ग्रेगोरियन कैलेण्डर

                                                                                                                              
 तिथि, माह और वर्ष की गणना के लिए ईस्वी सन् वाले कैलेण्डर का प्रयोग आज पूरे विश्व में हो रहा है। यह कैलेण्डर आज से 2700 वर्श पूर्व प्रचलित रोमन कैलेण्डर का ही क्रमषः संषोधित रूप है। 46 ई. पूर्व में इसका नाम जूलियन कैलेण्डर हुआ और 1752 ई. से इसे ग्रेगोरियन कैलेण्डर कहा जाने लगा। आज यह कैलेण्डर इसी नाम से प्रसिद्ध है । रोमन कैलेण्डर का ग्रेगोरियन कैलेण्डर में परिवर्तित होने तक की कहानी बहुत रोचक है ।
रोमन कैलेण्डर की शुरुआत रोम नगर की स्थापना करने वाले पौराणिक राजा रोम्युलस के पंचांग से होती है। वर्ष की गणना रोम नगर की स्थापना वर्ष 753 ई. पूर्व से की जाती थी। इसे संक्षेप में ए.यू.सी. अर्थात एन्नो अरबिस कांडिटाइ कहा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘शहर की स्थापना के वर्ष से‘ हैं।

रोम्युलस के इस कैलेण्डर में वर्ष में दस महीने होते थे। इन महीनों में प्रथम चार का नाम रोमन देवताओं पर आधारित था, शेष छह महीनों के नाम क्रम संख्यांक पर आधारित थे। दस महीनों के नाम क्रमशः इस प्रकार थे- मार्टियुस, एप्रिलिस, मेयुस, जूनियुस, क्विंटिलिस, सेक्स्टिलिस, सेप्टेम्बर, आक्टोबर, नोवेम्बर और डिसेम्बर। मार्टियुस जिसे अब मार्च कहा जाता है, वर्ष का पहला महीना था। शेष छह महीनों के नामों का अर्थ क्रमशः पांचवां, छठवां, सातवां, आठवां, नवां और दसवां था । नए वर्ष का आरंभ मार्टियुस अर्थात मार्च की 25 तारीख को होता था क्योंकि इसी दिन रोम के न्यायाधीश शपथ ग्रहण करते थे। इस कैलेण्डर में तब जनवरी और फरवरी माह नहीं थे।

लगभग 700 ई. पूर्व (रोमन संवत् के अनुसार 53 ए.यू.सी.) रोम के द्वितीय नरेश न्यूमा पाम्पलियस ने 10 महीने वाले कैलेण्डर को 12 महीने वाले कैलेण्डर में परिवर्तित कर दिया । कैलेण्डर में दो नए महीने - जेन्युअरी और फेब्रुअरी - क्रमशः ग्यारहवें और बारहवें महीने के रूप में जोड गए। रोमन देवता जेनुअस के नाम पर जेन्युअरी महीने का नाम रखा गया । फेब्रुअरी  लेटिन शब्द फेब्रुअम से बना है जिसका अर्थ है-शुद्धिकरण । प्राचीन रोम में ‘शुद्धिकरण’ एक त्योहार था जिसे वर्ष की अंतिम पूर्णिमा को मनाया जाता था । यह कैलेण्डर 355 दिनों के चांद्र वर्ष अर्थात 12 पूर्णिमाओं पर आधारित था इसलिए इसमें दो नए महीने जोड़े गए। इसमें 7 महीने 29 दिनों के, 4 महीने 31 दिनों के और फेब्रुअरी महीना 28 दिनों का होता था।  इस कैलेण्डर का उपयोग रोमवासी 45 ई. पूर्व तक करते रहे।

