समर भूमि संसार है, विजयी होते वीर,
मारे जाते हैं सदा, निर्बल-कायर-भीर।
मुँह पर ढकना दीजिए, वक्ता होए शांत,
मन के मुँह को ढाँकना, कारज कठिन नितांत।
दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद,
लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद।
भाँति-भाँति के सर्प हैं, मन जाता है काँप,
सबसे जहरीला मगर, आस्तीन का साँप।
हो अतीत चाहे विकट, दुखदायी संजाल,
पर उसकी यादें बहुत, होतीं मधुर रसाल।
विपदा को मत कोसिए, करती यह उपकार,
बिन खरचे मिलता विपुल, अनुभव का उपहार।
प्राकृत चीजों का सदा, कर सम्मान सुमीत,
ईश्वर पूजा की यही, सबसे उत्तम रीत।
-महेन्द्र वर्मा