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इस वर्ष दो भाद्रपद क्यों ? --- तेरह महीने का वर्ष



                   अभी भादों का महीना चल रहा है। इसके समाप्त होने के बाद इस वर्ष कुंवार का महीना नहीं आएगा बल्कि भादों का महीना दुहराया जाएगा। दो भादों होने के कारण वर्तमान वर्ष अर्थात विक्रम संवत् 2069 तेरह महीनों का है। इस अतिरिक्त तेरहवें मास को अधिक मास, अधिमास, लौंद मास, मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं।
                   अधिमास होने की घटना दुर्लभ नहीं है, प्रत्येक 32-33 महीनों के पश्चात एक अधिमास का होना अनिवार्य है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व की किसी अन्य कैलेण्डर पद्धति में 13 महीने का वर्ष नहीं होता। हिन्दू कैलेण्डर में किसी वर्ष 13 महीने निर्धारित किए जाने की परंपरा खगोलीय घटनाओं के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण तथा गणितीय गणना पर आधारित है।
                     अधिमास का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है, जिसका रचनाकाल 2500 ई. पूर्व माना जाता है। ऋग्वेद (1.25.8) में तेरहवें मास का वर्णन इस प्रकार आया है-‘‘जो व्रतालंबन कर अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं...।‘‘ वाजसनेयी संहिता (22.30) में इसे मलिम्लुच्च तथा संसर्प कहा गया है किंतु (22.31) में इसके लिए अंहसस्पति शब्द का प्रयोग हुआ है।
                      तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.1) में तेरहवें महीने का नाम महस्वान दिया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण (3.1) में अधिमास का वर्णन इस प्रकार है - ‘‘...उन्होंने उस सोम को तेरहवें मास से मोल लिया था इसलिए निंद्य है...।‘‘ नारद संहिता में अधिमास को संसर्प कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी वर्ष में तेरहवें मास को सम्मिलित किए जाने की परंपरा वैदिक युग या उसके पूर्व से ही चली आ रही है।
                       अधिक मास होने का सारा रहस्य चांद्रमास और सौरमास  के कालमान में तालमेल स्थापित किए जाने में निहित है। पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा या अमावस्या से अगली अमावस्या तक के समय को चांद्रमास कहते हैं। सूर्य एक राशि (रविमार्ग का बारहवां भाग यानी 30 अंश की परिधि) पर जितने समय तक रहता है वह सौरमास कहलाता है। 12 चांद्रमासों के वर्ष को चांद्रवर्ष और 12 सौर मासों के वर्ष को सौरवर्ष कहते हैं। इन दोनों वर्षमानों की अवधि समान नहीं है। एक सौरवर्ष की अवधि लगभग 365 दिन 6 घंटे होती है जबकि एक चांद्रवर्ष की अवधि लगभग 354 दिन 9 घंटे होती है। अर्थात चांद्रवर्ष सौरवर्ष से लगभग 11 दिन छोटा होता है। यह अंतर 32-33 महीनों में एक चांद्रमास के बराबर हो जाता है। इस अतिरिक्त तेरहवें चांद्रमास को ही अधिमास के रूप में जोड़कर चांद्रवर्ष और सौरवर्ष में तालमेल स्थापित किया जाता है ताकि दोनों लगभग साथ-साथ चलें।
