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तानाशाहों की मानसिक प्रवृत्तियाँ





19 वीं शताब्दी तक दुनिया के अधिकांश देशों में राजतंत्र था तब राज्य के प्रमुख शासक को राजा, सम्राट आदि कहा जाता था । अपनी असीमित शक्तियों का प्रयोग करने वाले इनमें से कुछ राजा निरंकुश और अत्याचारी भी हुए । राज और राजा तो अब नहीं रहे किंतु कुछ आधुनिक शासकों में निरंकुशता आज भी देखी जा सकती है । इन आधुनिक शासकों को तानाशाह कहा जाता है। 20 वीं सदी में ऐसे ही कुछ तानाशाहों ने सत्ता के मद में मानवजाति के साथ नृशंस अत्याचार किया । इनके सनकीपन के कारण राजनीतिक हत्याओं और महायुद्धों में लाखों निर्दोष लोगों की जानें गईं । पिछली शताब्दी में जर्मनी के एडोल्फ हिटलर, इटली के बेनिटो मुसोलिनी, स्पेन के फ्रांसिस्को फ्रैंको, युगांडा के ईदी अमीन, ईराक के सद्दाम हुसैन जैसे दर्जनों तानाशाहों ने अपने क्रूर कारनामों से मानवता को कलंकित किया है । आखिर वे कौन से गुण, बल्कि दुर्गुण हैं जो एक शासक को तानाशाह बनाते हैं, इसे जानने के लिए अनेक इतिहासकारों, राजनैतिक विश्लेषकों और मनोवैज्ञानिकों ने शोध किया है । इन पर अनेक लेख, शोध-पत्र और किताबें प्रकाशित हुई हैं । प्रस्तुत लेख में इन्हीं पर आधारित कुछ ऐसे तथ्यों का उल्लेख किया गया है जो एक तानाशाह की मानसिक प्रवृत्तियों का खुलासा करते हैं ।
 
 
तानाशाहों की मानसिक प्रवृत्तियों के संबंध में शोधकर्ताओं ने कुछ मुख्य लक्षणों का विवरण दिया है । इस संबंध में ‘टाइम’ पत्रिका के प्रतिष्ठित लेखक जॉन क्लाउड लिखते हैं- ‘‘नए शोधों ने हमें यह समझने के लिए पहले से कहीं अधिक स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की है कि नेता निरंकुश कैसे बनते हैं । शोध करने वाले मनोवैज्ञानिकों ने तानाशाही व्यवहार के लिए कम-से-कम तीन स्पष्टीकरण दिया है : 1. तानाशाह असामाजिक व्यक्तित्व विकार से ग्रस्त होते हैं । ये न केवल दूसरों से झूठ बोलते हैं बल्कि स्वयं से भी झूठ बोलते हैं । 2. तानाशाह नार्सीसिस्ट होते हैं । मनोविज्ञान की भाषा में नार्सीसिस्ट उन्हें कहा जाता है जो आत्ममुग्धता से ग्रस्त होते हैं । ये स्वयं और दूसरों के साथ अपने संबंधों को वास्तविक रूप में देखने की क्षमता खो देते हैं । वे खुद को एक वीर के रूप में देखते हैं । वे आसपास की वास्तविकताओं को अनदेखा करते हैं । ऐसे नेता उन उपलब्धियों का श्रेय खुद लेने के इच्छुक होते हैं जिन्हें दूसरों ने हासिल किया हो । 3. तानाशाह प्रारंभ में सामान्य व्यक्ति होते हैं किंतु सत्ता प्राप्ति के बाद उनमें मानसिक विकार उत्पन्न होने लगते हैं । चूँंकि तानाशाह झूठ बोलते हैं और ऐसा करने के लिए उन्हें कई जरूरी बातों की अनदेखी करनी पड़ती है जैसे, सच्चाई, सामाजिक मानदंड, दूसरों के हितों का विचार आदि । इन बातों का दमन उनमें मानसिक विकार उत्पन्न करता है ।’’
 
