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खुला मस्तिष्क या बंद मस्तिष्क



क्या आपको किसी ने कभी कहा है कि ‘ज़रा खुले दिमाग़ से सोचो’ या क्या यही बात आपने किसी से कभी कही है ?  इस बात से ऐसा लगता है कि सोचने वाला अब तक ‘बंद दिमाग़’ से सोच रहा था । क्या बंद दिमाग़ से भी सोचा जा सकता है ? सोचते होंगे कुछ लोग ! तभी तो कहने की ज़़रूरत पड़ी कि ‘खुले दिमाग से सोचो’ !

हर एक व्यक्ति अपने आस-पास की दुनिया और उसमें घटित होने वाली घटनाओं को अलग तरह से ‘देखता’ है, उसके बारे में अलग तरह से सोचता है, अलग तरह से निष्कर्ष निकालता है और अंत में अलग तरह से अपनी प्रतिक्रिया देता है । ऐसा इसलिए क्योंकि प्रत्येक की बौद्धिक क्षमता अन्य से अलग होती है । किसी घटना या विचारधारा के प्रति दो व्यक्तियों की राय बिल्कुल विपरीत भी हो सकती है । विचित्र स्थिति तब पैदा होती है जब दोनों अपनी-अपनी बात को सही होने का दावा करते हैं । प्रश्न उठता है कि उन दोनों में सही कौन है ? क्या इस तरह की बातों के बारे में सही या गलत का निर्णय करने का कोई पैमाना, कोई आधार होता है ?

इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के पहले यह जान लेना आवश्यक होगा कि लोगों के साथ जीवन में वास्तव में औसत रूप से क्या होता है । एक बात जो सर्वमान्य है कि प्रत्येक के जीवन में उतार-चढ़ाव होता रहता है लेकिन यह भी सही है कि कुछ लोग लगातार अपने कार्यक्षेत्र में सफल होते रहते हैं जबकि कुछ को लगातार असफलता का सामना करना पड़ता है । यह स्पष्ट कर दें कि यहां सफलता का संबंध परिश्रम, ईमानदारी, लगन और प्रतिभा जैसी विशेषताओं से है न कि भ्रष्टाचार, बेईमानी, झूठ आदि से । पहले प्रकार के लोग प्रायः ज़़्यादा ग़लतियां नहीं करते वहीं दूसरे प्रकार के लोग बार-बार ग़लतियां करते हैं । जाहिर है, इस सफलता-असफलता के पीछे लोगों की सोच ज़िम्मेदार है, घटनाओं को देखने-समझने का, सामना करने का उनका नज़़रिया जिम्मेदार है । दूसरे शब्दों में, इन सबका संबंध बौद्धिक क्षमता से है, मानसिकता से है ।

मनुष्य के व्यवहारों का अध्ययन करने वाले ‘पढ़े-लिखे लोगों’ यानी मनोवैज्ञानिकों ने  उपर कही गई बातों पर भी बहुत सारा अध्ययन किया है, शोध किया है और फिर कुछ निष्कर्ष निकाले हैं । इस विषय पर विशेषज्ञों ने किताबें भी लिखी गई हैं । उन्होंने पहले समूह के लोगों को ‘खुली मानसिकता वाले लोग’ और दूसरे समूह वाले लोगों को ‘बंद मानसिकता वाले लोग’ कहा है। यानी, दुनिया भर में यही दो तरह के लोग  हैं । आप ने महसूस किया होगा कि पहले प्रकार के लोगों की संख्या दूसरे प्रकार के लोगों की संख्या की तुलना में बहुत कम है ।

उक्त अध्ययनों में दोनों समूह के लोगों की कुछ विशेषताएं बताई गई हैं । खुली मानसिकता वाले लोग उदार सोच वाले होते हैं । ये ये नए विचारों को जानने के प्रति उत्सुक होते हैं । ये रूढ़ियों से बंधे रहना ज़रूरी नहीं समझते । जबकि बंद मानसिकता वाले लोग संकीर्ण सोच वाले होते हैं । ये नए विचारों को बिल्कुल नहीं जानना चाहते और उसका विरोध करते है। अपनी अपने वर्षों पुराने विचारों पर ही कायम रहना चाहते हैं । रूढ़ियों से बंधे रहना इन्हें पसंद होता है ।

