हिन्दी साहित्य के संगीतमय गीत






गीत-संगीत किसे अच्छा नहीं लगता ! यदि गीत किसी प्रख्यात साहित्यकार का हो जिसे संगीतबद्ध कर गाया गया हो तो ऐसी रचना सहसा ध्यान आकर्षित करती ही है । प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती की एक कविता है- ‘ढीठ चांदनी’ । इस की प्रारंभिक पंक्ति है-‘आजकल तमाम रात चाँदनी जगाती है’। इस कविता को संगीतबद्ध कर दिल्ली की एक उभरती गायिका चिन्मयी त्रिपाठी ने गाया है। यह कविता छंदबद्ध नहीं है फिर भी चिन्मयी ने इसे कुशलतापूर्वक गाया है । इसकी संगीत रचना में यद्यपि शास्त्रीय राग की झलक दिखाई देती है किंतु गायन पश्चिमी शैली में है और केवल पश्चिमी वाद्ययंत्रों का उपयोग किया गया है । चिन्मयी धर्मवीर भारती के अलावा महादेवी वर्मा, निराला, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, बच्चन, दिनकर, प्रसाद, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विनोद कुमार शुक्ल जैसे हिंदी के प्रथम पंक्ति के कवियों के गीतों का गायन विगत दो-तीन वर्षों से विभिन्न साहित्यिक मंचों से करती आ रही हैं । एक साक्षात्कार में चिन्मयी ने अपने इस प्रयास के संबंध में बताया था कि वे संगीत के माध्यम से नई पीढ़ी में हिन्दी कविताओं के प्रति रुचि जगाना चाहती हैं ।

हिन्दी के शीर्ष कवियों की साहित्यिक रचनाओं का संगीतमय गायन चिन्मयी के पहले भी संगीत जगत के कुछ प्रसिद्ध कलाकारों ने किया है परंतु ऐसे गीतों की संख्या उँगलियों में गिनी जा सकती है । चिन्मयी के गाए गीतों और इनके पहले गाए गए गीतों में महत्वपूर्ण अंतर यह है कि पहले के गीतों में विशुद्ध भारतीय संगीत की साज-सज्जा है जबकि चिन्मयी के गायन में पहली बार पश्चिमी शैली के संगीत का प्रयोग किया गया है । यह जानना रोचक है कि विगत पचास वर्षों में हिंदी के 7-8 प्रख्यात हिन्दी-कवियों के केवल 30-35 गीत ही संगीतबद्ध किए गए हैं ।

भक्तिकाल के कवियों सूर, तुलसी, कबीर, मीरा आदि की रचनाओं का संगीतमय गायन भजन के रूप में परंपरागत रीति से अपने रचनाकाल से ही हो रहा है । देशभक्ति गीतों की एक अलग परंपरा है जिसमें मैथिली शरण गुप्त, दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी आदि कवियों के गीत संगीतबद्ध किए गए हैं । सुगम संगीत के उपप्रकारों में एक ‘गीत-ग़ज़ल’ भी है । यह आलेख आधुनिक हिन्दी काव्य में विगत एक सौ वर्षों में हुए प्रख्यात साहित्यकारों की काव्य रचनाओं को सुगम संगीत के अंतर्गत संगीतबद्ध करने के संदर्भ में है । ऐसे गीतों को स्वरबद्ध करने का कार्य सर्वप्रथम प्रसिद्ध संगीतकार जयदेव ने प्रारंभ किया । छायावाद के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद की काव्यरचना ‘कामायनी’ के निर्वेद सर्ग के एक गीत ‘तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन’ को जयदेव ने सन् 1971 में आशा भोंसले की आवाज़ में रिकॉर्ड किया था । निराशा में आशा को जगाता यह गीत रस, छंद, अलंकार और अर्थगांभीर्य से समृद्ध है । आशा भोंसले की आवाज़ और जयदेव की शास्त्रीय राग पर आधारित मधुर स्वर-रचना ने इसे प्राणवान बना दिया है । 1971 में ही जयदेव की संगीत-रचना पर आशा भोंसले ने महादेवी वर्मा का गीत ‘कैसे उनको पाऊँँ आली’ भी गाया था ।