 
‘सायकोलॉजी टुडे’ पत्रिका में मनोविश्लेषक डॉ. जेम्स फालन ने तानाशाहों को मानसिक विकार से ग्रस्त बताते हुए एक लेख में लिखा है- ‘‘तानाशाह सत्ता के असीम भूखे होते हैं । वे बेहद आत्मसम्मोहित, झूठ बोलने में माहिर और संकीर्ण मानसिकता के होते हैं । वे अपने विरोध को बिल्कुल सहन नहीं कर पाते और उस विरोध का विरोध करने के लिए निरंतर सक्रिय रहते हैं । यह घातक मनोरोग मेगालोमैनिया का स्पष्ट संकेत है जिसके रोगियों को संतुष्ट करना लगभग असंभव होता है । ऐसे तानाशाह इन लक्षणों को भी प्रदर्शित करते हैं- जीवन शैली में भव्यता और कृत्रिम आकर्षण, घमंड और दूसरों को कष्ट पहुँचाना ।’’ इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार, ‘‘तानाशाह आमतौर पर निरंकुश राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए धोकाधड़ी और झूठ का सहारा लेते हैं । वे डराने-धमकाने, आतंक और बुनियादी नागरिक स्वतंत्रता के दमन के माध्यम से अपनी निरंकुशता को बनाए रखते हैं ।’’

 
फासिज्म पर शोध करने वाले कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ए. जेम्स ग्रेगोर सामाजिक और व्यावहारिक विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय विश्वकोष में आधुनिक तानाशाही के संबंध में लिखते हैं- ‘‘आधुनिक तानाशाही स्वभाव में लोकलुभावन होती है । वे नियंत्रित चुनावों के माध्यम से अपने लिए जनमत संग्रह की पुष्टि चाहते हैं । ये अपने नेतृत्व को ‘करिश्माई’ दर्शाते हुए सत्तासुख का आनंद लेते हैं । उत्तर कोरिया ऐसी प्रणाली का एक उदाहरण है । आधुनिक तानाशाही ने एक सशक्त राष्ट्रवाद की विशेषताओं को ग्रहण किया है । उदाहरण के लिए रूस के लेनिन और जर्मनी के हिटलर ने यही किया । उन्होंने वर्ग पर आधारित अपनी विचारधारा की प्रतिबद्धता को लोकप्रिय बनाए रखने के लिए ‘देशभक्ति’ का सहारा लिया ।’’
 
 
टिलबर्ग विश्वविद्यालय, नीदरलैंड के प्रोफेसर डॉ. ए.जे.ए. बिज्स्टरवेल्ड ने अपने एक शोधपत्र में तानाशाह, अतिराष्ट्रवाद और नस्लवाद के संबंधों के विषय में लिखा है- ‘‘इटली के तानाशाह मुसोलिनी के विचारों का अधिकांश हिस्सा अतिराष्ट्रवाद से संचालित है । मुसोलिनी का मानना था कि इतालवी जाति अन्य जातियों से श्रेष्ठ है । उसने इतावली लोगों के संबंध में कहा कि ये दुनिया के अन्य लोगों के लिए शिक्षा और संस्कृति के स्रोत हैं । हिटलर एक कुशल वक्ता था । उसके मोहक भाषण राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द ही बुने हुए होते थे । मुसोलिनी की तरह हिटलर ने भी जर्मन जाति को सर्वोच्च बताया । उसने न केवल इस बात पर जोर दिया कि वह जर्मनी को उसकी पूर्व महानता में कैसे वापस लाएगा बल्कि इस पर भी कि अन्य लोगों ने जर्मनी को उस महानता तक पहुँचने के लिए कैसे रोका । अपने दुश्मनों के खिलाफ आक्रामक भाषा का प्रयोग कर उक्त विचारों को प्रचारित करने में वह सफल रहा । इन तानाशाहों ने सत्ता में आने के लिए चुनावों में भी हेर-फेर किया । सत्ता में आने से पहले और बाद में विपक्ष को पंगु बनाने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया ।
 
 
तानाशाहों की मानसिक स्थिति का विश्लेषण करने वाले मनोवैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि सत्ता में अपनी सर्वशक्तिमानता के बावजूद वे अत्यधिक चिंता से पीड़ित होते हैं । वेन स्टेट विश्वविद्यालय के डॉ. डेविन नारहोम और डॉ. सैमुअल हनले ने ‘तानाशाहों का मनोविज्ञान : शक्ति, भय और चिंता’ शीर्षक से प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा है- ‘‘तानाशाह अधिकतर नागरिक विद्रोह अथवा स्वयं पर आ सकने वाले किसी अज्ञात खतरे से चिंतित रहते हैं । उनकी यह चिंता उनके व्यवहार से प्रदर्शित होती है, जैसे ईराक का सद्दाम हुसैन दूसरों को भ्रमित करने के लिए अपने डुप्लीकेट प्रतिरूपों का उपयोग करता था । एक बर्मी तानाशाह थान श्वे ने अपनी राजधानी सुनसान जंगल में बना ली थी । इसी चिंता से बचने के लिए वे स्वयं के अद्वितीय होने का भ्रम भी रचते हैं, जैसे, सद्दाम हुसैन ने खुद को ईराक का उद्धारकर्ता घोषित किया, लीबिया के मुअम्मर गद्दाफी ने खुद को अफ्रीका के ‘राजाओं का राजा’ कहा ।’’ लेखकद्वय आगे लिखते हैं- ‘‘तानाशाह संकीर्ण सोच वाले होते हैं । संकीर्णतावादी लोग उन व्यक्तियों को दंडित करने की तीव्र भावना रखते हैं जो उनके काम का नकारात्मक मूल्यांकन करते हैं । ऐसे तानाशाह विरोधियों की हत्या करवा देते हैं या उन्हें जेल में डाल देते हैं । वे विरोध सहन नहीं कर सकते, खुश रहने के लिए उन्हें अत्यधिक प्रशंसा और समर्थन की चाह होती है ।’’
 