पहले समूह के लोगों में सीखने के प्रति ललक होती है । अपनी ग़लतियों को स्वीकारते हैं । वे अपने विचारों पर सवाल उठाए जाने से दूसरों को नहीं रोकते । दूसरों की असहमति को अपने ज्ञान को बढ़ाने का साधन के रूप में देखते हैं । इस से इनकी रचनात्मकता में वृद्धि होती है । इसके विपरीत दूसरे समूह के लोगों को कुछ नया सीखने में कोई रुचि नहीं होती । ये कभी नहीं मानते कि इन से कोई गलती हो सकती है । ऐसे लोग बिल्कुल नहीं चाहते कि दूसरे लोग उनके विचारों पर सवाल उठाएं ।  सवाल उठाए जाने पर ये नाराज हो जाते हैंं । दूसरों के विचारों के खंडन में अधिक रुचि रखते हैं । अपनी बात मनवाने के लिए दूसरो पर दबाव भी डालते हैं । ये कुछ नया करने से झिझकते हैं । इसीलिए इनमें रचनात्मकता का अभाव होता है ।

खुली मानसिकता वालों का एक स्वाभाविक गुण है कि ये अहंकारी नहीं होते । इनमें किसी अज्ञात डर की भावना नहीं होती । ये दूसरों को समझाने की बजाय स्वयं समझने की कोशिश करते हैं, दूसरों के विचारों को धैर्य से सुनते हैं। बंद मानसिकता वाले लोग स्वभाव से अहंकारी होते हैं। इनमें डर और असुरक्षा की भावना प्रबल होती है इसीलिए ये दूसरों पर हावी होने की कोशिश लगातार करते रहते हैं । ये लोग नहीं चाहते कि कोई दूसरा उन्हें समझाए, दूसरों की बातों को सुनना इन्हें पसंद नहीं ।

खुली मानसिकता वाले लोग तथ्यों और तर्कों को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं । ये अपनी राय देने के पहले जानना और सीख लेना जरूरी समझते हैं । इन में एक से अधिक परस्पर विरोधी विचारों की समझ होती है । ये दूसरों के नज़रिए से भी चीजों को देखना जानते हैं । जबकि बंद मानसिकता वाले लोग कुतथ्य और कुतर्क जैसी बैसाखियों के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं । निराधार बातें करना इन्हें अच्छा लगता है । इन के मस्तिष्क में केवल खुद का ही विचार होता है, उस विचार से अलग किसी अन्य विचार के बारे में ये कुछ जानना भी नहीं चाहते । यदि कोई बताना भी चाहे तो ये जोर देकर कहते हैं-‘चुप रहो’ । दूसरों के नजरिए से इन्हें कोई मतलब नहीं ।

और....सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बंद मानसिकता वाले लोग स्वयं को कभी भी ‘बंद मानसिकता वाला’ नहीं मानते ।

(एंटिनोरी, स्टेनोविच, कार्टर, रे डालिओ, सिमिली आदि मनोवैज्ञानिको के अध्ययनों पर आधारित)

झूठ का सच



यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति यदा-कदा अनेक कारणों से झूठ बोलता है किंतु जब यह किसी व्यक्ति के लिए आदत या लत बन जाती है तो समाज में वह निंदा का पात्र बन जाता है । कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि कोई उसे झूठ बोलकर धोखा दे । आदतन झूठा वह आदमी होता हे जो पहले भी झूठ बोलता था, अभी भी झूठ बोल रहा है और आगे भी झूठ बोलेगा ।

यदि कोई ऐसी बात कहता है जिसके बारे में बोलने वाले को भी विश्वास नहीं होता कि यह सच है फिर भी इस इरादे से बोलता है कि सुनने वाले उस बात को सच मान लें, झूठ बोलने का यही तात्पर्य है । स्पष्ट है कि झूठ में बेइमानी और धोखा दोनों शामिल हैं ।


चूंकि ‘झूठ बोलना’ मानव व्यवहार से संबंधित है इसलिए मनावैज्ञानिकों ने इस विषय पर भी पर्याप्त अध्ययन किया है । झूठ के संबंध में पहले जो चिंतन था वह नैतिकता और धार्मिकता पर आधारित था और उपदेशपरक था । लेकिन हाल के वर्षों में मनोवैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की है कि मनुष्य झूठ बोलता क्यों है और कौन-सी चीज उसे झूठ बोलने के लिए प्रेरित करती है।