                       अब यह स्पष्ट करना है कि किसी चांद्रवर्ष के किस मास को अधिमास निश्चित किया जाए। इसके निर्धारण के लिए प्राचीन हिन्दू खगोल शास्त्रियों ने कुछ गणितीय और वैज्ञानिक आधार निश्चित किए हैं तथा चांद्रमास को सुपरिभाषित किया है। इसे समझने के लिए कुछ प्रारंभिक तथ्यों को ध्यान में रखना होगा -
1.    चांद्रमासों का नामकरण दो प्रकार से प्रचलित है। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक की अवधि पूर्णिमांत मास और अमावस्या से अमावस्या तक की अवधि को अमांत मास कहते हैं। अधिमास निर्धारित करने के लिए केवल अमांत मास पर ही विचार किया जाता है।
2.    सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण को संक्रांति कहते हैं।
3.    सभी 12 सौरमासों की अवधि बराबर नहीं होती। सौरमास का अधिकतम कालमान सौर आषाढ़ में 31 दिन, 10 घंटे, 53 मिनट और न्यूनतम मान पौष मास में 29 दिन, 10 घंटे, 40 मिनट का होता है। जबकि चांद्रमास का अधिकतम मान 29 दिन, 19 घंटे, 36 मिनट और न्यूनतम मान 29 दिन, 5 घंटे, 54 मिनट है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अधिमास को निम्न दो प्रकार से परिभाषित किया गया है -
क.    जब किसी चांद्रमास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती तो वह मास अधिमास होता है।
ख.    जब किसी सौरमास में दो अमावस्याएं घटित हों तब दो अमावस्याओं से प्रारंभ होने वाले चांद्रमासों का एक ही नाम होगा। इनमें से पहले मास को अधिमास और दूसरे को निज या शुद्ध मास कहा जाता है।
                  इस वर्ष होने वाले दो भादों को उदाहरण के रूप में लें -
सूर्य की सिंह संक्रांति 16 अगस्त को और कन्या संक्रांति 16 सितम्बर को(शाम 5:52 बजे से) है। इन तारीखों के मध्य 18 अगस्त से 16 सितम्बर (प्रातः 7:40 बजे) तक की अवधि के चांद्रमास में सूर्य की कोई संक्रांति नहीं है। इसलिए यह चांद्रमास अधिमास होगा।
                    पुनः, सूर्य की सिंह राशि में रहने की अवधि ( 16 अगस्त से 16 सितम्बर, शाम 5:52 बजे तक) के मध्य दो अमावस्याएं, क्रमशः 17 अगस्त और 16 सितम्बर (प्रातः 7:40 बजे) को घटित हो रही हैं। अतः इन अमावस्याओं को समाप्त होने वाले दोनों चांद्रमासों का नाम भादों होगा। इनमें से एक को प्रथम भाद्रपद तथा दूसरे को द्वितीय भादपद्र कहा जाएगा।
                     हिन्दू काल गणना पद्धति में अधिमास की व्यवस्था प्राचीन हिन्दू खगोल शास्त्रियों के ज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है। इस संबंध में प्रसिद्ध गणितज्ञ डाॅ. गोरख प्रसाद ने लिखा है -‘‘ कई बातें, जो अन्य देशों में मनमानी रीति से तय कर ली गई थीं, भारत में वैज्ञानिक सिद्धांतों पर निर्धारित की गई थीं। पंचांग वैज्ञानिक ढंग से बनता था जिसकी तुलना में यूरोपीय पंचांग भी अशिष्ट जान पड़ता है।‘‘