 
डच इतिहासकार फ्रैंक डिकोटर की लिखी पुस्तक ‘हाउ टू बी ए डिक्टेटर’ में तानाशाहों के व्यक्तित्व, चरित्र और व्यवहार का विस्तृत वर्णन है । ऊपर की पंक्तियों में जो तथ्य हैं वे सभी इस पुस्तक में तो हैं ही, तानाशाह के स्वभाव से संबंधित कुछ और तथ्यों का भी विवरण है । डिकोटर लिखते हैं- ‘‘ज्यादातर तानाशाह अपनी भावनाओं को छिपाने में माहिर होते हैं । मुसोलिनी ने खुद को इटली के बेहतरीन अभिनेता के रूप में देखा । हिटलर ने भी खुद को यूरोप का सबसे महान कलाकार कहा । तानाशाह के समर्थक उनकी पूजा करते हैं । वे विरोधियों की निगरानी करते हैं और तानाशाह के कार्यों की आलोचना करने वालों की निंदा करते हैं, उनकी गरिमा को कुचलते हैं । ये समर्थक व्यापक जन-सहमति का भ्रम पैदा करते हैं । प्रायः तानाशाह लोगों की धार्मिक भावनाओं का भी शोषण करते हैं । हिटलर ने जनता के साथ अर्धधार्मिक रूप से जुड़ते हुए खुद को एक मसीहा के रूप में प्रस्तुत किया । मुसोलिनी ने जानबूझ कर ईसाई धर्मनिष्ठा की भक्ति और पूजा की भावनाओं को प्रोत्साहित किया ।’’ डिकोटर ने यह भी लिखा है- ‘‘हिटलर के पास खुद को छोड़कर राष्ट्रवाद और यहूदी विरोधी अपील के अलावा  और कुछ नहीं था । 
 
तानाशाहों के सोचने और कार्य करने के तरीकों के संबंध में उपर दिए गए विवरण यह स्पष्ट करते हैं कि तानाशाह मानवता और निरापद जीवन जीने के अधिकारों का हनन करते हैं । ऐसी मानसिकता वाले शासक प्रजातंत्र को कमजोर करते हैं । इसका विपरीत कथन भी उतना ही सही है, यदि प्रजातंत्र कमजोर होता है तो ऐसे तानाशाह सत्ता पर कब्जा कर लेते हैं । नोबल पुरस्कार प्राप्त नाइजीरियाई साहित्यकार सोयिन्का ने कहा था- ‘‘एक तानाशाही के तहत राष्ट्र का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, जो कुछ बचता है वह एक जागीर है और केवल गुलामों की दुनिया ।''  
 
-महेन्द्र वर्मा


भूतविद्या, मनोरोग और अंधविश्वास




पिछले दिनों भूतविद्या समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनी रही । कुछ ने इसे भूत-प्रेत से संबंधित बताया तो कुछ ने इसे मनोचिकित्सा से संबंधित विद्या कहा । कुछ अतिउत्साही लोगों ने तो इसे पंचमहाभूतों की विद्या भी बता दिया । चूंकि भूतविद्या आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति से संबंधित है इसलिए सही अर्थ और तथ्य जानने के लिए मैंने आयुर्वेद के प्राचीन मूलग्रंथों में ही संदर्भ खोजना प्रारंभ किया । महर्षि चरक और महर्षि सुश्रुत आयुर्वेद के जनक माने जाते हैं । मैंने इनके द्वारा रचित ग्रंथ ‘चरक संहिता’ और ‘सुश्रुत संहिता’ के अतिरिक्त वाग्भट्ट के ‘अष्टाङ्ग हृदयम्’ में भी भूतविद्या के संबंध में तथ्य खोजना प्रारंभ किया । इन तीनों ग्रंथों की जो प्रतियाँ मुझे प्राप्त हुईं उन में मूल संस्कृत पाठ के साथ हिंदी टीका भी दी गई है । चरक संहिता के टीकाकार अत्रिदेव गुप्त, सुश्रुत संहिता के डॉ. अंबिका दत्त शास्त्री और अष्टाङ्ग हृदयम् के पं. राधारमण त्रिपाठी हैं ।

