ज्ञान और ईमान अब, हुए महत्ताहीन,
छल-प्रपंच करके सभी, धन के हुए अधीन।
बिना परिश्रम ही किए, यदि धन होता प्राप्त,
वैचारिक उद्भ्रांत से, मन हो जाता व्याप्त।
जैसे-जैसे लाभ हो , वैसे बढ़ता लोभ,
जब अतिशय हो लोभ तब, मन में उठता क्षोभ।
भूत और भवितव्य पर, नहीं हमारा जोर,
सुलझाते चलते रहो, वर्तमान की डोर।
रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।
सुख की छाया में सदा, पलता रहता राग,
दुख का कारण बन गया, किंतु राग की आग।
जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।
-महेन्द्र वर्मा