  • (मेरे एक शोध-पत्र का सारांश)

                                                                                                                                     -महेन्द्र वर्मा


शुक्र का पारगमन- एक दुर्लभ घटना



                                   ‘भोर का तारा‘ या ‘सांध्य तारा‘ के रूप में सदियों से परिचित शुक्र ग्रह अर्थात ‘सुकवा‘ 6 जून, 2012 को एक विचित्र हरकत करने जा रहा है। आम तौर पर पूर्वी या पश्चिमी आकाश में दिखाई देने वाला यह ग्रह 6 जून को मध्य आकाश में दिखाई देगा, वह भी दिन में ! अन्य दिनों में हम शुक्र के सूर्य से प्रकाशित भाग को चमकता हुआ देखते हैं लेकिन उस दिन शुक्र का अंधेरा भाग हमारी ओर होगा, फिर भी उसे हम ‘देख‘ सकेंगे। जब सूर्य शुक्र के सामने से गुजरेगा तो शुक्र हमें सूर्य पर छोटे-से काले वृत्त के रूप में दिखाई देगा। एक अद्भुत दृश्य होगा वह-जैसे सूरज के चेहरे पर काजल का सरकता हुआ टीका।

                                         खगोल शास्त्र की शब्दावली में इस घटना को ‘शुक्र का पारगमन‘ कहते हैं। दुर्लभ कही जाने वाली यह घटना सौरमंडल के करोड़ों वर्षों के इतिहास में लाखों बार घट चुकी है लेकिन मनुष्य जाति इसे केवल छह बार ही देख पाई है। हम सौभाग्यशाली हैं कि इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे और अंतिम शुक्र पारगमन को देख सकेंगे। बीसवीं सदी में ऐसा एक बार भी नहीं हुआ। दरअसल शुक्र पारगमन गण्तिीय गणना के अनुसार कभी 105 और कभी  121 वर्ष 6 माह बाद घटित होता है लेकिन आठ वर्षों के अंतराल में दो बार। पिछली बार इस घटना को 6 जून, 2004 को देखा गया ।

                                    शुक्र पारगमन के बारे में सबसे पहले जर्मन गणितज्ञ जोन्स केपलर ने बताया कि 1631 ई. में शुक्र ग्रह सूर्य के सामने से गुजरेगा और इसे पृथ्वी से देखा जा सकता है। किंतु इस घटना को न तो वह स्वयं देख सका न कोई और। पारगमन के एक वर्ष पूर्व 1630 ई. में केपलर का देहांत हो गया। इनकी गणितीय गणना में कुछ त्रुटि हो जाने के कारण वैज्ञानिक भी सही समय पर शुक्र-संक्रमण नहीं देख सके।
                                        
                                      आठ वर्ष बाद दुहराई जाने वाली इस घटना को लेकर अंग्रेज खगोल शास्त्री जेरेमिया होराक्स काफी उत्सुक था और पहले से सतर्क भी। उसने 4 दिसंबर 1639 को शुक्र पारगमन को लगभग 7 घंटे तक देखा। किसी मनुष्य द्वारा शुक्र पारगमन देखे जाने का यह पहला अवसर था। उसके बाद 6 जून 1761, 3 जून 1769, 9 दिसम्बर 1874, 6 दिसम्बर 1882 और 8 जून 2004 के शुक्र पारगमन को अनेक वैज्ञानिकों और खगोल प्रेमियों ने देखा।

                                       चूंकि शुक्र पारगमन एक दुर्लभ घटना है इसलिए दुनियादारी के सब काम छोड़कर खगोलशास्त्री किसी भी तरह उसे देखना चाहते हैं। इसी संदर्भ में एक रोचक और मार्मिक प्रसंग उल्लेखनीय है। सन् 1761 ई. का शुक्र पारगमन भारत में अच्छी तरह देखा जा सकता था। एक फ्रांसीसी खगोलशास्त्री जी. लेजेन्तिल इसे देखने के लिए पानी के जहाज से पांडिचेरी के लिए रवाना हुआ। जब वह पांडिचेरी पहुंचा तो ब्रिटिश सैनिकों ने उसे गिरफतार कर लिया क्योंकि उस समय ब्रिटेन और फ्रांस के बीच युद्ध जारी था। लेजेन्तिल शुक्र पारगमन नहीं देख सका। 1769 ई. के अगले पारगमन को देखने के लिए वह 8 वर्ष भारत में रहा। 3 जून 1769 ई. के दिन लेजेन्तिल को फिर निराश होना पड़ा। बादल छाए रहने के कारण उस दिन सूर्य दिखा ही नहीं। हताश लेजेन्तिल पेरिस के लिए रवाना हुआ। 1874 ई. का अगला पारगमन देखना अब उसके जीवन में संभव नहीं था। दुर्भाग्य ने अभी उसका पीछा नहीं छोड़ा था। रास्ते में दो बार उसका जहाज क्षतिग्रस्त हुआ। जब वह पेरिस पहुंचा तो उसके परिजन उसे मृत समझकर उसकी सम्पत्ति का बंटवारा करने में लगे थे।

