शीत - सात छवियाँ



धूप गरीबी झेलती, बढ़ा ताप का भाव,
ठिठुर रहा आकाश है,ढूँढ़े सूर्य अलाव ।

रात रो रही रात भर, अपनी आंखें मूँद,
पीर सहेजा फूल ने, बूँद-बूँद फिर बूँद ।

सूरज हमने क्या किया, क्यों करता परिहास,
धुआँ-धुआँ सी जि़ंदगी, धुंध-धुंध विश्वास ।

मानसून की मृत्यु से, पर्वत है हैरान,
दुखी घाटियाँ ओढ़तीं, श्वेत वसन परिधान ।

कितनी निठुरा हो गई, आज पूस की रात,
नींद राह तकती रही, सपनों की बारात ।

उम्र नहीं अब देखती, छोटी चादर माप,
मन को ऊर्जा दे रहा, जीवन का संताप ।

बुझी अँगीठी देखती, मुखिया बेपरवाह,
परिजन हुए विमूढ़-से, वाह करें या आह ।
                                                                  -महेन्द्र वर्मा

उजाले का स्रोत



सदियों से
‘अँधेरे’ में रहने के कारण
‘वे’
अँधेरी गुफाओं में
रहने वाली मछलियों की तरह
अपनी ‘दृष्टि’ खो चुके हैं ।
उनकी देह में
अँधेरे से ग्रसित
मन-बुद्धि तो है
किंतु आत्मा नहीं
क्योंकि आत्मा
अँधेरे में नहीं रहती
वह तो स्वयं
‘उजाले का स्रोत’ होती है ।
                                                       -महेन्द्र वर्मा

सूर्य के टुकड़े

छंदों के तेवर बिगड़े हैं,
गीत-ग़ज़ल में भी झगड़े हैं।

राजनीति हो या मज़हब हो,
झूठ के झंडे लिए खड़े हैं ।

बड़े लोग हैं ठीक है लेकिन,
जि़ंदा हैं तो क्यूँ अकड़े हैं।
 

दीयों की औकात न पूछो
किसी
सूर्य के ये टुकड़े हैं ।

मौन-मुखर-पाखंड-सत्यता,
मेरे गीतों के मुखड़े हैं ।
                                                   -महेन्द्र वर्मा

मौसम की मक्कारी

हरियाली ने कहा देख लो  मेरी यारी कुछ दिन और,
सहना होगा फिर उस मौसम की मक्कारी कुछ दिन और ।

बाँस थामकर  नाच रहा था  छोटा बच्चा रस्सी पर,
दिखलाएगा वही तमाशा वही मदारी कुछ दिन और ।

हर मंजि़ल का सीधा-सादा रस्ता नहीं हुआ करता,
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी से कर लो यारी कुछ दिन और ।

अंधी श्रद्धा   के बलबूते  टिका नहीं  व्यापार कभी,
बने रहो भगवान कपट से या अवतारी कुछ दिन और ।

ग़म के पौधों  पर यादों की  फलियाँ भी  लग जाएंगी,
अहसासों से सींच सको  ’गर  उनकी क्यारी कुछ दिन और ।

सुकूँ  नहीं मिलता  है दिल को  कीर्तन और अज़ानों से,
हमें सुनाओ बच्चों की खिलती किलकारी कुछ दिन और ।

तस्वीरों  पर  फूल  चढ़ा  कर  गुन  गाएंगे  मेरे  यार,
कर लो जितनी चाहे कर लो चुगली-चारी कुछ दिन और ।


                                                                                                      
-महेन्द्र वर्मा


जाने किसकी नज़र लग गई

कभी छलकती रहती थीं  बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया कैसे अपनी धरती पर ।

सभी मुसाफिर  इस सराय के  आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की बस जीने की  धरती पर ।

ममतामयी प्रकृति को चिंता है अपनी संततियों की,
सबके लिए जुटा कर रक्खा दाना -पानी धरती पर ।

पूछ  रहे  हो  हथेलियों  पर  कैसे   रेखाएँ   खींचें,
चट्टानों पर ज़ोर लगा, हैं बहुत नुकीली धरती पर ।

