जाने किसकी नज़र लग गई

कभी छलकती रहती थीं  बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया कैसे अपनी धरती पर ।

सभी मुसाफिर  इस सराय के  आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की बस जीने की  धरती पर ।

ममतामयी प्रकृति को चिंता है अपनी संततियों की,
सबके लिए जुटा कर रक्खा दाना -पानी धरती पर ।

पूछ  रहे  हो  हथेलियों  पर  कैसे   रेखाएँ   खींचें,
चट्टानों पर ज़ोर लगा, हैं बहुत नुकीली धरती पर ।

रस्म निभाने सबको मरना इक दिन लेकिन उनकी सोच,
जो हैं  अनगिन  बार  मरा  करते  जीते -जी  धरती पर ।

जब से पैसा दूध-सा हुआ  महल बन गए बाँबी-से,
नागनाथ औ’ साँपनाथ की भीड़ है बढ़ी धरती पर ।

मौसम रूठा रूठी तितली रूठी दरियादिली  यहाँ,
जाने किसकी नज़र लग गई आज हमारी धरती पर ।

                                                                                                              -महेन्द्र वर्मा