Showing posts with label जिज्ञासा. Show all posts
Showing posts with label जिज्ञासा. Show all posts

जिज्ञासा और तर्क - मनुष्य के धर्म



 

मनुष्य और अन्य प्राणियों में महत्पूर्ण अंतर यह है कि मनुष्य में सोचने, तर्क करने और विकसित भाषा का प्रयोग करने की क्षमता होती है । शेष कार्य तो सभी प्राणी न्यूनाधिक रूप से करते ही हैं । उक्त विशेष गुणों के कारण ही मनुष्य में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है । 16 वीं शताब्दी के फ्रांसीसी गणितज्ञ-दार्शनिक रेने दकार्त का प्रसिद्ध वाक्य है- ‘‘मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ ।’’ दकार्त को सबसे पहले स्वयं के अस्तित्व के संबंध में ही जिज्ञासा हुई । उसने कहा कि चूँकि में सोच सकता हूँ, तर्क कर सकता हूँ इसलिए बिना संदेह के मेरा अस्तित्व है । इस कथन में यह तात्पर्य भी छिपा हुआ है कि यदि कोई मनुष्य तर्क नहीं करता, जिज्ञासा नहीं करता, सोचता नहीं है तो उसे अपने मनुष्य होने पर संदेह करना चाहिए ।
 

मनुष्य जब अपने विकास की प्रारंभिक अवस्था में था तब उसकी बुद्धि विकसित चौपायों से किंचित ही अधिक थी । समय के साथ-साथ प्रकृति के नियमों के आधार पर मनुष्य के शरीर और बुद्धि में विकास हुआ फलस्वरूप भावनाओं का भी विकास हुआ । अब वह प्राकृतिक  और घटनाओं को देख कर आश्चर्यचकित और भयभीत भी होने लगा । बुद्धि का जब और विकास हुआ तब मनुष्य में  जो एक नई प्रवृत्ति जागृत हुई वह थी जिज्ञासा, प्रकृति में हो रही विभिन्न घटनाओं को और अधिक जानने-समझने की जिज्ञासा, कार्य के पीछे छिपे कारण को जानने की जिज्ञासा । इस जिज्ञासा को प्रेरित किया आश्चर्य और भय ने । यहीं से शुरुआत होती है मनुष्य की चिंतन-प्रक्रिया और उसके द्वारा किए जाने वाले आविष्कारों की । पत्थर का औजार मनुष्य द्वारा आविष्कृत और निर्मित पहला जीवनोपयोगी साधन या ‘यंत्र’ था । इस साधन के निर्माण में केवल जिज्ञासा का योगदान नहीं था बल्कि बुद्धि का एक और गुण ‘तर्क’ का भी योगदान था । फिर तो हज़ारों-लाखो वर्षों की अवधि में मनुष्य ने जिज्ञासा और तर्क के सहारे तीर-कमान, आग, नाव, पहिया, झोपड़ी, वस़्त्र, कृषि, वाद्ययंत्र, भाषा आदि से लेकर कृष्ण विवर, ईश्वरीय कण, तंतु सिद्धांत, जीनोम, कृत्रिम बौद्धिकता आदि तक की खोज कर ली।
 

यह स्वयंसिद्ध है कि सभी मनुष्यों में जिज्ञासा और तर्क की क्षमता एक समान नहीं होती । आदिम मनुष्यों में से कुछ की जिज्ञासा और तार्किक क्षमता ने खोज और आविष्कार की बजाय एक अलग रास्ते का वरण किया । प्राकृतिक घटनाओं से वे भी चकित और भयभीत हुए । उन्होंने भी ‘कार्य और कारण’ के संबंध में ही विचार किया किंतु अधिक तर्क न कर सीधे निष्कर्ष पर पहुँच गए । उन्होंने प्रकृति की शक्तियों पर देवत्व का आरोपण किया । दुनिया के अनेक प्राचीन सभ्यताओं के विविध अवशेषों में इसके साक्ष्य मिलते हैं । प्रारंभ में प्राकृतिक शक्तियों को देवता माना जाना भावनात्मक निष्कर्ष है, तार्किक नहीं । क्योंकि ये सभी शक्तियांँ, जैसे, सूर्य, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वनस्पति आदि सभी प्राणियों के जीवन का पोषण करती हैं इसलिए इन्हें देवतुल्य सम्मान देना तब स्वाभाविक ही था । इस तरह मनुष्य की जिज्ञासा  और तर्क ने दो विचारधाराओं को जन्म दिया जो  मनुष्य की चिंतन-संस्कृति की नींव बनीं । आज ये दोनों विचार धाराएँ विज्ञान और दर्शन के नाम से जानी जाती हैं।
 

दर्शन के विषय-वस्तुओं में जिज्ञासा के बहुत सारे विषय थे । उनमें से जिनका उत्तर प्रत्यक्ष रूप से दिया जा सकता था वे सब विज्ञान के हिस्से में आ गए । जैसे, सृष्टि की रचना कैसे हुई, पदार्थ के मूल तत्व क्या हैं, परम तत्व (उर्जा) क्या है, समय और आकाश क्या है आदि प्रश्नों के उत्तर वैज्ञानिक देने लगे हैं । दर्शन में कुछ प्रश्न ऐसे थे जिनका उत्तर तार्किक रूप से देना संभव ही नहीं है, जैसे, ईश्वर का अस्तित्व, स्वर्ग-नर्क, आत्मा आदि । ऐसे प्रश्नों को आस्था का आधार मिला और इनके तर्क से परे उत्तरों को धर्म की संज्ञा दी गई । इस प्रकार दर्शन का विचार-क्षेत्र धर्म और विज्ञान में विभाजित हो गया । सुकरात और उपनिषदों से प्रारंभ हुई दार्शनिक चिंतन की परंपरा हीगेल और आदि शंकराचार्य तक आकर समाप्त हो जाती है । हीगेल ने तो ‘दर्शन की मृत्यु’ भी घोषित कर दी थी ।