                                   1761 ई. के शुक्र पारगमन का अवलोकन रूसी वैज्ञानिक मिखाइल लोमोनोसोव ने सूक्ष्मता से किया और पहली बार दुनिया को बताया कि शुक्र ग्रह पर वायुमंडल भी है। इस पारगमन को दुनिया के हजारों वैज्ञानिकों ने देखा लेकिन शुक्र पर वायुमंडल होने की जानकारी किसी को नहीं हुई। आश्चर्य की बात यह थी कि लोमोनोसोव ने इस घटना का अवलोकन किसी वेधशाला से नहीं बल्कि अपने कमरे की खिड़की से अपनी ही बनाई दूरबीन से किया था।

                                       शुक्र पारगमन की घटना ने वैज्ञानिकों को सदैव नई खोजों के लिए प्रेरित किया है। 200 साल पहले पृथ्वी से सूर्य की दूरी जानना वैज्ञानिकों के लिए एक समस्या थी। जेम्स ग्रेगोरी ने सुझाव दिया कि शुक्र पारगमन की घटना से पृथ्वी से सूर्य की दूरी का परिकलन किया जा सकता है। एडमंड हेली ने 1874 और 1882 में शुक्र पारगमन के समय प्रेक्षित आकड़ों से सूर्य की दूरी का परिकलन करने का प्रयास किया था। प्राप्त परिणाम बहुत हद तक सही था।

                                        शुक्र पारगमन हमारे लिए भले ही अद्भुत घटना हो लेकिन अंतरिक्ष के संदर्भ में यह एक सामान्य घटना है। यह लगभग वेसी ही घटना है जैसे सूर्यग्रहण। सूर्यग्रहण के समय सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सीध में होते हैं और चन्द्रमा बीच में होता है। चन्द्रमा की ओट में हो जाने के कारण सूर्य का आंशिक या कभी-कभी पूरा भाग ढंक जाता है। शुक्र पारगमन के समय सूर्य, शुक्र और पृथ्वी एक सीध में होते हैं, शुक्र बीच में होता है। इस स्थिति में शुक्र अपने दृश्य आकार के बराबर का सूर्य का भाग ढंक लेता है। यद्यपि सूर्य की तुलना में शुक्र का दृश्य आकार 1500 गुना छोटा है- एक बड़े तरबूज के सामने मटर के दाने जैसा।

                                    6 जून 2012 को होने वाला शुक्र पारगमन भारत में पूर्वाह्न लगभग 5 बजकर 20 मिनट पर प्ररंभ होगा और लगभग 10 बजकर 20 मिनट पर समाप्त होगा। सूर्य की चकती पर शुक्र ग्रह छोटी सी काली बिंदी के रूप में एक चापकर्ण बनाते हुए गुजरेगा। यह नजारा लगभग 5 घंटे तक देखा जा सकेगा।
   
                                        शुक्र पारगमन हमें हर वर्ष दिखाई देता यदि शुक्र और पृथ्वी के परिक्रमा पथ एक ही सममतल पर होते किंतु ऐसा नहीं है। शुक्र और पृथ्वी के परिक्रमा पथों के मध्य 3 अंश का झुकाव है। यह झुकाव और शुक्र तथा पृथ्वी की गतियां शुक्र पारगमन को दुर्लभ बनाती हैं।
                                    
                                           6 जून को प्रकृति की इस अनोखी घटना को मानकीकृत फिल्टर से अवश्य देखें। शुक्र को जब आप सूर्य के सामने से गुजरता हुआ देखें तो शुक्र के साहस को सराहिए मत क्योंकि वह हमेशा की तरह सूर्य से लगभग 10 करोड़ कि.मी. दूर होगा। अंत में एक बात और, यदि 6 जून को दिन भर बादल छाए रहें तो इस  शताब्दी की तीन-चार पीढ़ी शुक्र पारगमन को नहीं देख पाएगी क्योंकि अगला शुक्र पारगमन सन् 2117 ई. में घटित होगा।

