल करते हुए बाहर जाकर सूखे लकड़ियाँ और ऊपले एकत्र करें तथा उसे जलाएँ तत्पश्चात राक्षस नाशक मन्त्रों के साथ सविधान उस में आहुति डाल कर हर्सोल्लास से सिंहनाद करते और मनोहर ताली बजाते हुए उस अग्नि की तीन परिक्रमा करें । सभी लोग वहाँ एकत्रित हों और निःशंक हो कर यथेच्छ गायन, हास्य और मनोनुकूल प्रलाप करें ।‘’

 

बंगाल में होली के अवसर पर दोलोत्सव मनाया जाता है । इस का उल्लेख भी भविष्य पुराण के अध्याय 133 में है । पार्वती शिव जी से कहती है- “प्रभो ! झूला झूलती हुई इन स्त्रियों को देखिए । इन को देख कर मेरे  मन में कौतूहल उत्पन्न हो गया है । अतः मेरे लिए भी एक सुसज्जित हिंडोला बनाने की कृपा करें । त्रिलोचन ! इन स्त्रियों की भाँति मैं भी  आपके साथ हिंडोला झूलना चाहती हूँ ।‘’ तब शिव जी ने देवों को बुला कर हिंडोला बनवाया और पार्वती की मनोकामना पूर्ण हुई । इस के बाद हिंडोला बनाने-सजाने और दोलयात्रा की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन है । भविष्य पुराण में दोलोत्सव की तिथि चैत्र शुक्ल चतुर्दशी दी गई है किन्तु आजकल यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा और चैत्र शुक्ल द्वादशी को मनाया जाता है । इस के अतिरिक्त अध्याय 135 में मदन महोत्सव का भी वर्णन है ।

 

नारद पुराण (1.124) में फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका-पूजन और दहन का उल्लेख है । साथ ही यह भी कहा गया है कि इस पर्व को संवत्सर दहन या मतान्तर से कामदहन के रूप में भी मनाया जाता है- “संवत्सरस्य दाहोsयम, कामदाहो मतान्तरे ।’’ संवत्सर दहन का आशय ‘बीत रहे वर्ष की विदाई और नए वर्ष का स्वागत’ है । नील मुनि द्वारा रचित ‘नीलमत पुराण’ के श्लोक संख्या 647 से 650 में होली मानाने की विधि का वर्णन इस प्रकार है- “फाल्गुन पूर्णिमा को उदय होते पूर्णचंद्र की पूजा करनी चाहिए । रात्रि के समय गायन, वादन, नृत्य और अभिनय का आयोजन किया जाना चाहिए जो चैत्र कृष्ण पंचमी तक निरंतर रहे । पाँच दिनों तक पर्पट नामक औषधीय पौधे के रस का सेवन करना चाहिए ।’’

 

भोजदेव की 11 वीं शताब्दी की रचना सरस्वती कंठाभरणममें लिखा है कि सुवसंतक वसंतावतार के दिन को कहते हैं। वसंतावतार अर्थात बसंत का आगमन, यह दिन वसंत पंचमी का ही है। दक्षिण भारत के संस्कृत कवि अहोबल ने 15 वीं शताब्दी में ‘विरूपाक्ष वसंतोत्सव चम्पू’ नामक ग्रन्थ की रचना की । इस में वसंतोत्सव की विस्तार से चर्चा की गई है । इन सब के अतिरिक्त भारवि, राजगुरु मदन, वात्स्यायन, माघ, भवभूति आदि की कृतियों में भी वसंतोत्सव का उल्लेख मिलता है ।

 

उपर्युक्त विवेचन से यह निश्चित होता है कि होली का पर्व प्राचीन काल से ही सम्पूर्ण भारतीय समाज में उल्लास और उमंग का महत्वपूर्ण उत्सव रहा है । परम्पराओं का निर्माण पहले लोक के द्वारा लोक में होता है तत्पश्चात वह शास्त्रों में अंकित हो कर सांस्कृतिक विरासत का रूप ले लेती हैं । आज भी हमारी यह गरिमामयी सांस्कृतिक विरासत भारतीय जन-मानस को सद्भाव, एकता और समानता का सन्देश दे रही है ।

-महेन्द्र वर्मा 

                                                                                                                                                                            

