शाश्वत शिल्प
विज्ञान-कला-साहित्य-संस्कृति
कुछ और
मेरा कहना था कुछ और,
उसने समझा था कुछ और ।
धुँधला-सा है शाम का सफ़र,
सुबह उजाला था कुछ और ।
गाँव जला तो बरगद रोया,
उसका दुखड़ा था कुछ और ।
अजीब नीयत धूप की हुई,
साथ न साया, था कुछ और ।
जीवन-पोथी में लिखने को,
शेष रह गया था कुछ और ।
-महेन्द्र वर्मा
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