सन् 46 ई. पूर्व में रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने अनुभव किया कि त्योहार और मौसम में अंतर आने लगा है। इसका कारण यह था कि प्रचलित कैलेण्डर चांद्रवर्ष पर आधारित था जबकि ऋतुएं सौर वर्ष पर आधारित होती हैं। जूलियस सीज़र ने अपने ज्योतिषी सोसिजेनस की सलाह पर 355 दिन के वर्ष में 10 दिन और जोड़कर वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे निर्धारित किया। वर्ष की अवधि में जो छह घंटे अतिरिक्त थे वे चार वर्षों में कुल 24 घंटे अर्थात एक दिन के बराबर हो जाते थे। अतः सीज़र ने प्रत्येक चौथे वर्ष का मान 366 दिन रखे जाने का नियम बनाया और इसे लीप ईयर का नाम दिया। लीप ईयर के इस एक अतिरिक्त दिन को अंतिम महीने अर्थात फेब्रुअरी में जोड़ दिया जाता था। जूलियस सीज़र ने क्विंटिलिस नामक पांचवे माह का नाम बदलकर जुलाई कर दिया क्योंकि उसका जन्म इसी माह में हुआ था।

जूलियस सीज़र द्वारा संशोधित रोमन कैलेण्डर का नाम 46 ई. पूर्व से जूलियन कैलेण्डर हो गया। इसके 2 वर्ष पश्चात सीज़र की हत्या कर दी गई। आगस्टस रोम का नया सम्राट बना। आगस्टस ने सेक्स्टिलिस महीने में ही युद्धों में सबसे अधिक विजय प्राप्त की थी इसलिए उसने इस महीने का नाम बदलकर अपने नाम पर आगस्ट कर दिया।

जूलियन कैलेण्डर अब प्रचलन में आ चुका था। किंतु कैलेण्डर बनाने वाले पुरोहित लीप ईयर संबंधी व्यवस्था को ठीक से समझ नहीं सके । चौथा वर्ष गिनते समय वे दोनों लीप ईयर को शामिल कर लेते थे। फलस्वरूप प्रत्येक तीन वर्ष में फेब्रुअरी माह में एक अतिरिक्त दिन जोड़ा जाने लगा। इस गड़बड़ी का पता 50 साल बाद लगा और तब कैलेण्डर को पुनः संशोधित किया गया। तब तक ईसा मसीह का जन्म हो चुका था किंतु ईस्वी सन् की शुरुआत नहीं हुई थी। जूलियन कैलेण्डर के साथ रोमन संवत ए.यू.सी. का ही प्रयोग होता था। ईस्वी सन् की शुरुआत ईसा के जन्म के 532 वर्ष बाद सीथिया के शासक डाइनीसियस एक्लिगुस ने की थी। ईसाई समुदाय में ईस्वी सन् के साथ जूलियन कैलेण्डर का प्रयोग रोमन शासक शार्लोमान की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात सन् 816 ईस्वी से ही हो सका।

जूलियन कैलेण्डर रोमन साम्राज्य में 1500 वर्षों तक अच्छे ढंग से चलता रहा। अपने पूर्ववर्ती कैलेण्डरों से यह अधिक सही था फिर भी पूरी तरह से शुद्ध नहीं था । गणितज्ञ जब सूक्ष्म गणना करने लगे तो उन्होंने पाया कि जूलियन कैलेण्डर का वर्षमान सौर वर्ष से 0.0078 दिन या लगभग 11 मिनट अधिक था। बाद के 1500 वर्षों में यह अधिकता बढ़कर पूरे 10 दिनों की हो चुकी थी।

1582 ई. में रोम के पोप ग्रेगोरी तेरहवें ने कैलेण्डर के इस अंतर को पहचाना और इसे सुधारने का निश्चय किया। उसने 4 अक्टूबर 1582 ई. को यह व्यवस्था की कि दस अतिरिक्त दिनों को छोड़कर अगले दिन 5 अक्टूबर की बजाय 15 अक्टूबर की तारीख होगी, अर्थात 5 अक्टूबर से 14 अक्टूबर तक की तिथि कैलेण्डर से विलोपित कर दी गई। भविष्य में कैलेण्डर वर्ष और सौर वर्ष में अंतर न हो, इसके लिए ग्रेगोरी ने यह नियम बनाया कि प्रत्येक 400 वर्षों में एक बार लीप वर्ष में एक अतिरिक्त दिन न जोड़ा जाए। सुविधा के लिए यह निर्धारित किया गया कि शताब्दी वर्ष यदि 400 से विभाज्य है तभी वह लीप ईयर माना जाएगा। इसीलिए सन् 1600 और 2000 लीप ईयर थे किंतु सन् 1700, 1800 और 1900 लीप ईयर नहीं थे, भले ही ये 4 से विभाज्य हैं।