प्राचीन संस्कृत साहित्य के उद्धारक



भारत के प्राचीन धार्मिक और अन्य साहित्य का दूसरी सभ्यताओं की तुलना में विशाल भंडार है  किंतु यह साहित्य दो सौ साल पहले तक आम भारतीय के लिए उपलब्ध नहीं था । इसके कुछ कारण हैं, पहला, यह सारा साहित्य मुख्यतः संस्कृत भाषा में है जो जन सामान्य की या बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी, कुछ खास लोग ही संस्कृत सीखते थे । दूसरा, जिनके पास प्राचीन साहित्य की 2-4 पुस्तकें होती थीं उन्हें वही खास लोग ही पढ़ सकते थे, एक विशेष वर्ग के लिए उन्हें पढ़ना निषिद्ध था । तीसरा, केवल हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार की जाती थीं इसलिए दुर्लभ थीं । जिनके पास थीं वे दूसरों को प्रायः नहीं देते थे । एक हजार वर्षों से अधिक की राजनैतिक अस्थिरता के कारण भी ज्ञान-विज्ञान का विकास बाधित रहा । कुछ प्राचीन पुस्तकालय विदेशी आक्रांताओं द्वारा नष्ट कर दिए गए । इन सब कारणों से उस विपुल साहित्य का देश-विदेश में प्रचार-प्रसार न हो सका । इस संदर्भ में विशेष बात यह है कि 5 हजार वर्षों तक छिपाकर रखे गए उक्त साहित्य को देश-विदेश में प्रसारित करने की शुरुआत विदेशियों ने की ।
 

चूँकि संस्कृत भाषा सामान्य व्यवहार में प्रचलित नहीं थी इसलिए संस्कृत में लिखे गए उस साहित्य को ऐसी भाषा में अनुवाद किया जाना आवश्यक था जो शासक वर्ग की भाषा हो और जिसे शासित वर्ग भी सीखता हो । 500 साल पहले तत्कालीन शासक अकबर ने इस संबंध में अल्प प्रयास किया था । 200 साल पहले अंग्रेजी शासन के समय में यह कार्य वृहद पैमाने पर हुआ । उस समय प्राचीन भारतीय साहित्य का अधिकतर अनुवाद कार्य अंग्रेजी, जर्मन और फ्रेंच में विदेशी विद्वानों के द्वारा किया गया । इस लेख में इन्हीं कार्यों का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया गया है ।
 

16 वीं शताब्दी के आठवें दशक में अकबर ने महाभारत के सभी 18 अध्यायों का फारसी में अनुवाद करवाया था । इस कार्य के लिए उसने फारसी और संस्कृत विशेषज्ञों की एक टीम बनाई थी । इस टीम में नाकिब खान, मुल्ला शीरी, सुल्तान थानीसरी, बदायूंनी, देव मिश्र, शतावधान, मधुसूदन मिश्र, आदि सम्मिलित थे । अकबर ने अथर्ववेद का भी अनुवाद करने का आदेश दिया किंतु यह कार्य नहीं हो सका । भगवद्गीता के फारसी अनुवादकों में अबुल फजल, फैजी और अब्दुर्रहमान चिश्ती का नाम भी लिया जाता है । चिश्ती ने अपने अनुवाद का शीर्षक ‘मिरात-अल-हकाइक’ अर्थात ‘सत्य का दर्पण’ रखा था । दारा शिकोह ने योग वाशिष्ठ और कुछ उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया था । 17 वीं सदी के आरंभ में रामायण की कथा का फारसी में काव्यरूपांतरण गिरधर दास नामक कवि के अतिरिक्त शाद अल्लाह पानीपती ने भी किया था । अगली 3 शताब्दियों तक फारसी में अनूदित इन पुस्तकों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार होती रहीं और पढ़ने के इच्छुक लोगों तक पहुँचती रहीं । संस्कृत के मूलग्रंथ तो उनके लिए दुर्लभ थे ।
 

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में सन् 1783 में विलियम जोन्स नामक एक बहुभाषाविद् और अध्ययनप्रेमी अंग्रेज तत्कालीन भारत के सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त किए गए । जोन्स ने अनुभव किया की भारत की संस्कृति विशिष्ट है किंतु इसके बारे में यूरोप में विशेष अध्ययन नहीं होता । उन्होंने भारतीय संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन के लिए 1784 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की स्थापना की । इस संस्थान में देश के विभिन्न स्थानों से प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों का संकलन-अध्ययन का कार्य प्रारंभ किया गया । विलियम जोन्स पहले अंग्रेज विद्वान थे जिन्होंने संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए संस्कृत सीखी । 1790 से 1796 के बीच उन्होंने अभिज्ञान शाकुंतलम्, गीत गोविंद, हितोपदेश, मनुस्मृति आदि संस्कृत ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया । इसके पहले 1784 में एशियाटिक सोसायटी के एक सदस्य चार्ल्स विल्कीन्स ने भगवद्गीता का अंग्रेजी अनुवाद किया था। यह किसी संस्कृत साहित्य का पहला अंग्रेजी अनुवाद था ।
 

