जो जानते हैं, जरूरी नहीं कि वे समझते भी हों। लेकिन जो समझते हैं, वे जानते भी हैं। जानना पहले होता है, समझना उसके बाद। यह तत्काल बाद भी हो सकता है और बरसों भी लग सकते हैं । कभी-कभी जानना और समझना साथ-साथ चलता है। जानते हुए समझना से ज्यादा बेहतर है- समझते हुए जानना। जानना आसान है, समझना कठिन। जानना सतही होता है, एक विमीय होता है, जबकि समझने में कर्इ आयामों से गुजरना पड़ता है। वैसे, गहनता और गंभीरतापूर्वक जानना को समझना कह सकते हैं।
जानने की प्रक्रिया ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों और मस्तिष्क के सहयोग से कुछ ही समय में सम्पन्न हो जाती है। कोर्इ व्यकित स्वयं अपने प्रयासों से चीजोंतथ्यों के बारे में जान सकता है या फिर, दूसरों के अनुभवों को सुनकर, किताबों से पढ़कर या आधुनिक संचार माध्यमों के जरिए जान सकता है। लेकिन इन्हीं चीजोंतथ्यों के बारे में समझना भी हो तो केवल ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों और मस्तिष्क का उपयोग व्यर्थ साबित होगा।
समझने की प्रक्रिया में जिसका भरपूर योगदान होता है, वह है- बुद्धि। बुद्धि का प्रमुख काम यह है कि यह उनको सोचने के लिए प्रेरित और कभी-कभी बाध्य भी करती है, जिनके पास यह होती है। होती तो सभी मनुष्यों के पास है, किंतु स्तर या मात्रा में भिन्नता होती है। बुद्धि के स्तर में अंतर होने के कारण सोचने के स्तर में भी अंतर हो ही जाता है। सोचने के इस अंतर के कारण समझने में फर्क आना स्वाभाविक है। सोचने और फिर समझने की इस प्रक्रिया में व्यकित का पूर्वज्ञान, पूर्व अनुभव और विवेक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
समझ का यही अंतर विवादों का जनक होता है।
जानने की प्रक्रिया ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों और मस्तिष्क के सहयोग से कुछ ही समय में सम्पन्न हो जाती है। कोर्इ व्यकित स्वयं अपने प्रयासों से चीजोंतथ्यों के बारे में जान सकता है या फिर, दूसरों के अनुभवों को सुनकर, किताबों से पढ़कर या आधुनिक संचार माध्यमों के जरिए जान सकता है। लेकिन इन्हीं चीजोंतथ्यों के बारे में समझना भी हो तो केवल ज्ञान ग्रहण करने वाले अंगों और मस्तिष्क का उपयोग व्यर्थ साबित होगा।
समझने की प्रक्रिया में जिसका भरपूर योगदान होता है, वह है- बुद्धि। बुद्धि का प्रमुख काम यह है कि यह उनको सोचने के लिए प्रेरित और कभी-कभी बाध्य भी करती है, जिनके पास यह होती है। होती तो सभी मनुष्यों के पास है, किंतु स्तर या मात्रा में भिन्नता होती है। बुद्धि के स्तर में अंतर होने के कारण सोचने के स्तर में भी अंतर हो ही जाता है। सोचने के इस अंतर के कारण समझने में फर्क आना स्वाभाविक है। सोचने और फिर समझने की इस प्रक्रिया में व्यकित का पूर्वज्ञान, पूर्व अनुभव और विवेक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
समझ का यही अंतर विवादों का जनक होता है।
एक बात और- बिना जाने समझना संभव नहीं है लेकिन बिना समझे जानना व्यर्थ है, निरर्थक है।
- * महेन्द्र वर्मा