ग्रेगोरी ने जूलियन कैलेण्डर में एक और महत्वपूर्ण संशोधन यह किया कि नए वर्ष का आरंभ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से कर दिया। इस तरह जनवरी माह जो जूलियन कैलेण्डर में 11वां महीना था, पहला महीना और फरवरी दूसरा महीना बन गया। शेष महीनों का क्रम वही रहा किंतु क्रमांक बदल गए । संख्यासूचक महीने सेप्टेम्बर, अक्टोबर, नोवेम्बर और डिसेम्बर क्रमशः सातवें, आठवें, नवें और दसवें के स्थान पर अब क्रमशः नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें महीने बन गए । ग्रेगोरी ने महीनों के दिनों की संख्या को भी नए रूप में निर्धारित किया ।

ग्रेगोरी के द्वारा किए गए इन संशोधनों के पश्चात जूलियन कैलेण्डर को ग्रेगोरियन कैलेण्डर कहा जाने लगा । उक्त व्यापक परिवर्तनों के कारण 16 वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में तिथि को लेकर प्रायः भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी । इस भ्रम को दूर करने के लिए 4 अक्टूबर, 1582  की किसी तारीख को लिखने के लिए ओ.एस. यानी ओल्ड स्टाइल और उसके बाद की तारीख के साथ एन.एस. यानी न्यू स्टाइल लिखा जाता था । आज भी किताबों में 4 अक्टूबर, 1582 के पहले की तिथियां जूलियन कैलेण्डर के अनुसार और उसके बाद की तिथियां ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार लिखी होती हैं ।

सन् 1582 में पोप ग्रेगरी द्वारा संशोधित कैलेण्डर को रोमन कैथोलिक देशों ने तुरंत अपना लिया था किंतु प्रोटेस्टेंट, ग्रीक कैथोलिक, सात्यवादी तथा पूर्वी देशों ने इसे तुरंत लागू नहीं किया। इटली, डेनमार्क और हालैंड ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर को उसी वर्ष अपना लिया। लेकिन शेष देशों ने बहुत बाद में, अलग-अलग वर्षों में स्वीकार किया ।

ग्रेट ब्रिटेन ने ग्रेगोरियन कैण्डर को उसके प्रवर्तन के 170 वर्षों के पश्चात अर्थात सन् 1752 में अपनाया । लेकिन तब तक ब्रिटेन में प्रचलित जूलियन कैलेण्डर 10 की बजाय 11 दिन आगे बढ़ चुका था । इसलिए जब ग्रेट ब्रिटेन ने 2 सितंबर, 1752 को इसे अपनाया तो कैलेण्डर में पूरे 11 दिन कम करने पड़े । जूलियन कैलेण्डर के अनुसार 2 सितंबर 1752 की तिथि के पश्चात अगले दिन की तारीख ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार 14 सितंबर घोषित की गई । इस के लिए ब्रिटेन को संसद में बाकायदा ‘न्यू स्टाइल कैलेण्डर एक्ट’ नामक विधेयक पारित करना पड़ा । जनता पर इस का व्यापक असा पड़ा । ब्रिटेन के इस कदम पर उस समय दंगे भी हुए । लोगों के मन में इस बात को लेकर विरोध और आक्रोश था कि सरकार ने उनके जीवन के 11 दिन छीन लिए । वे सड़कों पर नारे लगाते थे- ‘‘हमारे 11 दिन हमें वापस करो ।’’ बहरहाल ब्रिटेन के सभी उपनिवेशों में भी नया कैलेण्डर 1752 में लागू हो गया था ।

जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने 1759 ई. में, आयरलैंड ने 1839 ई. में और थाईलैंड ने सबसे बाद में, सन् 1941 में इस नए कैलेण्डर को अपने देश में लागू किया। तत्कालीन रूसी सरकार ने सन् 1917 में ग्रेगोरियन कैलेण्डर को जब अपने देश में लागू किया तो उसे 14 दिन कम करने पड़े । रूस की 1917 की बोल्शिविक क्रांति को महान अक्टूबर क्रांति कहा जाता है, वास्तव में यह क्रांति ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार 7 नवंबर को हुई थी ।
कैलेण्डर की यह रोचक कहानी अधूरी ही रहेगी यदि हम इस बात की चर्चा न करें कि टैक्स निर्धारण के लिए वर्ष की गणना 1 अप्रेल से क्यों की जाती है, 1 जनवरी से क्यों नहीं ।

मध्ययुग में यूरोप के अधिकांश  देशों में वर्ष का आरंभ 25 मार्च को होता था इसलिए अन्य देशों की तरह ब्रिटेन में भी टैक्स की गणना 25 मार्च से की जाती थी । एंग्लो सैक्सन इंग्लैंड में क्रिसमस के दिन को नए वर्ष का प्रारंभ माना जाता था । वहां के राजा विलियम प्रथम ने जूलियन कैलेण्डर का अनुसरण करते हुए वर्ष का प्रारंभ 1 जनवरी से कर दिया था लेकिन टैक्स की गणना 25 मार्च से होती रही । ग्रेगोरी के कैलेण्डर को सन्1752 में ब्रिटेन ने अपनाया तो 25 मार्च की तिथि को 11 दिन बढ़ा कर 5 अप्रेल करना पड़ा । तब से करों की गणना 5 अप्रेल से होने लगी ।

सन्1800 ई. में एक भूल यह हुई कि इस वर्ष को लीप ईयर मानकर फरवरी 29 दिन का कर दिया गया था । इस भूल को सुधारने के लिए 1 दिन कैलेण्डर में से फिर निकालना पड़ा । फलस्वरूप 5 अप्रेल की तिथि 6 अप्रेल हो गई । ब्रिटेन में अभी भी करों की गणना 6 अप्रेल से की जाती है किंतु अधिकांश देशों ने 6 अप्रेल के स्थान पर निकटतम और सुविधाजनक तिथि 1 अप्रेल को चुना । यही कारण है कि हमारे देश में भी करों की गणना 1 अप्रेल से की जाती है और इसीलिए वित्तीय वर्ष भी 1 अप्रेल से 31 मार्च तक माना जाता है ।

ग्रेगोरियन कैलेण्डर का उपयोग आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है किंतु यह अभी भी पूर्ण रूप से त्रुटिहीन नहीं है । गणितज्ञों के अनुसार ग्रेगोरियन कैलेण्डर के औसत वर्षमान और सौर वर्षमान में 27 सेकंड का अंतर है । यह अंतर 3236 वर्षों में 1 दिन का और 32360 वर्षों में 10 दिनों का हो जाएगा । इस प्रकार हज़ारों वर्षों बाद ऋतुओं और महीनों का क्रम असंगत होने लगेगा । कम्प्यूटर विशेषज्ञों ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर सहित विश्व के किसी भी कैलेण्डर पद्धति को अनुपयुक्त माना है । उन्होंने काल गणना के लिए अपना एक अलग मानक ‘रेटा डाइ’ का प्रयोग प्रारंभ कर दिया है ।


   -महेन्द्र वर्मा

पूजा से पावन





                 जाने -पहचाने  बरसों के  फिर  भी   वे अनजान लगे,
                 महफ़िल सजी हुई है लेकिन सहरा सा सुनसान लगे ।

                इक दिन मैंने अपने ‘मैं’ को अलग कर दिया था ख़ुद से,
                अब जीवन  की  हर  कठिनाई  जाने क्यों आसान लगे ।

                 चेहरे  उनके  भावशून्य  हैं  आखों  में  भी  नमी  नहीं,
                 वे  मिट्टी  के  पुतले  निकले  पहले  जो  इन्सान  लगे ।

                 उजली-धुँधली यादों की जब चहल-पहल सी रहती है,
                 तब  मन  के  आँगन का कोई कोना क्यों वीरान लगे ।

                  होते  होंगे  और कि जिनको भाती है आरती अज़ान,
                  हमको  तो  पूजा  से  पावन बच्चों की मुस्कान लगे ।