                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

दर्शन और गणित का संबंध




मानवीय ज्ञान के क्षेत्र में दो शास्त्र- गणित और दर्शन- ऐसे विषय हैं जिनका स्पष्ट संबंध मस्तिष्क की चिंतन क्षमता और तर्क से है। मानव जाति के उद्भव के साथ ही इन दोनों विषयों का प्रादुर्भाव हुआ है। इनके विषय वस्तु में कोई प्रत्यक्ष समानता नहीं है किंतु अध्ययन की प्रणाली और इनके सिद्धांतों और निष्कर्षों में अद्भुत सामंजस्य दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में गणित और दर्शन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों विषय किसी न किसी प्रकार से एक रहस्यमय संबंध के द्वारा जुड़े हुए हैं। जिन मनीषियों ने गणित के क्षेत्र में जटिल नियमों और सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है, उन्होंने ही दर्शन के क्षेत्र में क्रांतिकारी विचारों को जन्म दिया है। प्लेटो, अरस्तू, पायथागोरस, डेकार्ट, लाइब्निट्ज, बर्कले, रसेल, व्हाइटहेड आदि ने दर्शन और गणित, दोनों क्षेत्रों में अपने विचारों से युग को प्रभावित किया है।

दर्शन तर्क का विषय है और तर्क गणित का आवश्यक अंग है। चिंतन की वांछित प्रणाली प्राप्त करने के लिए गणित का अध्ययन आवश्यक है। दार्शनिकों को इन्द्रियों के प्रत्यक्ष ज्ञान की अविश्वसनीयता ने सदैव उद्वेलित किया है किंतु उन्हें यह जानकर आनंद का अनुभव हुआ कि उनके सामने ज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र भी है जिसमें भ्रम या धोखे के लिए कोई स्थान नहीं है- वह था, गणितीय ज्ञान। गणित संबंधी धारणाओं को सदा ही ज्ञान की एक ऐसी प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया है जिसमें सत्य के उच्चतम मानक पर खरा उतरने की क्षमता विद्यमान है।

‘प्रकृति की पुस्तक गणित की भाषा में लिखी गई है‘- गैलीलियो के इस कथन का सत्य उसके अनुवर्ती शताब्दियों में निरंतर प्रकट होता रहा है। ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी के यूनानी गणितज्ञ पायथागोरस ने गणित और दर्शन को मिला कर एक कर दिया था। उनकी मान्यता थी कि प्रकृति का आरंभ संख्या से ही हुआ है।
आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के जनक फ्रांस के रेने डेकार्ट को प्रथम आधुनिक गणितज्ञ भी कहा जाता है। इन्होंने निर्देशांक ज्यामिति की नींव रखी। आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए उनके द्वारा प्रतिपादित यह स्वयंसिद्ध प्रसिद्ध है-‘मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं।‘ डेकार्ट का कहना है- ‘गणित ने मुझे अपने तर्कों की असंदिग्धता और प्रामाणिक लक्षण से आह्लादित किया है।‘

गणित में चलन-कलन के आविष्कारक और दर्शन में चिद्बिंदुवाद के प्रवर्तक जर्मन विद्वान गाटफ्रीड विल्हेम लाइब्निट्ज थे। प्रकृति के वर्णन के लिए गणितीय विधियों के सफल व्यवहार ने लाइब्निट्ज को यह विश्वास करने की प्रेरणा दी कि सारा विज्ञान गणित में परिणित हो सकता है। उन्होंने दर्शन और गणित के प्रतीकों का सामंजस्य करते हुए लिखा है-‘ ईश्वर 1 है और 0 कुछ नहीं। जिस प्रकार 1 और 0 से सारी संख्याएं व्यक्त की जा सकती हैं उसी प्रकार ‘एक‘ ईश्वर ने ‘कुछ नहीं‘ से सारी सृष्टि का सृजन किया है।
तर्कशास्त्र के इतिहास में मोड़ का बिंदु तब आया जब उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जार्ज बुले और डी मार्गन ने तर्कशास्त्र के सिद्धांतों को गणितीय संकेतन की विधि से प्रतीकात्मक भाषा में व्यक्त किया। जार्ज बुले ने बीजगणित के चार मूलभूत नियमों  के आधार पर दार्शनिक तर्कों का विश्लेषण किया था।
बट्र्रेंड रसेल दर्शन और गणित की समीपता को समझते थे। उनके द्वारा दार्शनिक प्रत्ययों का तार्किक गणितीय परीक्षण किया जाना दर्शन के क्षे़त्र में एक नई पहल थी।