झूठ बोलने के संबंध में सबसे पहले व्यवस्थित रूप से अध्ययन कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के समाज मनोविज्ञानी बेला डे पाउलो और उसके साथियों ने दो दशक पहले प्रारंभ किया था । पाउलो ने अपनी पुस्तक The Psychology of Lying में झूठ बोलने के कारणों का उल्लेख किया है ।  A  National Geographic  पत्रिका के जून 2017 के अंक में इस विषय पर कवर स्टोरी प्रकाशित की थी । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लोग अलग-अलग कारणों से झूठ बोलते हैं -
 1. अपनी गलती और अपराध को छिपाने के लिए, 2. स्वयं को इच्छित मुकाम में प्रतिष्ठित करने के लिए, 3. दूसरों को भ्रमित कर प्रभावित करने के लिए, 4. व्यक्तिगत लाभ के लिए, 5. सच्चाई को उपेक्षित करने के लिए 6. कुछ लोगों को नुकसान पहुंचाने के लिए, 7. मज़ाक करने के  लिए, 8. अन्य कारणों से ।

American Journal of Forensic Psychiatry  में प्रकाशित एक लेख और टेक्सास यूनीवर्सिटी की मनावैज्ञानिक जैकलीन इवान्स और उनके सहयोगियों के अनुसार झूठ बोलने वालों के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं -
1.उनकी सोच अस्थिर होती है, 2. स्वयं के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हैं या छिपाते हैं, 3.‘क्यों’ का उत्तर देने से बचते हैं, 4. उत्तर देने के पूर्व सवाल को दुहराते हैं, 5. बोलते समय ‘पिच’ में असाधारण परिवर्तन होता रहता है,  6.ऐसा प्रदर्शित करते हैं जैसे वे बहुत परिश्रम करते हैं, 5. उनके कथन निरर्थक और विरोधाभासी होते हैं, 7. वे चिंतित और तनावग्रस्त रहते हैं, 6. उनमें हीन भावना होती है ।

मनोविज्ञानी शेली टेलर के अनुसार, झूठ बोलने वाले आत्ममुग्ध होते हैं । भाषा पैटर्न पर शोध करने वाले मनोविज्ञानी डायना बेरी के अनुसार झूठ बोलने और लिखने वाले प्रायः अपनी बातों में ‘प्रथम पुरुष’ का प्रयोग करते हैं । डे पाउलो ने अपने शोध में पाया कि ऐसे लोग अक्सर विवादित रहते हैं । हार्वर्ड में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. ग्राम्ज़ो के अनुसार झूठ बोलना मूल रूप से स्वयं को एक लक्ष्य की ओर स्वयं को प्रोजेक्ट करने और अपनी इच्छाओं को पोषित करने की कवायद है ।

Nature Neuroscience  में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि झूठ बोलते समय व्यक्ति के मस्तिष्क का ‘प्रोत्साहन केन्द्र’ सक्रिय हो जाता है । इससे प्रेरित होकर वह अपने व्यवहार में निरंतर झूठ बोलने या धोखा देने का पैटर्न जारी रखता है । टेक्सास विश्वविद्यालय की विभागीय पत्रिका Personality and Social Psychology  की एक रिपोर्ट के अनुसार झूठे लोग जोड़-तोड़ करने वाले और ‘मेकियावेलियन’ होते हैं । मनोविज्ञान में ‘मेकियावेलियन’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया जाता है जो स्वयं की इच्छा और लक्ष्य की पूर्ति के लिए दूसरों के साथ धोखा, छल-कपट और हिंसा तक का व्यवहार करता है ।

चिकित्सा मनोविज्ञान में Pseudologia Fantastica मनुष्य की ऐसी असामान्य मनःस्थिति को कहा जाता है जब व्यक्ति झूठ बोलने का आदी हो या बाध्य हो । इसी तरह की एक और स्थिति को Mitomanía  कहते हैं जिसमें व्यक्ति की अतिशयोक्तिपूर्ण झूठ बोलने की असामान्य प्रवृत्ति होती है । मनोचिकित्सकों के अनुसार ये मानसिक रोग कुण्ठा और हीनभावनाग्रस्त व्यक्ति को होने की अधिक संभावना होती है। ऐसे लोग स्वयं की झूठी प्रतिष्ठा के लिए चतुराई से इस तरह बार-बार झूठ बोलते हैं कि लोग उसका विश्वास करें ।