                                                                                                                            -महेन्द्र वर्मा

तितलियों का ज़िक्र हो





प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफ़िलों में अब ज़रा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।


मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।


रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या ज़रूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।


फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।


गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गाँव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।


इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।


दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।

                                                                            -महेन्द्र वर्मा                                            

ऊबते देखे गए



भीड़ में अस्तित्व अपना खोजते देखे गए,
मौन थे जो आज तक वे चीखते देखे गए।

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर ज़िंदगी से भागते देखे गए।

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

                                                                           
                                                                       



 -महेन्द्र वर्मा

तबला वादन में ख्यातिलब्ध महिलाएँ






             हिंदुस्तानी संगीत में तालवाद्यों में तबला सबसे अधिक प्रतिष्ठित वाद्ययंत्र है । शास्त्रीय संगीत हो या सुगम, गायन-वादन हो या नृत्य, एकल वादन हो या संगत, लोकगीत हो या सिनेगीत, सभी में तबले की श्रेष्ठ भूमिका सदैव रही है । सदियों से इस तालवाद्य पर पुरुषों का एकाधिकार रहा है । यह माना जाता था कि तबला वादन एक कठिन कला है ,इसमें अन्य वाद्यों की तुलना में अधिक शारीरिक और मानसिक परिश्रम की आवश्यकता होती है इसलिए इसे महिलाएँ नहीं बजा सकतीं।

              किंतु यह मान्यता अब टूट चुकी है । देश और विदेश की अनेक महिलाएँ आज शास्त्रीय तबला वादन के क्षेत्र में पर्याप्त प्रतिष्ठा और ख्याति अर्जित कर रही हैं, एकल वादन और संगतकार, दोनों रूपों में ।
आइए, जानें कुछ प्रसिद्ध महिला तबला वादकों का संक्षिप्त परिचय -


डॉ. अबन मिस्त्री
डॉ. अबन मिस्त्री

आज से लगभग 5 दशक पूर्व स्व. डॉ. अबन ई. मिस्त्री (1940-2012 ) को मंच पर    एकल तबला वादन करते हुए देख कर लोग आश्चर्यचकित हुए थे । इन्हें प्रथम महिला तबला वादक होने का गौरव प्राप्त हुआ । तबला विषय पर पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त करने और अपने तबला वादन का एलबम जारी करने वाली ये पहली महिला कलाकार थीं । ये अन्य महिला कलाकारों के लिए प्रेरणास्रोत भी बनीं ।







अनुराधा पाल

डॉ. मिस्त्री के पश्चात तबला वादन के क्षेत्र में जिन्होंने विश्व में प्रसिद्धि प्राप्त की, वे हैं पं. अनुराधा पाल ( जन्म 1975, निवास मुंबई ) जिन्हें ‘तबला क्वीन’ और ‘लेडी ज़ाकिर हुसैन’ भी कहा जाता है । इन्होंने उस्ताद अल्लारक्खा ख़ाँ और उस्ताद ज़ाकिर हुसैन से तबले की शिक्षा ग्रहण की थी । अनेक पुरस्कारों से सम्मानित पं. अनुराधा पाल ‘स्त्री शक्ति’ और ‘रिचार्ज’ नामक संगीत मंडली संचालित करती हैं । देश और विदेश के अनेक बड़े आयोजनों में ये प्रसिद्ध संगीतविदों के साथ तबला संगत करने के अलावा एकल वादन और अपनी संगीत मंडली के कार्यक्रमों की प्रस्तुति करती रही हैं ।





रिम्पा सिवा 

‘प्रिंसेस ऑफ तबला’ के नाम से चर्चित डॉ. रिम्पा सिवा ( जन्म 1986 ) निवास कोलकाता तबला वादन के नए आयाम गढ़ रही हैं । 14 वर्ष की आयु में पं. हरिप्रसाद चौरसिया जी के साथ तबला संगत करने वाली ये युवा कलाकार देश-विदेश में एक हज़ार से अधिक कार्यक्रम   प्रस्तुत कर चुकी हैं । अपने पिता और गुरु प्रो. स्वपन सिवा से 3 वर्ष की आयु से ही तबला सीखने वाली रिम्पा सिवा का तबला वादन सुनकर आश्चर्य होता है कि क्या तबला ऐसा भी बज सकता है !