रसेल के गुरु अल्फ्रेड नार्थ व्हाइटहेड ने एक गणितज्ञ के रूप में अपना कार्य प्रारंभ किया किंतु उनके गणितीय सिद्धांतों में वे भाव पहले से ही थे जिनके कारण वे युगांतरकारी दार्शनिक विचार प्रतिपादित कर सके। विटजनस्टीन ने गणितीय भाषा से प्रभावित होकर ‘भाषायी दर्शन‘ तथा हेन्स राइखेन बाख ने ‘वैज्ञानिक दर्शन‘ की नींव डाली।

आधुनिक बीजगणित के समुच्चय सिद्धांत पर आधारित तर्कशास्त्र न केवल अनेक प्राकृतिक घटनाओं की बल्कि अनेक सामाजिक व्यवहारों की भी व्याख्या करने में समर्थ है। समुच्चयों को प्रदर्शित करने के लिए वैन नामक गणितज्ञ ने ‘वैन आरेख‘ पद्धति विकसित की जो उनके द्वारा लिखित ‘सिंबालिक लाजिक‘ नामक पुस्तक में वर्णित है। उनकी यह कृति प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र के तत्कालीन विकास का व्यापक सर्वेक्षण है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य

जिन ऋषियों ने उपनिषदों की रचना की उन्होंने ही वैदिक गणित और खगोलशास्त्र या ज्योतिर्गणित की रचना की है। ईशावास्य उपनिषद के आरंभ में आया यह श्लोक निश्चित ही ऐसे मस्तिष्क की रचना है जो गणित और दर्शन दोनों का ज्ञाता था - ‘ ओम् पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्चते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।‘ इस की व्याख्या संख्या सिद्धांत के आधार पर इस तरह की जा सकती है- प्राकृत संख्याओं के अनंत समुच्चय में से यदि सम संख्याओं का अनंत समूह निकाल दिया जाए तो शेष विषम संख्याओं का समुच्चय भी अनंत होगा। इसी तरह ‘एकोहम् बहुस्याम्‘ ‘तत्वमसि‘ आदि सूत्रों का गणित से अद्भुत सामंजस्य है।

प्रख्यात गणितज्ञ प्रो. रामानुजम् गणित के अध्ययन-मनन को ईश्वर चिंतन की प्रक्रिया मानते थे। उनकी धारणा थी कि केवल गणित के द्वारा ही ईश्वर का सच्चा स्वरूप स्पष्ट हो सकता है।
दर्शन और गणित के इस गूढ़ संबंध का कारण यह है कि दोनों विषयों में जिन आधारभूत प्रत्ययों का अध्ययन-विश्लेषण होता है, वे सर्वथा अमूर्त हैं। दर्शन में ब्रह्म, आत्मा, माया, मोक्ष, शुभ-अशुभ आदि प्रत्यय जितने अमूर्त एवं जटिल हैं उतने ही गणित के प्रत्यय- बिंदु, रेखा, शून्य, अनंत, समुच्चय आदि भी अमूर्त एवं क्लिष्ट हैं।
भारतीय दर्शन का सत्य कभी परिवर्तित नहीं हुआ, ऐसे ही गणित के तथ्य भी शाश्वत सत्य हैं। गणित और दर्शन शुष्क विषय नहीं हैं बल्कि कला के उच्च प्रतिमानों की सृष्टि गणितीय और दार्शनिक मस्तिष्क में ही संभव है।
महान गणितज्ञ और दार्शनिक आइंस्टाइन का यह कथन गणित और दर्शन के संबंध को स्पष्ट करता है- ‘मैं किसी ऐसे गणितज्ञ और वैज्ञानिक की कल्पना नहीं कर सकता जिसकी धर्म और दर्शन में गहरी आस्था न हो।‘