लगभग 200 वर्ष पूर्व आयरलैंड के प्रसिद्ध साहित्यकार जोनाथन स्विफ्ट ने  Essay on the Art of Political Lying   में एक विचित्र बात लिखी है- ‘‘ जिस प्रकार एक बड़ा लेखक अपने पाठकों को नापसंद करता है उसी प्रकार एक बड़ा झूठा अपने ही विश्वासियों को नापसंद करता है ।’’

-महेन्द्र वर्मा

भविष्यकथन - एक दृष्टि









आजकल टेलीविज़न के चैनलों में भविष्यफल या भाग्य बताने वाले कार्यक्रमों की बाढ़ आई हुई है । स्क्रीन पर विचित्र वेषभूषा में राशिफल या लोगों की समस्याओं के समाधान बताते ये लोग भविष्यवक्ता कहे जाते हैं । क्या ये सचमुच भविष्य की घटनाओं को पहले से जान लेते हैं ? क्या इनके पास सचमुच कोई ऐसी विद्या है जिससे ये लोगों के भविष्य को जानकर उसमें आने वाली समस्याओं के समाधान के लिए उपाय भी बता सकें ?

इन प्रश्नों के उत्तर मनुष्य की प्रकृति और स्वभाव में निहित हैं।

अपने भविष्य के बारे में जानने की इच्छा मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।  वह यह देखता आया है कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन में सुख और दुख, शांति और अशांति जैसी सकारात्मक और नकारात्मक स्थितियां अनिवार्य रूप से आती जाती रहती हैं । किंतु वह सुख की चाह की अपेक्षा इस बात की कामना अधिक करता है कि उसके जीवन में दुख न आए । उसके अवचेतन मन में भविष्य में आ सकने वाले दुख और अशांति के प्रति भय और चिंता बनी रहती है । यही भय उसे यह जानने के लिए प्रवृत्त करता है कि उसका भविष्य कैसा होगा, सुख-शांति की स्थितियां अधिक होंगी या दुख-अशांति की ।

हज़ारों साल पहले से मनुष्य पशु-पक्षी की आवाजों के साथ भविष्य में होने वाली घटनाओं का संबंध जोड़ने लगे थे । फिर जैसे-जैसे उसकी समझ, साथ ही नासमझी भी, बढ़ती गई वैसे-वैसे भविष्य जानने के नए-नए तरीके भी ईजाद होने लगे । आज पूरी दुनिया में भविष्य जानने के सैकड़ों तरीके प्रचलन में हैं । भारत में ही भविष्य बताने के 150 से अधिक विधियां प्रचलित हैं । जन्म कुंडली, हस्तरेखा, रमल, टैरो कार्ड, क्रिस्टल बॉल, अंक ज्योतिष, स्वप्न, मुखाकृति आदि से लेकर तोता, बैल, उल्लू, गधा आदि के माध्यम से भी भविष्यफल बताए जाते हैं ।

भविष्यफल बताने के ये तरीके तब और फलने-फूलने लगे जब भविष्यवक्ताओं ने अशुभ फलों को दूर करने या कम करने के उपाय भी बताना शुरू किया । हज़ारों साल पहले टोटेम के रूप में शुरू हुई इस परम्परा को बाद में भविष्यवक्ताओं ने शास्त्र कहा और अब वे इसे विज्ञान कहने लगे हैं । लेकिन वैज्ञानिकों ने इस ‘विद्या’ को कभी विज्ञान मानने लायक नहीं समझा क्योंकि यह विज्ञान है ही नहीं ।