 

भारतीय चिंतन प्रारंभ में प्रत्यक्ष और तर्क पर आधारित था । वैदिक संहिताओं में सर्वत्र पर्यावरणीय घटकों को जीवन का आधार माना गया है । बौधायन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, आर्यभट आदि भारतीय वैज्ञानिकों की जिज्ञासा, उनके प्रयोग और तर्क आधारित विश्वास ने उन्हें गणितज्ञ और वैज्ञानिक बनाया । जिज्ञासा और तर्क की यह परंपरा ऋग्वेद से ही प्रारंभ हो जाती है । दसवें मंडल के नासदीय सूक्त में सूक्त के रचयिता तथ्य और तर्क प्रस्तुत करते हुए विभिन्न प्रश्न करते हैं और अंत में अपना संदेह और  जिज्ञासा भी इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘‘इन विभिन्न सृष्टियों को किसने रचा ? इन  सृष्टियों के जो स्वामी दिव्यधाम में निवास करते हैं, वही इनकी रचना के विषय में जानते हैं । यह भी  संभव है कि उन्हें भी यह सब बातें ज्ञात न हों ।’’  इस सूक्त में आस्था निर्बल है जबकि जिज्ञासा और तर्क प्रबल हैं ।डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसी सूक्त पर टिप्पणी करते हुए 'ए सोर्स बुक इन इंडियन फिलॉसफी' में लिखते हैं - "प्रश्न पूछने की भावना उन में बार-बार बलवती होती थी । चारों ओर संशय का वातावरण था । इस काल का भारतीय अपने देवताओं और समस्त वस्तुओं के अंतिम स्रोत के बारे में जानने की अभिलाषा से ओत-प्रोत था । उसने आस्था तक के लिए प्रार्थना की । और, आस्था के लिए प्रार्थना तब तक संभव नहीं होती जब तक आस्था में ही विश्वास डिग न जाए ।"

 

प्रारंभिक उपनिषदों में भी जिज्ञासा और तर्क की प्रधानता है, आस्था की नहीं । ‘न्याय दर्शन’ के प्रवर्तक महर्षि गौतम ने प्रमाण और तर्क का विस्तृत विवेचन किया है । किंतु इसके बाद के चिंतकों ने जिज्ञसा और तर्क की बजाय आस्था को अधिक महत्व दिया और दर्शन को धार्मिक विचारों में परिवर्तित कर दिया । इन विचारों का प्रभाव इतना अधिक था कि 11वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक  भारत में विज्ञान मृतप्राय  अवस्था में रहा । जिज्ञासा और तर्क ज्ञान-विज्ञान के भूखे होते हैं । एक जिज्ञासु भिन्न-भिन्न तरह से प्रश्न करता है, स्वयं से भी और दूसरों से भी । उसकी जिज्ञासा तभी संतुष्ट होती है जब उसे वांछित ज्ञान-विज्ञान प्राप्त हो जाता है । ‘द जंगल बुक’ के लेखक, नोबल पुरस्कार विजेता साहित्यकार रुडयार्ड किपलिंग ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी है- ‘‘मैं छह ईमानदार सेवक अपने पास रखता हूँ । इन्होंने मुझे हर वह चीज सिखाई है, जो मैं जानता हूँ । इनके नाम हैं- क्या, क्यों, कब, कैसे, कहाँ और कौन ।’’ किपलिंग का जन्म भारत में हुआ था । उन्होंने लिखा है- ‘‘प्रश्न और तर्क करना मैंने भारतीय दर्शन से सीखा है ।’’ आस्था प्रश्न नहीं करती क्योंकि उसे ज्ञान-विज्ञान की आवश्यकता नहीं होती । आज यह स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है कि दुनिया के जिन क्षेत्रों में अतिशय आस्था है वहाँ ज्ञान-विज्ञान की उपेक्षा सप्रयास की जा रही है ।
 

प्रारंभ में धर्म का अर्थ कर्तव्य था । मनीषियों के द्वारा जो धर्मशास्त्र लिखे गए उनमें तत्कालीन समाज व्यवस्था के अनुरूप मनुष्यों के लिये करणीय नैतिक कर्तव्यों का ही विवरण है । इसीलिए उस समय वर्णधर्म, आश्रम धर्म, राजधर्म, गृहस्थधर्म जैसी अवधारणाएँ विकसित हुईं । गौतम धर्मसूत्र में ‘आत्मगुणोः धर्मः’ कहा गया है अर्थात किसी का स्व-गुण ही उसका धर्म कहलाता है । मनुष्य में जिज्ञासा और तर्क का गुण जन्मजात होता है इसलिए प्रकृति प्रदत्त ये दोनों गुण मनुष्य के धर्म हैं ।  यह गुण बचपन में अत्यधिक सक्रिय होता है । बाद में परिवार और समाज द्वारा प्रदत्त रूढ़िजनित संस्कारों के फलस्वरूप उसमें न्यूनता आ जाती है जिससे उसे अपने व्यावहारिक जीवन में अनेक बार असफलताओं का सामना भी करना पड़ता है । जिज्ञासा और तर्क से दूर रहने वालों के लिए अंत में एक बात और- गीता (7.17) में अर्जुन के एक प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘‘मुझे जिज्ञासु और ज्ञानी सबसे अधिक प्रिय हैं ।’’
 

-महेन्द्र वर्मा