Showing posts with label अन्धविश्वास. Show all posts
Showing posts with label अन्धविश्वास. Show all posts

आवश्यक है वैज्ञानिक समझ विकसित करना





पिछले दिनों गोवा की राजधानी पणजी में सातवाँ ‘भारत अंतरराष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव’ संपन्न हुआ । सन् 2015 से प्रारंभ हुए इस महत्वपूर्ण आयोजन का एक उद्देश्य युवाओं में वैज्ञानिक समझ की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना भी है । आयोजन का उद्घाटन करते हुए केन्द्रीय विज्ञान और तकनीक मंत्री ने विचार व्यक्त किया कि युवाओं को समीक्षात्मक सोच की ओर प्रेरित करने के लिए भारत के प्रत्येक गाँव और शहर में विज्ञान उत्सव मनाया जाना चाहिए । उन्होंने विज्ञान के समर्थन में बहुत महत्वपूर्ण बातें की किंतु विगत कुछ वर्षों से देश में कुछ ऐसी घटनाएँ और बातें होती रही हैं जो आधुनिक विज्ञान का विरोध करती  और परंपरा के नाम पर अवैज्ञानिक बातों और अंधविश्वासों को प्रश्रय देती प्रतीत होती हैं । यह भी देखा जा रहा है कि संचार माध्यम के सभी साधन वैज्ञानिक तथ्यों की बजाय अवैज्ञानिक तथ्यों और घटनाओं का अधिक प्रचार-प्रसार करते हैं । एक ओर जब हमारे वैज्ञानिक चंद्रमा और मंगल पर अंतरिज्ञ यान भेजते हैं तो आम जन-मानस कोई रुचि प्रदर्शित नहीं करता, वहीं दूसरी ओर ‘थाली बजाने और हवन करने से कोरोना के वायरस नष्ट हो जाते हैं’ जैसी अवैज्ञानिक बातों पर पूरा देश रुचि लेता है और इसे सच मानने लगता है ।

यह युग विज्ञान का युग है । हमारे दैनिक जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप में विज्ञान का दखल है, चाहे वह विज्ञान द्वारा आविष्कृत संसाधन हो या कोई वैज्ञानिक सिद्धांत । ऐसा नहीं है कि विज्ञान का संबंध केवल वैज्ञानिकों या विज्ञान का उच्च अध्ययन करने वालों के साथ ही है । विज्ञान और वैज्ञानिक सोच ने सामान्य व्यक्ति के जीवन को गहराई तक प्रभावित किया है क्योंकि विज्ञान प्रकृति की विशेषताओं का ज्ञान है और मनुष्य प्रकृति का ही एक अंग है । हमारे देश में आधुनिक विज्ञान का प्रवेश लगभग 150 साल पहले हुआ था लेकिन स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में जिस गति से वैज्ञानिक और शैक्षिक प्रगति हुई उस ने सामान्य जन-मानस की परंपरावादी और रूढ़िवादी सोच को कुछ हद तक परिवर्तित कर दिया और अंधविश्वासों के प्रभाव को कम कर दिया । अब लोग गुरुवार को दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करने के बारे में उतना विचार नहीं करते जितना पहले करते थे । 50 साल पहले गाँवों में भूत-प्रेतों से संबंधित घटनाएं रोज घटती थीं अब यदा-कदा ही सुनाई देती हैं । यद्यपि विज्ञान के इतने विकास के बावजूद अनेक रूढ़ियाँ और अंधविश्वास अभी भी समाज में व्याप्त हैं । विज्ञान की समझ जैसे पहले थी वैसी ही आज भी है ।

जब हम वैज्ञानिक समझ की बात करते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे संविधान में नागरिकों के मूल कर्तव्यों के अंतर्गत यह भी उल्लेख किया गया है- ‘‘प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे ।’’ वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है किंतु इसके आशय में वैज्ञानिक सोच, वैज्ञानिक समझ, वैज्ञानिक भावना, वैज्ञानिक साक्षरता, वैज्ञानिक प्रवृत्ति, वैज्ञानिक मिज़ाज, वैज्ञानिक स्वभाव जैसी अवधारणाएँ भी समाहित हैं । वैज्ञानिक समझ का बुनियादी रूप से आशय यह है कि कोई व्यक्ति यह निर्णय कर सके कि किस जानकारी पर भरोसा किया जाए, किसी घटना या तथ्य के बारे में संदेह व्यक्त कर सके, गहराई से विचार कर सके, जिज्ञासा व्यक्त कर सके और प्रश्न पूछ सके । वैज्ञानिक समझ का यह आशय नहीं है कि कोई व्यक्ति हर एक तथ्य के लिए स्वयं प्रमाणों का गहन अध्ययन करे । ज्ञान का क्षेत्र इतना विस्तृत हो चुका है कि कोई महाविद्वान भी सब कुछ जानने का दावा नहीं कर सकता । वैज्ञानिक समझ का संबंध अवलोकन और अंतर्दृष्टि, तर्क और अंतर्ज्ञान, व्यवस्थित और रचनात्मक कार्यशैली से है । यह एक ऐसी मनोवृत्ति को जन्म देता है जो अज्ञानता के विशाल क्षेत्र के प्रति सचेत  होने के बावजूद हमारे चारों ओर के रहस्यों को धीरे-धीरे सुलझाने में सहायक है । वैज्ञानिक समझ रखने का अर्थ विवेकी होना भी है । प्रसिद्ध अमेरिकी खगोलशास्त्री और लेखक कार्ल सागाँ का यह कथन इस संदर्भ में सटीक है - ‘‘विज्ञान ज्ञान का एक समूह होने की बजाए चिंतन की एक शैली है ।’’ वैज्ञानिक समझ वाले समाज में हठवादिता, कट्टरवादिता, असहिष्णुता जैसे विचारों का कोई स्थान नहीं है । विशेषज्ञों का विचार है कि  किसी समाज में वैज्ञानिक समझ वाले व्यक्तियों की संख्या जितनी अधिक होती है, वहाँ की आर्थिक, सामाजिक और वैज्ञानिक प्रगति उतनी ही अधिक बेहतर होती है । जापान इसका एक अच्छा उदाहरण है ।