भविष्यकथन विज्ञान न होने के बावजूद लोगों को क्यों कुछ भविष्यफल बिल्कुल सही प्रतीत होते हैं । इसका कारण है -भविष्य कथन की भाषा । इसकी भाषा कुछ इस प्रकार की होती है कि पढ़ने-सुनने वाला  उस कथन के अर्थों की  संगति स्वयं के साथ  आसानी से स्थापित कर लेता है । कुछ उदाहरण देखिए - आपका व्यक्तित्व आकर्षक है/आप अपनी ज़िंदगी अपने अंदाज़ में जीना चाहते हैं/व्यापार में सावधानी बरतें/बाधाएं आएंगी किंतु प्रयास करेंगे तो सफलता निश्चित है/अमुक अवधि में आपको अकस्मात धनलाभ होगा/व्यय पर नियंत्रण रखें/किसी परिजन के बीमार होने के कारण आप चिंतित रहेंगे/इस महीने व्यय की अधिकता रहेगी, आदि ।

ये ऐसे कथन हैं जिन्हें दुनिया का कोई भी व्यक्ति पढ़ेगा या सुनेगा तो उसे लगेगा कि ये उसके बारे में बिल्कुल सही कहा जा रहा है । आप में से जो भविष्यफल पढ़ने में रुचि रखते हैं वे कभी सभी बारह राशियों का भविष्यफल पढ़ कर देखें, आपको लगेगा कि सभी कथन आप पर भी लागू हो सकते हैं । भविष्यवक्ताओं द्वारा जानबूझ कर ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाता है ।

कुछ भविष्यकथन बिल्कुल सही होते देखे गए हैं । इसका कारण है संभाव्यता, अर्थात किसी घटना के घटित होने की संभावना । यदि किसी भविष्यवक्ता ने अपने 100 ग्राहकों को यह बताया कि अगले वर्ष आपके विवाह का योग है तो इस स्थिति में प्रत्येक के लिए केवल दो संभावनाएं हैं - विवाह होगा या नहीं होगा, इनमें से एक सही होगा ही । अर्थात 2 संभावनाओं में से 1 निश्चित ही घटित होगा । यानी 100 में से 50 या 50 प्रतिशत । इसी संभाव्यता के कारण कुछ भविष्यकथन सही होते पाए गए हैं । लेकिन इसमें ज्योतिषी के ज्ञान की कोई भूमिका नहीं है । साधारण शब्दों में ये तीर-तुक्का वाली बात है ।

यदि कोई भविष्यफल नकारात्मक हो तो उसके निवारण के लिए कई प्रकार के उपाय भविष्यवक्ताओं के द्वारा बताए जाते हैं । जो लोग उपाय करते हैं उनमें से कुछ को सफलता मिल जाती है, इसके पीछे भी संभाव्यता और संयोग का सिद्धांत लागू होता है । एक कारण और है- उपाय करने के बाद लोग आश्वस्त हो जाते हैं, उनका आत्मविश्वास और आत्मबल बढ़ जाता है । फलस्वरूप वे कार्य की सफलता या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अधिक प्रयास  करते हैं और कुछ को सफलता मिल भी जाती है । इस सफलता में उपाय की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती बल्कि व्यक्ति द्वारा किया गया प्रयास ही मुख्य कारक होता है ।

स्वामी विवेकानंद ने कुछ सोचकर ही ये कहा होगा - ‘‘फलित ज्योतिष को  महत्व देना  अंधविश्वास है, इसने मनुष्यों को बहुत हानि पहुंचाई है (The Complete Works of Swami Vivekananda/Volume 8/Notes Of Class Talks And Lectures/Man The Maker Of His Destiny ) ।’’

-महेन्द्र वर्मा

अंधविश्वास का मनोविज्ञान






एक वाक्य में अंधविश्वास को परिभाषित करना मुश्किल है क्योंकि इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है । मोटे तौर पर कह सकते हैं कि ‘तर्कहीन विश्वास’ अंधविश्वास है । अपने विकास क्रम में जब मनुष्य थोड़ा सोचने-समझने लायक हुआ तब ज्ञान और तर्क का जन्म नहीं हुआ था । इन के अभाव में घटनाओं की मनमानी व्याख्या की जाती थी। आश्चर्य है कि आज पचास हज़ार साल बाद भी यह परंपरा जारी है।

