अपने हिस्से की बूँदें

तूफ़ाँ बनकर वक़्त उमड़ उठता है अक्सर,
खोना ही है जो कुछ भी मिलता है अक्सर ।

उसके माथे पर कुछ शिकनें-सी दिखती हैं,
मेरी  साँसों  का  हिसाब रखता है अक्सर ।

वक़्त ने गहरे हर्फ़ उकेरे जिस किताब पर,
उस के सफ़्हे वो छू कर पढ़ता है अक्सर ।

सहरा  हो  या  शहर  तपन  है  राहों में,
जख़्मी पाँवों से चलना पड़ता है अक्सर ।

अपने  हिस्से  की  बूँदों  को  ढूँढ  रहा  हूँ,
दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।

 


-महेन्द्र वर्मा