सावनी तलवलकर

प्रसिद्ध तबला वादक तालयोगी पं. सुरेश तलवलकर और विदुषी पद्मा तलवलकर की सुपुत्री सावनी तलवलकर नई पीढ़ी की   तबला वादक हैं । इनके पिताजी ही इनके तबला गुरु भी हैं । उनके एकल वादन कार्यक्रमों में सावनी तबले पर जुगलबंदी करती रही हैं । कौशिकी चक्रवर्ती की संगीत मंडली ‘सखी’ में सावनी तबले पर संगत करती हुई देश-विदेश में ख्याति अर्जित कर रही हैं ।
        




सुनयना घोष

1979 में कोलकाता में जन्मीं सुनयना घोष प्रसिद्ध तबला वादक पं. शंकर घोष की शिष्या हैं । रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता की प्रत्येक डिग्री परीक्षा में सुनयना घोष ने स्वर्ण पदक प्राप्त किया । भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्धारा यूरोप और अमेरिका में कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली संगीत मंडली में 10 युवा कलाकारों का चयन किया गया था जिसमें सुनयना घोष भी सम्मिलित थीं ।



  रेशमा पंडित 

रायपुर, छ.ग. के जाने-माने तबला वादक पं. संपत लाल की पोती 26 वर्षीया रेशमा पंडित ने 10 वर्ष की उम्र से ही अपने पिता कुमार पंडित से तबला सीखना प्रारंभ किया । रेशमा अब तक 300 से अधिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुकी हैं । इनके एकल वादन में बोलों की सुस्पष्ट और सुंदर प्रस्तुति चमत्कृत करती है ।



               इनके अतिरिक्त पायल कोटगीरकर,नजीमाबाद, अश्विनी वाघचौरे, पुणे, विजेता हेगड़े, होन्नावर कर्नाटक, संजीवनी हसब्नीस, पुणे, मिठू टिकदर, प. बंगाल आदि भी तबलावादन के क्षेत्र में कला-साधना कर रही हैं ।

                विदेश में भारतीय मूल की और अन्य देशों की महिला कलाकार भी तबलावादन में ख्याति अर्जित कर रही हैं । उनमें से कुछ के केवल नाम और चित्र से परिचय प्रस्तुत है -



सुफला पाटनकर
यू.एस.ए.
हिना पटेल
कनाडा
सेजल कुकाडिया
यू.एस.ए.










                                                                               

                                                      

अयाको इकेदा
जापान

समीरा वारिस
पाकिस्तान
अन्ना सोबेल
यू.एस.ए.
संस्कृति श्रेष्ठ
नेपाल


                              








                                        


                             














जिन वान
द. कारिया



 ( तथ्य एवं चित्र विभिन्न वेबसाइट से संकलित )

जो भी होगा अच्छा होगा



जो  भी   होगा  अच्छा   होगा,
फिर क्यूँ सोचें कल क्या होगा ।

भले  राह  में  धूप  तपेगी,
मंज़िल पर तो साया होगा ।

दिन को ठोकर खाने वाले,
तेरा  सूरज  काला  होगा ।

पाँव  सफ़र  मंज़िल सब ही हैं,
क़दम-दर-क़दम चलना होगा ।

कभी बात ख़ुद से भी कर ले,
तेरे   घर   आईना   होगा ।
 

-महेन्द्र वर्मा

अनुभव का उपहार


समर भूमि संसार है, विजयी होते वीर,
मारे जाते हैं सदा, निर्बल-कायर-भीर।


मुँह पर ढकना दीजिए, वक्ता होए शांत,
मन के मुँह को ढाँकना, कारज कठिन नितांत।


दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद,
लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद।