उक्त ग्रंथों में भूतविद्या से संबंधित अध्यायों का अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सभी प्राचीन तथ्य सदैव प्रासंगिक नहीं होते । एक और महत्वपूर्ण तथ्य ज्ञात हुआ कि जिन बातों को अधिकांश लोग, जिनमें प्राच्यविद्याग्रही भी सम्मिलित हैं,  आज अंधविश्वास कहते हैं, उनकी जड़ें इन प्राचीन ग्रंथों में हैं । यह भी पता चला कि लोक परंपराएँ और रूढ़ियाँ किस तरह शास्त्रों में दर्ज हो कर ज्ञान का स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं और सदियों बाद विज्ञान के आलोक में वही  तथाकथित  ज्ञान  पुनः  किस तरह अंधविश्वास की श्रेणी में पड़ा नज़र आने लगता है ।
भूतविद्या से संबंधित कुछ तथ्यों को उदाहरण के रूप में यहाँ उद्धरित किया गया है ताकि इस संबंध में आपकी जिज्ञासा जागृत हो सके और मूल ग्रंथों से उन अंशों का आप भी अध्ययन करें । उद्धरित अंशों का केवल हिंदी अनुवाद दिया जा रहा है, कोष्ठक में अध्याय और श्लोक संख्या का उल्लेख है । अनुवाद की भाषा यथावत है ।

सबसे पहले सुश्रुत संहिता के अनुसार भूतविद्या की परिभाषा देखिए-

‘‘देव, दैत्य, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, पिशाच, नाग ग्रहादि से पीड़ित चित्त वाले लोगों के दोष की शांति के लिए हवन, बलि आदि उपायों के लिए जो  अंग (आयुर्वेद का विषय) होता है उसे भूतविद्या कहते हैं।’’(सु.सं.,भाग1,1.8.4)

अष्टाङ्गहृदयम् के टीकाकार ने इसे और स्पष्ट किया है-

‘‘ग्रहचिकित्सा (भूतविद्या)- इस में देव, असुर, पूतना आदि ग्रहों से गृहीत प्राणियों के लिए शांतिकर्म की व्यवस्था की जाती है । इन में बालग्रह तथा स्कंदग्रहों का भी समावेश है, साथ ही इनकी भी शांति के उपायों की चर्चा की गई है ।’’(अ.हृ., 1.5)

चरक संहिता में भूतविद्या या ग्रहचिकित्सा को उन्माद या मनोरोग की चिकित्सा बताते हुए इसके कारणों का भी उल्लेख किया गया  है । उन में से एक प्रकार का उन्माद और उसका कारण यह भी है-

‘‘आगंतुक उन्माद- देवता, ऋषि, गंधर्व, पिशाच, यक्ष, राक्षस और ब्रह्मराक्षस, पितर आदि ग्रहों का तिरस्कार करना, नियमपूर्वक व्रतादि का आचरण न करना और पूर्वजन्म में उत्तम कर्म न होना, ये आगंतुक उन्माद रोग के कारण हैं ।’’(च.सं.,9.16)

चरक संहिता में ही बताया गया है कि उन्माद रोग का आरंभ कैसे होता है-

‘‘उन्माद उत्पन्न करने वाले भूतों की उन्माद आरंभ करने की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न होती है, यथा- देव आंखों से देख कर, गुरु. व्द्ध, सिद्ध और ऋषिजन शाप दे कर, गंधर्वगण स्पर्श कर, यक्ष शरीर में प्रवेश कर, राक्षस सड़े मांस का गंध सुँघा कर और पिशाच शरीर पर सवार हो कर उन्माद रोग उत्पन्न करते हैं ।’’(च.सं.,खंड1,निदान.,7.14)
ग्रहपीड़ित या उन्माद रोग की चिकित्सा के लिए अनेक उपचारों का उल्लेख इन ग्रंथों में है । मंत्रयुक्त शांति पाठ, हवन, बलि, नस्य, अभ्यंग, दान, व्रत, औषधियों के विभिन्न योग के अतिरिक्त ग्रहोपचार के लिए कुछ विचित्र विधियों का भी उल्लेख है । सुश्रुत संहिता में ऐसी ही एक विधि यह है-