स्वतंत्रता के बाद सरकारी और ग़ैरसरकारी संस्थाओं ने अब तक आम लोगों के बीच विज्ञान और वैज्ञानिक सोच के प्रचार-प्रसार के लिए जो प्रयास किया वह अपर्याप्त साबित हुआ है । 1958 में तत्कालीन सरकार का ‘वैज्ञानिक नीति संकल्प’ घोषित हुआ जिसमें देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान का अनुप्रयोग सुनिश्चित किया गया । देश का पहला ‘लोक विज्ञान आंदोलन’ 1960 के दशक में केरल के कन्नूर जिले में ‘केरल शास्त्र साहित्य परिषद’ द्वारा किया गया । इस में छात्रों और शिक्षकों के द्वारा गलियों और नुक्कड़ों पर आम आदमी में वैज्ञानिक जागरूकता के लिए रोचक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते थे । इसे विज्ञान-शिक्षा से कहीं अधिक विज्ञान-साक्षरता पर केन्द्रित सर्वोत्तम पहल कहा गया था । 1987 में ‘भारत जन विज्ञान जत्था’ और 1992 में ‘भारत ज्ञान विज्ञान जत्था’ के द्वारा इसी प्रकार के प्रयास देश भर में किए गए । 1988 में गठित ‘ऑल इंडिया प्यूपिल्स साइंस नेटवर्क’ जनसामान्य में विज्ञान जागरूकता के लिए अभी भी सक्रिय है । इस में देश भर के 40 से अधिक विज्ञान संगठन सम्मिलित हैं । सरकारी टेलीविज़न और इंटरनेट के चैनलों में भी विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं । किंतु इन सब उपायों का ज़मीनी स्तर पर कोई व्यापक प्रभाव नहीं हुआ । सरकार की ‘विज्ञान और तकनीकी नीति 2013’ में कहा गया था कि समाज के सभी वर्गों में वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए कार्य किए जाएंगे और 2020 तक भारत को प्रथम 5 वैश्विक विज्ञान शक्तियों में शामिल करा लिया जाएगा । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इसके विपरीत ‘विज्ञान और तकनीकी नीति 2020’ में आधुनिक विज्ञान की बजाय परंपरागत ज्ञान को बढ़ावा देने की बात कही गई है । इस वैज्ञानिक युग में भी निरक्षरता और सांप्रदायिक कट्टरवाद विज्ञान पर हावी हैं । यही कारण है कि हम वैश्विक विज्ञान शक्तियों की सूची में पीछे हैं । ए.डी. साइंटिफिक इंडेक्स की रैंकिंग के अनुसार भारत 20 वें क्रमांक पर है, यद्यपि शोध-पत्र प्रकाशन मे हम तीसरे स्थान पर हैं लेकिन यह तो केवल काग़ज़ी प्रगति हुई ।