होरेस हायमेन विल्सन भारत में एशियाटिक सोसायटी के 21 वर्षों तक सचिव रहे । 1813 में कालिदास के मेघदूतम् और 1840 में विष्णुपुराण का अंग्रेजी अनुवाद किया । सन् 1823 में यूरोप में संस्कृत की जो पहली पुस्तक प्रकाशित हुई वह भगवद्गीता थी जिसमें श्लीगेल द्वारा किया गया लैटिन अनुवाद भी था । जर्मन भाषा में 1826 में पंचतंत्र और 1829 में हितोपदेश प्रकाशित हुई । जार्ज फास्टर ने कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम का जर्मन में अनुवाद किया था । इस पुस्तक ने जर्मन लोगों में भारतीय संस्कृति और भाषाओं को जानने के लिए प्रेरित किया ।
 

ई. बर्जेस अमेरिकन मिशनरी थे । इन्होंने 1850 में सूर्यसिद्धांत, कौशीतकी और मैत्रायनी उपनिषद का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया । जेम्स राबर्ट बेलन्टाइन 16 वर्षों तक बनारस संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य रहे । इन्होंने 1855 में हिंदी, संस्कृत और मराठी के व्याकरण प्रकाशित कराए । 1856 में वरदराज की लघुकौमुदी और पतंजलि के योगसूत्र का प्रकाशन कराया । विलियम व्हिटनी अमेरिकन अकाडमी ऑफ आर्ट्स एंड साइंसेज़ के सदस्य थे । इन्होंने ने 1856-57 में अथर्ववेद संहिता का अनुवाद किया था ।
 

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के भाषाशास्त्र के प्रोफेसर फ्रेडरिक मैक्स मूलर पहले पाश्चात्य विद्वान थे जिन्होंने संपूर्ण ऋग्वेद का सायण भाष्य के आधार पर अनुवाद किया था । यह कार्य उन्होंने 1849 से 1874 के मध्य संपन्न किया । 1846 में हितोपदेश का जर्मन अनुवाद किया । इनके निर्देशन में 50 भागों में ‘द सीक्रेट बुक्स ऑफ द ईस्ट’ का लेखन 1950 में पूर्ण हुआ जिसमें प्राचीन भारतीय वाङ्मय का विस्तृत विवरण है । 1860 में इन्होंने ‘ए हिस्ट्री ऑफ एन्सिएंट संस्कृत लिटरेचर’ प्रकाशित कराया । इनके निधन पर लोकमान्य तिलक ने श्रद्धांजलि देते हुए इन्हें वेद महर्षि मोक्ष मुल्लर भट्ट कहा था किंतु स्वामी दयानंद सरस्वती इनके संस्कृत ज्ञान को अधूरा समझते थे ।
 

जार्ज बूलर जर्मन विद्वान थे । ये 10 भाषाएं जानते थे । प्रो. मैक्समूलर के आमंत्रण पर ये 1863 में भारत आए । ये रायल एशियाटिक सोसायटी, मुम्बई के सदस्य नामित हुए । इन्होंने पश्चिमी भारत से लगभग 5000 हस्तलिखित प्राचीन ग्रंथों का संकलन किया जिसमें कल्हण की राजतरंगिणी सबसे प्राचीन थी । सन् 1880 में इन्होंने आपस्तम्ब, वशिष्ठ और गौतम के धर्मसूत्रों का जर्मन में अनुवाद किया । अल्ब्रेख़्त फ्रेडरिक वेबर बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे । ये मैक्समूलर के घनिष्ठ मित्र थे । इन्होंने 1852 में बर्लिन वि. वि. में भारतीय साहित्य पर व्याख्यान दिया जो मुख्यतः संस्कृत साहित्य पर था । यह जर्मन में पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुआ । किसी भी भाषा में संस्कृत साहित्य का यह पहला इतिहास ग्रंथ था । 1856 में इनके द्वारा कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् का जर्मन में अनुवाद किया गया । फ्रांज किलहार्न पुणे के डेक्कन कालेज में संस्कृत के प्रोफेसर थे । इन्होंने पांतजलि कृत व्याकरण महाभाष्य का अनुवाद किया । 1871 से 1874 के बीच इटली के एंटोनियो मराज़ी ने कालिदास, विशाखदत्त और मुद्राराक्षस के नाटकों का इटैलियन में अनुवाद किया ।
 

मूरिस ब्लूमफील्ड पोलैण्ड के थे लेकिन अमेरिका में बस गए थे । ये अमेरिका के जॉन हाफकिन इंस्टीट्यूट में 45 वर्षों तक संस्कृत के प्रोफेसर रहे । इन्होंने 1897 में अथर्ववेद का और 1899 में गोपथ ब्राह्मण का अंग्रेजी में अनुवाद किया । एडवर्ड कावेल प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता में 1856 में प्रोफेसर नियुक्त हुए  । 1894 में अश्वघोष के बुद्धचरित का अंग्रेजी अनुवाद इन्होंने किया । इनके शिष्य एडवर्ड फिटजेराल्ड ने 1859 में उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद किया था ।
 

