लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व कबीलाई समाज में धर्म की अवधारणा का बीजारोपण इसी तरह हुआ । आज भी गाँवों में अन्न, जल, पेड़-पौधे, चूल्हा, चक्की, सूप, बर्तन, मिट्टी, आग, दीपक आदि को पवित्र माना जाता है । लोकधर्म की यही सहज परंपराएँ अनेक सदियों तक बार-बार परिवर्तित होती हुई हज़ारों वर्षों पश्चात संगठित धर्म का रूप ग्रहण कर लेती हैं और फिर लिपिबद्ध हो कर शास्त्र बन जाती हैं ।
प्राचीन युग के मनुष्यों के द्वारा प्रकृति के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना सहज और स्वाभाविक था । पाँच हज़ार वर्ष पूर्व लिखे गए प्रारंभिक धार्मिक शास्त्रों में यह भाव यथावत् है । समय के साथ-साथ प्रकृति पूजा की अवधारणा में बदलाव होता गया । तदनुसार नए-नए शास्त्र लिखे जाते रहे । मूल अवधारणा को लोग भूलते गए । अब तक इतने परिवर्तन हो चुके हैं कि यह अवधारणा अब प्रकृति की सहज विशिष्टताओं के विरुद्ध हो चुकी है ।
पहले संपूर्ण विश्व में धर्म संबंधी अवधारणा एक समान थी । अब लगभग 300 संगठित धर्मों के 300 प्रकार के विचार हैं । प्रत्येक धर्म अपने ईश्वर को ही वास्तविक ईश्वर मानता है । इस प्रकार अब ईश्वर एक नहीं बल्कि 300 हैं । आज के लोकधर्मों को भी सम्मिलित कर लें तो ईश्वरों की संख्या लगभग आठ हज़ार हो जाती है ।
दुनिया का सबसे प्राचीन माना जाने वाला धार्मिक शास्त्र आज भी उपलब्ध है । इसमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर उन के प्रति प्रार्थनाएँ की गई हैं । इसे ईश्वरकृत भी कहा जाता है । किंतु इसके बाद के ग्रंथों में प्रकृति के वे देवता कहीं भी नज़र नहीं आते । कुछ के स्वरूप और स्वभाव बदले हुए है और कुछ नए देवताओं के वर्णन हैं ।
यदि पहले के शास्त्र ईश्वरकृत हैं तो उसमें वर्णित विचारों को बदल कर मनुष्यों द्वारा नए शास्त्र क्यों रचे गए, इसका उत्तर किसी के पास नहीं है । उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचार एक उत्कृष्ट विचार था क्योंकि यह प्रकृति की समस्त शक्तियों का एकीकृत रूप अर्थात ऊर्जा का ही दूसरा नाम था । यह विडंबना ही है कि ब्रह्म की यह अवधारणा आज विलुप्त हो चुकी है ।
सभी धर्मां के बाद में रचे गए शास्त्रों की विचारभिन्नता ने लोगों के बीच द्वेष की भावना में वृद्धि ही की फलस्वरूप धर्म के नाम पर अनेक युद्ध हुए । लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा गया । आज भी यह युद्ध अघोषित रूप से जारी है । धर्म के इस परिवर्तित होते स्वरूप में एक विशेष क्रम दिखाई देता है- पहले इसमें केवल कृतज्ञता और सम्मान का भाव था, फिर आस्था और श्रद्धा का भाव प्रबल हुआ और अब केवल मन-हृदयविहीन प्रदर्शन की भावना है ।
आजकल एक शब्दयुग्म बहुत प्रचलन में है- धार्मिक कट्टरता । धर्म जैसी अवधारणा के साथ कट्टर शब्द का कोई मेल नहीं है । आपने ‘कट्टर दुश्मन’ सुना होगा, क्या कभी ‘कट्टर मित्र’ सुना है ! कट्टर नकारात्मक अर्थ वाला शब्द है, मित्र के साथ उसका प्रयोग नहीं किया जा सकता । जो धर्म में भी नकारात्मकता खोज लेते हैं वे ही कट्टर धार्मिक कहे जा सकते हैं । मनुष्य के स्वभाव की यह विशेषता है कि वह नकारात्मक बातों को आसानी से समझ जाता है और उस पर अमल भी करने लगता है। अपवादस्वरूप कुछ ही लोग अच्छी बातों को समझ पाते हैं ।
एक धार्मिक ग्रंथ में इसमें ‘ईश्वर’ का कथन है- ‘‘ चार प्रकार के लोग मुझे प्रिय हैं, आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी । इनमें भी जिज्ञासु और ज्ञानी मुझे विशेष प्रिय हैं ।’’ जिज्ञासु अर्थात जानने की इच्छा रखने वाला । जिज्ञासु वही होते है जो तार्किक होते हैं, इसीलिए वे प्रकृति के गुणों के कारणों को खोजते रहते हैं और कभी-न-कभी पा भी लेते हैं अर्थात वे जान भी जाते हैं और जो जान लेता है वही ज्ञानी है ।
ऋग्वैदिककालीन देवताओं- द्युः, आपः, मरुत्, इन्द्र, अग्नि, पर्जन्य, ऊषा, सविता, पृथ्वी आदि की विशेषताओं को उन लोगों ने जाना जिन्हें आज हम वैज्ञानिक कहते हैं । ऐसे महान वैज्ञानिक ही सच्चे अर्थों में धार्मिक और आस्तिक हैं क्योंकि वे सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता ऊर्जा की निरंतर ‘उपासना’ करते हैं । इनमें केवल आधुनिक युग के वैज्ञानिक ही नहीं है बल्कि वे अनाम-अज्ञात वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं जिन्होंने लाखों-हज़ारों वर्ष पूर्व आग, पहिया, नाव, वस्त्र, रोटी, भाषा, कृषि आदि की खोज और आविष्कार किया । शेष लोग तो जानने का प्रयास ही नहीं करते, जानने का प्रयास किए बिना ही कुव्याख्यायित कथ्यों को मान लेते हैं ।
-महेन्द्र वर्मा