                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

कैलेण्डर की कहानी



                    तिथि, माह और वर्ष की गणना के लिए ईस्वी सन् वाले कैलेण्डर का प्रयोग आज पूरे विश्व में हो रहा है। यह कैलेण्डर आज से 2700 वर्ष पूर्व प्रचलित रोमन कैलेण्डर का ही क्रमशः संशोधित रूप है। 46 ई. पूर्व में इसका नाम जूलियन कैलेण्डर हुआ और 1752 ई. से इसे ग्रेगोरियन कैलेण्डर कहा जाने लगा।
                    रोमन कैलेण्डर की शुरुआत रोम नगर की स्थापना करने वाले पौराणिक राजा रोम्युलस के पंचांग से होती है। वर्ष की गणना रोम नगर की स्थापना वर्ष 753 ई. पूर्व से की जाती थी। इसे संक्षेप में ए.यू.सी. अर्थात एन्नो अरबिस कांडिटाइ कहा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘शहर की स्थापना के वर्ष से‘ हैं। रोम्युलस के इस कैलेण्डर में वर्ष में दस महीने होते थे। इन महीनों में प्रथम चार का नाम रोमन देवताओं पर आधारित था, शेष छह महीनों के नाम क्रम संख्यांक पर आधारित थे। दस महीनों के नाम क्रमशः इस प्रकार थे- मार्टियुस,एप्रिलिस, मेयुस, जूनियुस, क्विंटिलिस, सेक्स्टिलिस, सेप्टेम्बर, आक्टोबर, नोवेम्बर और डिसेम्बर। मार्टियुस जिसे अब मार्च कहा जाता है, वर्ष का पहला महीना था। नए वर्ष का आरंभ मार्टियुस अर्थात मार्च की 25 तारीख को होता था क्योंकि इसी दिन रोम के न्यायाधीष शपथ ग्रहण करते थे। इस कैलेण्डर में तब जनवरी और फरवरी माह नहीं थे।
                    लगभग 700 ई. पूर्व रोम के द्वितीय नरेश न्यूमा पाम्पलियस ने कैलेण्डर में दो नए महीने - जेन्युअरी और फेब्रुअरी - क्रमशः ग्यारहवें और बारहवें महीने के रूप में जोड़े। यह कैलेण्डर 355 दिनों के चांद्र वर्ष पर आधारित था। इसमें 7 महीने 29 दिनों के, 4 महीने 31 दिनों के और फेब्रुअरी महीना 28 दिनों का होता था।  इस कैलेण्डर का उपयोग रोमवासी 45 ई. पूर्व तक करते रहे।
                    सन् 46 ई. पूर्व में रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने अनुभव किया कि त्योहार और मौसम में अंतर आने लगा है। इसका कारण यह था कि प्रचलित कैलेण्डर चांद्रवर्ष पर आधारित था जबकि ऋतुएं सौर वर्ष पर आधारित होती हैं। जूलियस सीज़र ने अपने ज्योतिषी सोसिजेनस की सलाह पर 355 दिन के वर्ष में 10 दिन और जोड़कर वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे निर्धारित किया। वर्ष की अवधि में जो छह घंटे अतिरिक्त थे वे चार वर्षों में कुल 24 घंटे अर्थात एक दिन के बराबर हो जाते थे। अतः सीज़र ने प्रत्येक चौथे वर्ष का मान 366 दिन रखे जाने का नियम बनाया और इसे लीप ईयर का नाम दिया। लीप ईयर के इस एक अतिरिक्त दिन को अंतिम महीने अर्थात फेब्रुअरी में जोड़ दिया जाता था। जूलियस सीज़र ने क्विंटिलिस नामक पांचवे माह का नाम बदलकर जुलाई कर दिया क्योंकि उसका जन्म इसी माह में हुआ था।
                    जूलियस सीज़र द्वारा संशोधित रोमन कैलेण्डर का नाम 46 ई. पूर्व से जूलियन कैलेण्डर हो गया। इसके 2 वर्ष पश्चात सीज़र की हत्या कर दी गई। आगस्टस रोम का नया सम्राट बना। आगस्टस ने सेक्स्टिलिस महीने में ही युद्धों में सबसे अधिक विजय प्राप्त की थी इसलिए उसने इस महीने का नाम बदलकर अपने नाम पर आगस्ट कर दिया।