हरिवंशराय बच्चन के खंडकाव्य ‘मधुशाला’ को जयदेव ने ही 1973 में संगीतबद्ध किया था जिसे मन्ना डे ने अपनी आवाज़ दी थी । अलग-अलग प्रसंगों के भावों के अनुरूप अलग-अलग रागों से इसे सजाया गया है । उसके बाद 1980 में जयशंकर प्रसाद का गीत ‘बीती विभावरी जाग री’ को जयदेव ने ‘कश्मीर की नाइटिंगेल’ कही जाने वाली गायिका सीमा सहगल से गवाया था । इसी वर्ष उन्होंने महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘उर्वशी’ के एक अंश (3,7) ‘पर क्या बोलूँ, क्या कहूँ , भ्रांति यह देह भाव’ को सुरों में बाँधा । क्लिष्ट हिन्दी से युक्त इस काव्यांश का गायन ‘दक्षिण की लता’ एस.जानकी ने किया है । 1987 में जयदेव की बनाई धुनों पर इसी तरह के दो गीत आशा भोंसले ने और एक गीत भूपेन्द्र ने गाए । इन में से प्रथम दो महादेवी वर्मा के हैं-‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल’ और ‘जो तुम आ जाते एक बार’ तथा तीसरा गीत जयशंकर प्रसाद का है-‘वे कुछ दिन कितने सुंदर थे’ । जयदेव की ये सभी रचनाएँ गीत और संगीत के उत्कृष्ट संगम हैं ।

सन् 2009 में सीमा सहगल ने मैथिलीशरण गुप्त के काव्य ‘यशोधरा’ से एक गीत ‘सखि वे मुझसे कह कर जाते’ को अपना स्वर दिया है । यशोधरा की पीड़ा को संगीत के सुरों ने अधिक गहन बना दिया है । सन् 2014 में एक प्रतिभाशाली संगीतकार राहुल रानाडे ने प्रसाद के 4, दिनकर के 5 और निराला के 4 गीतों को विभिन्न रागों में स्वरबद्ध किया है जो बहुत कर्णप्रिय हैं । इन गीतों में सुरेश वाडेकर, साधना सरगम और डॉ. राधिका चोपड़ा जैसी प्रसिद्ध सुरशिल्पियों की मधुर आवाज़ें हैं । एक और संगीतकार केवल कुमार ने भी कवि केदारनाथ अग्रवाल के कुछ गीतों को सुरों से सज्जित किया है ।

उपरोक्त सभी गीतों में भारतीय वाद्ययंत्रों जैसे सितार, सरोद, बाँसुरी, सारंगी आदि का प्रयोग गीतों के सौंदर्य को द्विगुणित करता है । विशेषकर जयदेव और राहुल रानाडे का संगीत गीतों के भाव प्रकटीकरण में सहायक सिद्ध हुए हैं । इन विशेषताओं से चिन्मयी त्रिपाठी का संगीत और गायन वंचित है । पश्चिमी संगीत में ढाले गए उनके गीतों में भारतीयता की महक अनुपस्थित है । फिर भी हिन्दी के महान कवियों के गीतों को संगीत में पिरोने के ये सभी प्रयास सराहनीय हैं ।

समकालीन सुगम संगीत में अधिकतर गायक या तो भजन गाते हैं या ग़ज़ल । इसका कारण यह है कि इनकी परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है । भजन की परंपरा भक्तिकालीन कवियों से और ग़ज़ल की परंपरा दरबारी संगीत से शुरू हुई है । हिन्दी साहित्य के छायावादी और उसके बाद लिखे जाने वाले गीतों को संगीतबद्ध करने का उपरोक्त के अतिरिक्त कोई और प्रयास नहीं किया गया । बंगला के महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर और तमिल के महाकवि सुब्रमण्यम् भारती के गीत सैकड़ों की संख्या में संगीतबद्ध किए गए । इसकी तुलना में हिन्दी के ख्यातनाम कवियों के गीतों और कविताओं का अल्प सांगीतिक रूप रेगिस्तान में नखलिस्तान के समान है । इन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए इन गीतों को रेडियो और टेलीविज़न चैनलों से बार-बार प्रसारित किए जाने की आवश्यकता है ।

-महेन्द्र वर्मा