जार्ज विलियम थिबाउट म्योर सेंट्रल कॉलेज इलाहाबाद के प्राचार्य थे । ये भी जर्मन थे किंतु इंग्लैंड के नागरिक हो गए थे । इनका महत्वपूर्ण कार्य बौधायन शुल्व सूत्र और वराह मिहिर के पंचसिद्धांतिका का अंग्रेजी में अनुवाद था जो 1875-78 में पूर्ण हुआ था । शंकराचार्य के वेदांत सूत्र का भी अनुवाद किया था । राल्फ थामस ग्रिफिथ संस्कृत महाविद्यालय बनारस के प्राचार्य थे । 1870 से 1899 के मध्य वाल्मीकि रामायण और कालिदास के कुमारसंभव तथा चारों वेदों का अनुवाद सायण भाष्य के आधार पर इन्होंने  किया । ‘पंडित’ नामक संस्कृत पत्रिका के 8 वर्षों तक संपादक रहे ।
 

आयरलैंड के प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन 1898 से 1902 तक भारतीय भाषा सर्वेक्षण के निदेशक रहे । इन्होंने 19 भागों में भारत का भाषायी सर्वेक्षण को संपादित और  प्रकाशित किया । पाल जैकब डायसन जर्मन विद्वान थे । ये प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे और स्वामी विवेकानंद के मित्र थे । इस संस्कृतप्रेमी विद्वान को उनके मित्र देवसेन कहते थे । 1906 से 1912 के बीच इन्होंने 60 उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र का जर्मन में अनुवाद किया । जूलियस इगलिंग ने शतपथ ब्राह्मण का जर्मन में अनुवाद किया । जर्मनी के ही विद्वान थियोडोर गोल्डस्टकर ने 1942 में कृष्ण मिश्र के प्रबोध चंद्रोदय का जर्मन अनुवाद कर प्रकाशित कराया । जर्मनी के हैले विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर यूजीन जूलियस थियोडोर हल्ट्ज ने अन्नम भट्ट के तर्कसंग्रह का जर्मन में अनुवाद किया । एक अन्य संस्कृतप्रेमी जूलियस जॉली ने विष्णु, नारद और बृहस्पति धर्मसूत्र का अनुवाद किया ।
 

आर्थर कीथ एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में संस्कृत और पाली के प्रोफेसर थे । इन्होंने तैत्तिरीय संहिता, ऐतरेय और कौशीतकी ब्राह्मण का अंग्रेजी में अनुवाद किया । एक रूसी-जर्मन विद्वान ऑटो वान बूतलिंक ने छांदोग्य उपनिषद और पाणिनी के अष्टाध्यायी का जर्मन में अनुवाद किया था । इनके द्वारा तैयार किया गया संस्कृत-जर्मन शब्दकोष संस्कृत का किसी विदेशी भाषा में पहला शब्दकोष था । हेनरी थामस कोलब्रुक ने ईस्ट इंडिया कंपनी में कई बड़े पदों पर काम किया । वे एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल के अध्यक्ष भी रहे । इनके द्वारा अनूदित ग्रंथों में विज्ञानेश्वर रचित मिताक्षरा, जीमूतवाहन का दायभाग, ब्रह्मगुप्त का ब्रह्मस्फुट सिद्धांत और भास्कराचार्य की गणित संबंधी पुस्तकें प्रमुख हैं ।
 

उक्त विवरण में अनुवाद कार्यों के कुछ ही उदाहरण दिए गए हैं । और भी अनेक विदेशी लेखकों ने संस्कृत साहित्य की पुस्तकों का न केवल अनुवाद किया बल्कि समीक्षात्मक पुस्तकें भी लिखीं । उपर्युक्त सभी अनुवाद विदेशी भाषाओं में थे । भारतीय भाषाओं में अभी तक संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद उपलब्ध नहीं था । 20 वीं सदी के आरंभ में कुछ भारतीय लेखकों ने संस्कृत साहित्य का अनुवाद कार्य अंग्रेजी में ही किया लेकिन हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी होने लगा । भारत में कुछ प्रिंटिग प्रेस ने इस कार्य को आगे बढ़ाया जिनमें दिल्ली के मोतीलाल बनारसी दास, मुंबई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बनारस का चौखंबा प्रकाशन, गीताप्रेस गोरखपुर आदि ने संस्कृत साहित्य को भारतीय पाठकों के लिए सुलभ बनाया ।

-महेन्द्र वर्मा