                    जूलियन कैलेण्डर अब प्रचलन में आ चुका था। किंतु कैलेण्डर बनाने वाले पुरोहित लीप ईयर संबंधी व्यवस्था को ठीक से समझ नहीं सके । चौथा वर्ष गिनते समय वे दोनों लीप ईयर को शामिल कर लेते थे। फलस्वरूप प्रत्येक तीन महीने में फेब्रुअरी माह में एक अतिरिक्त दिन जोड़ा जाने लगा। इस गड़बड़ी का पता 50 साल बाद लगा और तब कैलेण्डर को पुनः संशोधित किया गया। तब तक ईसा मसीह का जन्म हो चुका था किंतु ईस्वी सन् की शुरुआत नहीं हुई थी। जूलियन कैलेण्डर के साथ रोमन संवत ए.यू.सी. का ही प्रयोग होता था। ईस्वी सन् की शुरुआत ईसा के जन्म के 532 वर्ष बाद सीथिया के शासक डाइनीसियस एक्लिगुस ने की थी। ईसाई समुदाय में ईस्वी सन् के साथ जूलियन कैलेण्डर का प्रयोग रोमन शासक शार्लोमान की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात सन् 816 ईस्वी से ही हो सका।
                    जूलियन कैलेण्डर रोमन साम्राज्य में 1500 वर्षों तक अच्छे ढंग से चलता रहा। अपने पूर्ववर्ती कैलेण्डरों से यह अधिक सही था। इतने पर भी इसका वर्षमान सौर वर्ष से 0.0078 दिन या लगभग 11 मिनट अधिक था। बाद के 1500 वर्षों में यह अधिकता बढ़कर पूरे 10 दिनों की हो गई।
                    1582 ई. में रोम के पोप ग्रेगोरी तेरहवें ने कैलेण्डर के इस अंतर को पहचाना और इसे सुधारने का निश्चय किया। उसने 4 अक्टूबर 1582 ई. को यह व्यवस्था की कि दस अतिरिक्त दिनों को छोड़कर अगले दिन 5 अक्टूबर की बजाय 15 अक्टूबर की तारीख होगी, अर्थात 5 अक्टूबर से 14 अक्टूबर तक की तिथि कैलेण्डर से विलोपित कर दी गई। भविष्य में कैलेण्डर वर्ष और सौर वर्ष में अंतर नहो, इसके लिए ग्रेगोरी ने यह नियम बनाया कि प्रत्येक 400 वर्षों में एक बार लीप वर्ष में एक अतिरिक्त दिन न जोड़ा जाए। सुविधा के लिए यह निर्धारित किया गया कि शताब्दी वर्ष यदि 400 से विभाज्य है तभी वह लीप ईयर माना जाएगा। इसीलिए सन् 1600 और 2000 लीप ईयर थे किंतु सन् 1700, 1800 और 1900 लीप ईयर नहीं थे, भले ही ये 4 से विभाज्य हैं।
ग्रेगोरी ने जूलियन कैलेण्डर में एक और महत्वपूर्ण संशोधन यह किया कि नए वर्ष का आरंभ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से कर दिया। इस तरह जनवरी माह जो जूलियन कैलेण्डर में 11वां महीना था, पहला महीना और फरवरी दूसरा महीना बन गया।
                    इटली, डेनमार्क और हालैंड ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर को उसी वर्ष अपना लिया। ग्रेट ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों ने 1752 ई.में, जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने 1759 ई. में, आयरलैंड ने 1839 ई. में, रूस ने 1917 ई. में और थाइलैंड ने सबसे बाद में, सन् 1941 में इस नए कैलेण्डर को अपने देश में लागू किया।
 नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
                                                                                                                             -महेन्द्र वर्मा