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सफेद बादलों की लकीर



1.
 

कितनी धुँधली-सी
हो गई हैं
छवियाँ
या
आँखों में
भर आया है कुछ

शायद
अतीत की नदी में
गोता लगा रही हैं
आँखें !

2.

विवेक ने कहा-
हाँ,
यही उचित है !
........
अंतर्मन का प्रकाश
कभी काला नहीं होता !

3.

दिन गुजर गया
विलीन हो गया
दूर क्षितिज में
एक बिंदु-सा
लेकिन
अपने पैरों में
बँधे राकेट के धुएँ से
सफेद बादलों की लकीर
उकेर गया
मन के आकाश में !

                                        -महेन्द्र वर्मा


दो कविताएँ


1.
मैं ही
सही हूँ
शेष सब गलत हैं
ऐसा तो
सभी सोचते हैं
लेकिन ऐसा सोचने वाले
कुछ लोग
अनुभव करते हैं
अतिशय दुख का
क्योंकि
शेष सब लोग
लगे हुए हैं
सही को गलत
और गलत को सही
सिद्ध करने में

2.
मुझे
एक अजीब-सा
सपना आया
मैंने देखा
एक जगह
भ्रष्टाचार की
चिता जल रही थी
लोग खुश थे
हँस-गा रहे थे
अमीर-गरीब
गले मिल रहे थे
सभी एक-दूसरे से
राम-राम कह रहे थे
बगल में
छुरी भी नहीं थी

सपने
सच हों या न हों
पर कितने अजीब होते हैं
है न ?



                                                        -महेन्द्र वर्मा

क्षणिकाएं



1.
घटनाएं
भविष्य के अनंत आकाश से
एक-एक कर उतरती हैं
और
क्षण भर में घटित होकर
समा जाती हैं
अतीत के महापाताल में

बताओ भला
कहां है
वर्तमान !!


2.
-उदास हो
-नहीं
बस यूं ही
काली किरणों की
बारिश में भीगने का
आनंद ले रहा हूं


                         -महेन्द्र वर्मा

क्षणिकाएँ


1.
हम तो  
अक्षर हैं
निर्गुण-निरर्थक
तुम्हारी जिह्वा के खिलौने
अब 
यह तुम पर है कि
तुम हमसे
गालियाँ बनाओ
या
गीत




2.
मैंने तो 
सबको दिया
वही धरा
वही गगन
वही जल-अगन-पवन
अब तुम 
चाहे जिस तरह जियो
बुद्ध की तरह
या
बुद्धू की तरह

                                                    -महेन्द्र वर्मा