रस्म निभाने सबको मरना इक दिन लेकिन उनकी सोच,
जो हैं  अनगिन  बार  मरा  करते  जीते -जी  धरती पर ।

जब से पैसा दूध-सा हुआ  महल बन गए बाँबी-से,
नागनाथ औ’ साँपनाथ की भीड़ है बढ़ी धरती पर ।

मौसम रूठा रूठी तितली रूठी दरियादिली  यहाँ,
जाने किसकी नज़र लग गई आज हमारी धरती पर ।

                                                                                                              -महेन्द्र वर्मा

औषधि ये ही तीन हैं

श्रेष्ठ विचारक से अगर, करना हो संवाद,
उनकी पुस्तक बांचिए, भीतर हो अनुनाद।

जिनकी सोच अशक्त है, वे होते वाचाल,
उत्तम जिनकी सोच है, नहीं बजाते गाल।

सुनना पहले सीखिए, फिर देखें हालात,
बुरे वचन में भी दिखे, कोई अच्छी बात।

स्वविश्वास सहेजिए, कभी न होती हार,
तुष्टि विजय यश आत्मबल, अनुगामी हों चार।

महापुरुष जो दे गए, निज कर्मों से सीख,
भूल गई दुनिया उन्हें, कहीं न पड़ती दीख।

स्वाभिमानियों का सदा, ऊँचा रहता माथ,
दंभी तब तक हाँकते, जब तक सत्ता साथ।

प्रकृति समय अरु धीरता, कभी न होते नष्ट,
औषधि ये ही तीन हैं, हरते सारे कष्ट।


                                           
-महेन्द्र वर्मा

सम्मोहन

अगर मैं ये कहूँ
कि
धर्म से हटा दो
आडम्बर पूरी तरह
तो
क्या तुम मुझे
जीने नहीं दोगे
और
अगर मैं ये कहूँ
कि
मैं धर्म में
मिला सकता हूं
कुछ और सम्मोहनकारी आडम्बर
तो
क्या तुम मुझे
महामंडलाधिपति बना दोगे !


                                                   -महेन्द्र वर्मा

कृष्ण विवर

कुछ भी नहीं था
पर शून्य भी नहीं था
चीख रहे उद्गाता ।

जगती का रंगमंच
उर्जा का है प्रपंच,
अकुलाए-से लगते
आज महाभूत पंच,

दिक् ने ज्यों काल से
तोड़ लिया नाता।

न कोई तल होगा
न ही कोई शिखर,
अस्ति और नास्ति को
निगलेगा कृष्ण विवर,

तुम्ही जानते हो
न जानते विधाता।

                    
-महेन्द्र वर्मा

क्लोन

वह
अनादि है
अनंत है
उसे
न तो
उत्पन्न किया जा सकता है
और न ही नष्ट

उसका
नहीं कोई आकार
रूप नहीं, गुण नहीं
वह
पदार्थ भी नहीं
किंतु  विद्यमान है यत्र-तत्र-सर्वत्र

कण-कण में है वह
व्यक्त कर लेता है

स्वयं को अनेक रूपों में भी


कुछ विद्वान
इसे ऊर्जा कहते हैं
किंतु
मुझे तो यह
‘क्लोन’  लगता है

छांदोग्य उपनिषद
में वर्णित ब्रह्म का।


                                               -महेन्द्र वर्मा

देवता

आदमी को आदमी-सा फिर बना दे देवता,
काल का पहिया ज़रा उल्टा घुमा दे देवता।

लोग सदियों से तुम्हारे नाम पर हैं लड़ रहे,
अक़्ल के दो दाँत उनके फिर उगा दे देवता।

हर जगह मौज़ूद पर सुनते कहाँ हो इसलिए,
लिख रखी है एक अर्ज़ी कुछ पता दे देवता।

शौक से तुमने गढ़े हैं आदमी जिस ख़ाक से,
और थोड़ी-सी नमी उसमें मिला दे देवता।

लोग  तुमसे  भेंट  करवाने  का  धंधा  कर  रहे,
दाम उनको बोल कर कुछ कम करा दे देवता।