भाँति-भाँति के सर्प हैं, मन जाता है काँप,
सबसे जहरीला मगर, आस्तीन का साँप।


हो अतीत चाहे विकट, दुखदायी संजाल,
पर उसकी यादें बहुत, होतीं मधुर रसाल।


विपदा को मत कोसिए, करती यह उपकार,
बिन खरचे मिलता विपुल, अनुभव का उपहार।


प्राकृत चीजों का सदा, कर सम्मान सुमीत,
ईश्वर पूजा की यही, सबसे उत्तम रीत।

                       
                                                                             -महेन्द्र वर्मा





कुछ और

मेरा कहना था कुछ और,
उसने समझा था कुछ और ।

धुँधला-सा है शाम का  सफ़र,
सुबह उजाला था कुछ और ।

गाँव जला तो बरगद रोया,
उसका दुखड़ा था कुछ और ।

अजीब नीयत धूप की हुई,
साथ न साया, था कुछ और ।

जीवन-पोथी में लिखने को,
शेष रह गया था कुछ और ।

 

-महेन्द्र वर्मा

बरगद माँगे छाँव




सूरज सोया रात भर, सुबह गया वह जाग,
बस्ती-बस्ती घूमकर, घर-घर बाँटे आग।

भरी दुपहरी सूर्य ने, खेला ऐसा दाँव,
पानी प्यासा हो गया, बरगद माँगे छाँव।
 

सूरज बोला  सुन जरा, धरती मेरी बात,
मैं ना उगलूँ आग तो, ना होगी बरसात।

सूरज है मुखिया भला, वही कमाता रोज,
जल-थल-नभचर पालता, देता उनको ओज।

पेड़ बाँटते छाँव हैं, सूरज बाँटे धूप,
धूप-छाँव का खेल ही, जीवन का है रूप।

धरती-सूरज-आसमाँ, सब करते उपकार,
मानव तू बतला भला, क्यों करता अपकार।

जल-जल कर देता सदा, सबके मुँह में कौर,
बिन मेरे जल भी नहीं, मत जल मुझसे और।

                                                                               

  -महेन्द्र वर्मा

भवानी प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र और बेमेतरा



स्व. भवानी प्रसाद मिश्र
................एक छोटा-सा किस्सा सुनाता हूँ,  आज के माता-पिता के लिए वो ज़रा चौंकाने वाला होगा । आज हम यह देखते हैं कि बच्चे कैसे अच्छे-से पढ़ें और पढ़-लिख कर कैसे अच्छी नौकरियों में चले जाएँ , कितना बड़ा उनको पैकेज मिले । पिताजी का दौर उस समय के माता-पिता जैसा रहा होगा लेकिन उनका विचार कुछ और था ।
 
हम लोग बम्बई में शायद तीसरी कक्षा में पढ़ते थे, साधारण स्कूल था, ठीक-ठाक । एक दिन हम लोग आए तो अचानक उन्होंने कहा - कल हम लोग सब बेमेतरा चलेंगे । बेमेतरा कहाँ है ये हमें मालूम था क्योंकि पिताजी के बड़े भाई बेमेतरा में एस.डी.एम. थे । अच्छा ही लगा, स्कूल से छुट्टी मिलेगी। जो दो-चार कपड़े थे और थोड़ा-सा सामान  बाँध-बूँध कर, माता-पिता  का हाथ पकड़ कर हम लोग रेलगाड़ी से बेमेतरा चले गए ।
 
वहाँ दो-तीन दिन रहे । अचानक एक दिन पता चला, माँ और मन्ना बम्बई लौट रहे हैं । हम और जीजी (नंदिता मिश्र) वहीं रुकेंगे, बेमेतरा में । तब तक हमको पता नहीं था । उन्होंने कहा कि एक दिन बड़े भैया यानी हमारे ताऊ जी ने बम्बई में एक पोस्टकार्ड लिखा पिताजी को कि मेरे सब बच्चे बड़े होकर हास्टल में चले गए हैं। घर बिल्कुल सूना हो गया है । पिताजी ने कहा कि ये दोनों तुम्हारे हैं, इनको मैं बम्बई से आपके पास भेज देता हूँ ।
बेमेतरा उस समय दस-पंद्रह हज़ार की आबादी वाला एक छोटा-सा कस्बा था । एक ही स्कूल था, पूरे कस्बे में । उन्होंने कहा कि बड़े पिताजी का सूनापन दूर हो जाना चाहिए इसलिए तुम लोग किलकारी मारो उनके घर में । बम्बई के स्कूल से हटाकर हमें एक गाँव के स्कूल में डाल दिया ।
 