देश के वैज्ञानिक मिज़ाज को कुछ और बातें कमजोर कर रही हैं । निजी टेलीविज़न चैनलों में भविष्यफल, भूत-प्रेत और अनेक प्रकार के चमत्कारों से युक्त अंधविश्वासों और रूढ़ियों से संबंधित कार्यक्रम अवैज्ञानिकता को ही बढ़ावा दे रहे हैं । ऐसे तथ्यों को विज्ञान के नाम पर प्रस्तुत किया जाता है जिसे वैज्ञानिक नकार चुके हैं और जिसे छद्म विज्ञान कहा जाता है । और तो और, महत्वपूर्ण व्यक्तियों का एक समूह भी छद्म विज्ञान को समर्थन देता प्रतीत होता है । कभी वे हज़ारों साल पहले भारत में प्लास्टिक सर्जरी होने की बात करते हैं और कभी फलित ज्योतिष को सबसे बड़ा विज्ञान कहते हैं, कभी गोमूत्र और गोबर से कोरोना के इलाज की बात करते हैं और कभी प्राचीन मिथकों में वर्णित विमान को वैज्ञानिक प्रगति से जोड़ते हैं । झूठ, कल्पना और भ्रम से उपजे इस तरह के दावों को विज्ञान नहीं कहा जाता बल्कि ये सब छद्म विज्ञान के उदाहरण हैं । छद्म विज्ञान अर्थात ऐसा कोई तथ्य जो ऊपरी तौर पर विज्ञान होने का भ्रम उत्पन्न करता है लेकिन वास्तव में उसमें रंच मात्र भी विज्ञान नहीं होता । वैज्ञानिक और तर्कवादी इस तरह के छद्म विज्ञान और अंधविश्वासों को आगे बढ़ाने के प्रयासों का विरोध करते रहे हैं ।

21वीं सदी के दो दशक बीत जाने के बाद भी जनसामान्य की वैज्ञानिक समझ का स्तर कैसा है, यह 2013 में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के आँकड़ों में दिखता है । इस सर्वे के अनुसार  आज भी देश के 26 प्रतिशत लोग यह विश्वास करते हैं कि गर्भ में शिशु के लिंग का निर्धारण ईश्वर करता है । 52.6 प्रतिशत लोग यह स्वीकार करते हैं कि भूत-प्रेत का मनुष्यों के ऊपर बुरा प्रभाव पड़ता है । रोगी की चिकित्सा के लिए झाड़-फूँक और तंत्र-मंत्र का प्रचलन आज भी है । डायन होने के संदेह में महिलाओं को आज भी प्रताड़ित करने की घटनाएँ यदा-कदा होती रहती हैं । ये स्थिति तब है जब अनेक राज्यों मे इस तरह के कुछ अंधविश्वासों पर नियंत्रण रखने के लिए कानून भी बनाए गए हैं ।

वर्तमान में समाज में वैज्ञानिक जागरूकता के लिए सरकार द्वारा कोई देशव्यापी अभियान नहीं चलाया जा रहा है । दूरदर्शन में प्रसारित किए जा रहे विज्ञान संबंधी कार्यक्रमों को आम आदमी देखते नहीं हैं । व्यावसायिक चैनलों की पहुँच आम आदमी तक अवश्य है इसलिए इन चैनलों से वैज्ञानिक जागरूकता के कार्यक्रम अनिवार्यतया और निःशुल्क प्रसारित किए जाने के निर्देश दिये जाने चाहिए । जो स्वयंसेवी संस्थाएँ विज्ञान के प्रति जागरूकता कार्यक्रम संचालित कर रहे हैं उन्हें समाज और शासन के द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और संरक्षण प्रदान करना चाहिए । छद्म विज्ञान के प्रचार पर अंकुश लगाना चाहिए ।  वैज्ञानिक सोच/समझ को बढ़ा़वा देने के लिए उसी तरह से व्यापक कार्यक्रम क्रियान्वित करना होगा जैसे पहले दो-तीन दशकों तक साक्षरता अभियान चलाया गया था । यह कार्य भी एक-दो वर्षों में पूरा नहीं होगा । ‘विज्ञान के संदर्भ में साक्षरता’ के लिए दशकों तक प्रयास करना होगा । इस संदर्भ में भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार के. विजय राघवन का विचार महत्वपूर्ण है-  ‘‘किसी चीज़ के बारे में जागरूक करने के लिए उन्हें उस भाषा में जानकारी दी जानी चाहिए जिसमें वे सहज हों । इसलिए भारत में वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ाने के लिए विज्ञान के प्रचार को क्षेत्रीय भाषाओं में करने के लिए पहल करनी होगी ।’’ इसके क्रियान्वयन के लिए प्रत्येक जिले में कलेक्टर की अध्यक्षता में ‘विज्ञान जागरूकता समिति’ का गठन करना होगा और विज्ञान संचारकों की एक टीम बनानी होगी जो गाँव-गाँव जाकर लोगों को क्षेत्रीय बोली में विज्ञान के प्रति जागरूक कर सके । लोगों को परंपराओं, मान्यताओं और अंधविश्वासों पर संदेह करने और सवाल उठाने के लिए प्रशिक्षित करना होगा । उन्हें ‘क्या सोचना है’ के स्थान पर ‘कैसे सोचना है’ सिखाना होगा तभी हम वैश्विक विज्ञान शक्तियों की सूची में उपर का स्थान प्राप्त कर सकेंगे। प्रसिद्ध अमेरिकी खगोलशास्त्री नील टायसन ठीक कहते हैं-  ‘‘सोचने का तरीका जानने से आप उन लोगों  से बहुत आगे निकल जाते हैं जो केवल यह जानते हैं कि क्या सोचना है ।’

-महेन्द्र वर्मा