‘‘उन्मादे भयविस्मापनादि चिकित्सा- उन्माद के रोगी को जो वस्तु उस ने अपने जीवन में न देखी हो, ऐसी अद्भुत वस्तुएँ दिखानी चाहिए । जैसे, उसके मन और मष्तिष्क पर एकदम प्रभाव पटकने के लिए उसकी स्त्री, माता, पिता, आदि अत्यंत प्रिय व्यक्ति के मरने की मिथ्या खबर देनी चाहिए । इस के अतिरिक्त उसे भीषण आकार वाले राक्षस स्वरूपी मनुष्यों से अथवा बड़े-इड़े दाँत वाले सिखाए गए हाथियों से या विषरहित सर्पों से डराना चाहिए । पाशों तथा रस्सियों से उन्माद रोगी को सुनियंत्रित कर कोड़ों से मारना चाहिए । उसे रस्सी से बांध कर तथा अग्न्यावरोधी कवचादि से सुरक्षित कर घास की अग्नि से डराना चाहिए । गर्म पानी में डुबाने की चेष्टा या धमकी से डराना चाहिए । हृदयादिक मर्मों की चोट से बचाते हुए उसके शरीर में मोटी सुइुर् चुभो के पीड़ा उत्पन्न करनी चाहिए । रोगी को किसी घर के भीतर प्रविष्ट कराके उस की रक्षा का ध्यान रखते हुए उस घर के अंदर अथवा बाहर चारों तरफ आग लगा देनी चाहिए । जल से रहित ढक्कन वाले कुएं में उसे निरंतर कुछ समय तक रखना चाहिए ।’’(सु.सं.,उ.तं.,60.18-21)

चरक संहिता में भी इसी प्रकार की चिकित्सा का उल्लेख है-

‘‘शोधन करने पर भी यदि रोगी में आचार की अपवित्रता हो तो तीक्ष्ण नस्य, तीक्ष्ण अंजन, दण्ड आदि से पीटना, मन, बुद्धि और शरीर को उद्विग्न करने वाले कार्य करना हितकारी है ।’’(च.सं.,चि, 9.36)
‘‘उन्माद रोगी के शरीर पर सरसों का तेल लगाकर, हाथ पांव बाँध कर पीठ के भार धूप में लिटा दें । फिर गर्म लोहे, गर्म तेल या गर्म जल से स्पर्श करे । कोड़ों से पीटे, बाँधे, एकांत घर में बंद रखे । ऐसा करने से रोगी का विक्षिप्त चित्त शांत हो जाता है ।‘‘(च.सं.,चि, 9.87-88)

उक्त उद्धरणों को पढ़ कर किसी भी विवेकी का मन सिहर उठेगा । संभव है कि ये विधियाँ उस समय के मनोरोगों के लिए कारगर रही हों किंतु आज के संदर्भ में क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि तब निश्चित ही मनोरोग संबंधी ज्ञान बहुत सीमित था ? मनोरोग की जो अवधारणा पहले थी वह आज चिकित्साविज्ञानिकों द्वारा खारिज की जा चुकी है । आश्चर्य है कि आज से दो हजा़र वर्ष पूर्व की तथाकथित मनोचिकित्सा आज भी ओझाओं और बाबाओं द्वारा जारी है । इन के इलाज से कई बार रोगी की मृत्यु भी हो जाती है । मनोरोग को भूतबाधा बता कर रोगी को तरह-तरह के कष्ट देना किसी भी स्थिति में उचित नहीं है ।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने मनोचिकित्सा के क्षेत्र में आशातीत प्रगति की है । प्रत्येक बड़े अस्पताल में मनोचिकित्सा आधुनिक विधियों से होती है । हम सब को प्रयास करना चाहिए कि मनोरोग चिकित्सा के इन प्राचीन क्रूर तरीकों से हमारा समाज छुटकारा पा सके ।


(टीप-  यह लेख मनोरोग के कारण संबंधी प्राचीन भ्रम को दूर करने और जन-जागरूकता के लिए लिखा गया है । चिकित्सा संबंधी दिए  गए  उदाहरण  विषय  को स्पष्ट  करने के लिए हैं । इन्हें किसी भी स्थिति में व्यवहार में      न    लाएँ ।)


-महेन्द्र वर्मा