धूप-धरती-जल-हवा-आकाश के अनुपात को,
कुछ बदल कर देख थोड़ा फ़र्क़ ला दे देवता।

आजकल दुनिया की हालत देख तुम ग़मगीन हो,
कुछ  ग़लत  मैंने  कहा  हो  तो  सज़ा  दे  देवता।

                                                                              -महेन्द्र वर्मा

एक बूंद की रचना सारी : संत सिंगा जी

                      भारत के महान संत कवियों के परिचय की श्रृंखला के अंतर्गत मैंने ब्रह्मवादी संतों को प्राथमिकता दी है। मैं मानता हूं कि ब्रह्मवादी विचारधारा सत्य के अधिक निकट है। यह केवल श्रद्धा पर आधारित नहीं है बल्कि तर्क की कसौटी पर अधिक खरी उतरती है।
ऐसे ही एक ब्रह्मवादी संत सिंगा जी का परिचय प्रस्तुत है-

                       संत सिंगा जी का जन्म वैशाख शुक्ल 11 संवत 1576 को मध्यप्रदेश के खुजरी ग्राम में हुआ था। इनकी माता का नाम गौरबाई तथा पिता का नाम भीमाजी था। बचपन में बालक सिंगा को माता-पिता के द्वारा दिव्य संस्कार प्राप्त हुए। 5 वर्ष बाद इनका परिवार हरसूद में जाकर बस गया। युवा होने पर सिंगाजी का विवाह हो गया किंतु ये गृहस्थ जीवन के प्रति विरागी थे।
                       एक दिन सिंगाजी के कानों ने संत मनरंगीर जी का मधुर गायन सुना। इस भजन को सुनकर सिंगाजी का हृदय वैराग्य से आपूरित हो गया। उन्होंने संत मनरंगीर जी का शिष्यत्व ग्रहण किया और जंगलों में साधना करने लगे। अपने 3 वर्षों के साधना काल में सिंगाजी ने आठ सौ पदों की रचना की। उनकी रचनाओं में प्रमुख हैं- 1. सिंगाजी की बाणावली, 2. आत्म ध्यान, 3. सिंगाजी का दृढ़ उपदेश, 4.आठ वार सिंगाजी का, 5. पंद्रह दिन, 6. सिंगा जी की नराज।
                        संवत 1616 में श्रावण शुक्ल 9 को सिंगाजी ने हरसूद में स्वेच्छा से समाधि ली।


प्रस्तुत है उनका एक पद-

निर्गुण ब्रह्म है न्यारा, कोइ समझो समझणहारा।
खोजत ब्रह्मा जनम सिराना, मुनिजन पार न पाया।
खोजा खोजत शिव जी थाके, ऐसा अपरंपारा।।
सेस सहस मुख रटे निरंतर, रैन दिवस एकसारा।
ऋषि मुनि और सिद्ध चाौरासी, तैंतिस कोटि पचहारा।।
त्रिकुटी महल में अनहद बाजे, होत सबद झनकारा।
सुकमणि सेज सुन्न में झूले, वो है गुरू हमारा।।
वेद कहे अरु कह निरवाणी, श्रोता कहो विचारा।
काम क्रोध मद मत्सर त्यागों, झूठा सकल पसारा।।
एक बूंद की रचना सारी, जाका सकल पसारा।
सिंगाजी भर नजरा देखा, वो ही गुरू हमारा।।

मैं हुआ हैरान

घर कभी घर थे मगर अब ईंट पत्थर हो गए,
रेशमी अहसास सारे आज खद्दर हो गए।

वक़्त की रफ़्तार पहले ना रही इतनी विकट,
साल के सारे महीने ज्यूं दिसंबर हो गए।

शोर ये कैसा मचा है-सत्य मैं हूं, सिर्फ मैं,
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।

परख सोने की भला कैसे सही होगी मगर,
जो ‘कसौटी’ थे वे सारे संगमरमर हो गए।

जख़्म पर मरहम लगा दूं, सुन हुआ वो ग़मज़दा,
मैं हुआ हैरान मीठे बोल नश्तर हो गए।
                                                                                    -महेन्द्र वर्मा