गत तीन-चार सदियों में ज्ञान के अप्रत्याशित विस्फोट के बावज़ूद घटनाओं की तर्कहीन व्याख्या के पीछे मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियां रही हैं। लोभ, स्वार्थ, सुख की चाह, दुख की चिंता, अस्तित्व की असुरक्षा का भय जैसी प्रवृत्तियां अंधविश्वास के जनक और पोषक हैं । इन प्रवृत्तियों से कुछ द्वितीयक प्रवृत्तियां विकसित होती हैं, जैसे -  परंपराओं से चिपके रहने का मोह, सदियों पुराने तथाकथित तर्कहीन ‘ज्ञान’ को ही अंतिम सत्य मानने की जड़ता, नए तार्किक ज्ञान की उपेक्षा, किसी अज्ञात शक्ति का भय आदि।

पिछले सौ वर्षों में मनोविज्ञान ने काफ़ी प्रगति की है । अंधविश्वास के कारणों पर बहुत सारी नई जानकारियां उद्घाटित हुई हैं । यह जानने की कोशिश की गई है कि कुछ लोग अंधविश्वासी क्यों होते हैं ? क्या कुछ अंधविश्वास लाभ भी पहुंचाते हैं ? कुछ पढे-लिखे लोग भी अंधविश्वासी क्यों होते हैं ?

मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोधों के कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष इस प्रकार हैं -

1.    मनुष्य अपने पूर्वज्ञान के आधार पर घटनाओं की व्याख्या करता है । यदि उसका पूर्वज्ञान सीमित होगा तो उसका निष्कर्ष भी त्रुटिपूर्ण होगा । व्यापक अध्ययन की कमी लोगों को अंधविश्वासी बनाती है ।
2.    कुछ लोग स्वभाव से अतार्किक होते हैं । किसी घटना के कारण को जानने के लिए  तर्क का प्रयोग नहीं करते । अपने संस्कारगत स्वाभाविक जानकारी के आधार पर निष्कर्ष तय कर लेते हैं । ये संस्कार पीढ़ियों पुराने होते हैं ।
3.    स्वयं के भविष्य के प्रति अनिश्चितता पर  नियंत्रण रखने की कोशिश, असहाय होने की भावना को, तनाव और चिंता को कम करने का प्रयास जैसे कारक भी अंधविश्वास के पोषक हैं ।
4.    यदि किसी व्यक्ति के मन को ‘वर्तमान में जितना है उससे अधिक पाने की लालसा’ उद्वेलित करती रहती है तो उसके अंधविश्वासी होने की संभावना अधिक होती है ।
5.    स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ जैसी धारणाएं भी मनुष्य को अंधविश्वासी बना सकती हैं ।
6.    कुछ व्यक्तियों के लिए किसी सर्वोच्च अदृश्य शक्ति पर सच्ची आस्था मनोवैज्ञानिक रूप से लाभदायक हो सकती है किंतु ऐसी अवस्था में भी यदि मन में अंधविश्वास प्रवेश करता है तो इसका कारण अज्ञानता और भय ही है । अंधविश्वासी व्यक्ति जिज्ञासु नहीं होता ।
7.    प्रत्येक ‘कार्य’ का ‘कारण’ अवश्य होता है, यदि कोई व्यक्ति कार्य के पीछे का कारण नहीं समझ पाता तो उस व्यक्ति में अंधविश्वास का प्रवेश हो सकता है ।

ज्ञान की निरंतर प्रगति के बावजू़द अंधविश्वास का कम न होना मानव सभ्यता के लिए चिंताजनक है । प्राचीन ज्ञान के वे अंश जो मानव मूल्यों को पोषित करते हैं निस्संदेह आज भी उपयोगी हैं, किंतु उन पर विश्वास और अमल  नहीं के बराबर हो रहा है । इसके विपरीत उन रूढिवादी और कट्टर मान्यताओं का प्रचार अधिक हो रहा है जो मानव मूल्यों के विपरीत हैं । अंधविश्वास की आड़ में व्यक्ति से लेकर देश और विश्व के स्तर तक बढ़े पैमाने पर ठगी का व्यापार फल-फूल रहा है ।

एक अंधविस्वासी सच्चे ज्ञान पर विश्वास नहीं कर पाता । स्वामी विवेकानंद ने कहा था - ‘‘अंधविश्वासी मूर्ख होने की बजाय अनीश्वरवादी होना ज़्यादा अच्छा है । अंधविश्वास कमजोर लोगों की पहचान है। इसलिए इससे सावधान रहो, सक्षम बनो ।’’







  
-महेन्द्र वर्मा