जिसको कहते हैं ना, भविष्य देखना, ये सवाँरना वो सवाँरना , ये सब नहीं, उन्होंने कहा - बड़े भाई का मन सवाँरना । 

स्व. अनुपम मिश्र
एकाध दिन रोए होंगे लेकिन उसके बाद हमको बेमेतरा बहुत पसंद आया । हम बम्बई में जूता पहन कर स्कूल जाते थे, अच्छी तरह से चमका कर,, यही हमें सिखाया गया था । वहाँ हमने देखा, हमारे क्लास में किसी भी बच्चे के पैर में जूता-चप्पल नहीं था । उसके बाद हमने भी दूसरे दिन से स्कूल में जूता पहनना छोड़ दिया ।
 
कोई डेढ़ वर्ष वहाँ रहे । अब बड़े पिताजी को लगा होगा कि खूब किलकारी हो गई । तब तक पिताजी बम्बई से दिल्ली आ गए थे। फिर वैसे ही पीले पोस्टकार्ड का आदान-प्रदान हुआ होगा । तब बड़े पिताजी ने हम लोगों को कहा, चलो, तुम लोग अपना सामान बाँधो । कल तुम लोगों को दिल्ली  जाना है । तब हमने पहली बार रेल में फर्स्ट क्लास देखा। बड़े पिताजी के कोई मित्र एम.पी. थे, उनके साथ हम लोगों को रवाना कर दिया ।
ये घटना आप लोगों को इसलिए बताई कि पिता कैसा होता है और उसका व्यापक परिवार क्या होता है और उसको कितना भरोसा होता है कि केवल स्कूल की शिक्षा बच्चे के भविष्य को नहीं बनाती या बिगाड़ती उसके अलावा पचासों और चीज़ें होती हैं । तो, हम लोग जो बने हैं वो आप सब के कारण बने हैं, किसी स्कूल और शिक्षा के कारण नहीं............... ।
 

 -स्व. अनुपम मिश्र
  प्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक और पर्यावरणविद्
 (‘सूत्रधार’ संस्था द् वारा  21 सितम्बर, 2013 को   इंदौर में  आयोजित  भवानी प्रसाद मिश्र जी  की    जन्मशती समारोह में संस्मरण सुनाते हुए )

  29 मार्च को स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती है, उन्हें सादर नमन ।









अपने हिस्से की बूँदें

तूफ़ाँ बनकर वक़्त उमड़ उठता है अक्सर,
खोना ही है जो कुछ भी मिलता है अक्सर ।

उसके माथे पर कुछ शिकनें-सी दिखती हैं,
मेरी  साँसों  का  हिसाब रखता है अक्सर ।

वक़्त ने गहरे हर्फ़ उकेरे जिस किताब पर,
उस के सफ़्हे वो छू कर पढ़ता है अक्सर ।

सहरा  हो  या  शहर  तपन  है  राहों में,
जख़्मी पाँवों से चलना पड़ता है अक्सर ।

अपने  हिस्से  की  बूँदों  को  ढूँढ  रहा  हूँ,
दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।

 


-महेन्द्र वर्मा

गीत बसंत का




सुरभित मंद समीर ले                                                 
आया है मधुमास।

पुष्प रँगीले हो गए
किसलय करें किलोल,
माघ करे जादूगरी
अपनी गठरी खोल।

गंध पचीसों तिर रहे
पवन हुए उनचास ।

अमराई में कूकती
कोयल मीठे बैन,
बासंती-से हो गए
क्यों संध्या के नैन।

टेसू के संग झूमता
सरसों का उल्लास ।


पुलकित पुष्पित शोभिता
धरती गाती गीत,
पात पीत क्यों हो गए
है कैसी ये रीत।

नृत्य तितलियाँ कर रहीं
भौंरे करते रास ।

                                              -महेन्द्र वर्मा