जो खोजै सो पावै
राजस्थान में गागरोनगढ़ का गढ़ झालावाड़ से कुछ दूरी पर है। यहां एक शूरवीर शक्तिशाली राजा हुए जिनका नाम था, प्रतापराय। विक्रम संवत 1380 में इनका जन्म हुआ। ये 52 गढ़ों के एकछत्र शासक थे। फिरोजशाह तुगलक की सेना को पराजित करने वाले प्रतापी राजा प्रतापराय इतना सब होते हुए भी भक्ति एवं साधना के लिए कुछ समय निकालकर परमात्मा का ध्यान व स्मरण करते रहते थे। इसे वह परमात्मा की कृपा मानते और संतों की सेवा के लिए तथा प्रजा की भलाई के लिए सदैव दत्तचित्त रहते।
स्वामी रामानंद से उन्होंने गुरुदीक्षा ली। एक बार स्वामी रामानंद संत कबीर, संत रैदास तथा अन्य कई शिष्यों के साथ गागरोन आए। राजा प्रताप राय ने उनका भव्य स्वागत किया। गुरु रामानंद ने अपने शिष्य राजा प्रतापराय को यहीं मंत्र देकर उपदेश दिया -‘‘हे शिष्य, तू लोक हित के लिए प्रेम रस ‘पी‘ और दूसरों को भी ‘पा‘ अर्थात पिला।‘‘ बस इसी उपदेश के दो अक्षरों ‘पी‘ और ‘पा‘ को जोड़कर राजा प्रताप राय ने अपने जीवन का मुक्ति सूत्र बना लिया और अपना नाम ही ‘पीपा‘ रख लिया। उसके बाद वे संत पीपा के नाम से विख्यात हो गए। इनकी वाणियों की दो हस्तलिखित प्रतियां द्वारिका के एक मठ में उपलब्ध हैं।
गुरुग्रंथ साहिब में संकलित संत पीपा जी के निम्नलिखित पद में उनके दार्शनिक विचारों का परिचय मिलता है-
काया देवा काया देवल, काया जंगम जाती।
काया धूप दीप नइबेदा, काया पूजा पाती।
काया के बहुखंड खोजते, नवनिधि तामें पाई।
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो, राम जी की दुहाई।
जो ब्रह्मंडे सोई पिंडे, जो खोजे सो पावे।
पीपा प्रणवै परम तत्त है, सतगुरु होय लखावै।
भावार्थ-
इस देह के भीतर ही सच्चा देवता स्थित है। इस देह में ही हरि और उसका मंदिर है। यह देह ही चेतन यात्री है। यह देह ही धूप दीप प्रसाद हैं तथा यही फूल और पत्ते हैं। जिस नौ निधि को विभिन्न स्थानों पर खोजते हैं वह भी इसी देह में है। आववागमन से परे अविनाशी तत्व भी इसी देह में है। जो समस्त ब्रह्मांड में है वह सब इस देह में भी है। सतगुरु की कृपा से उस परम तत्व के दर्शन हो सकते हैं।
राजस्थान में गागरोनगढ़ का गढ़ झालावाड़ से कुछ दूरी पर है। यहां एक शूरवीर शक्तिशाली राजा हुए जिनका नाम था, प्रतापराय। विक्रम संवत 1380 में इनका जन्म हुआ। ये 52 गढ़ों के एकछत्र शासक थे। फिरोजशाह तुगलक की सेना को पराजित करने वाले प्रतापी राजा प्रतापराय इतना सब होते हुए भी भक्ति एवं साधना के लिए कुछ समय निकालकर परमात्मा का ध्यान व स्मरण करते रहते थे। इसे वह परमात्मा की कृपा मानते और संतों की सेवा के लिए तथा प्रजा की भलाई के लिए सदैव दत्तचित्त रहते।
स्वामी रामानंद से उन्होंने गुरुदीक्षा ली। एक बार स्वामी रामानंद संत कबीर, संत रैदास तथा अन्य कई शिष्यों के साथ गागरोन आए। राजा प्रताप राय ने उनका भव्य स्वागत किया। गुरु रामानंद ने अपने शिष्य राजा प्रतापराय को यहीं मंत्र देकर उपदेश दिया -‘‘हे शिष्य, तू लोक हित के लिए प्रेम रस ‘पी‘ और दूसरों को भी ‘पा‘ अर्थात पिला।‘‘ बस इसी उपदेश के दो अक्षरों ‘पी‘ और ‘पा‘ को जोड़कर राजा प्रताप राय ने अपने जीवन का मुक्ति सूत्र बना लिया और अपना नाम ही ‘पीपा‘ रख लिया। उसके बाद वे संत पीपा के नाम से विख्यात हो गए। इनकी वाणियों की दो हस्तलिखित प्रतियां द्वारिका के एक मठ में उपलब्ध हैं।
गुरुग्रंथ साहिब में संकलित संत पीपा जी के निम्नलिखित पद में उनके दार्शनिक विचारों का परिचय मिलता है-
काया देवा काया देवल, काया जंगम जाती।
काया धूप दीप नइबेदा, काया पूजा पाती।
काया के बहुखंड खोजते, नवनिधि तामें पाई।
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो, राम जी की दुहाई।
जो ब्रह्मंडे सोई पिंडे, जो खोजे सो पावे।
पीपा प्रणवै परम तत्त है, सतगुरु होय लखावै।
भावार्थ-
इस देह के भीतर ही सच्चा देवता स्थित है। इस देह में ही हरि और उसका मंदिर है। यह देह ही चेतन यात्री है। यह देह ही धूप दीप प्रसाद हैं तथा यही फूल और पत्ते हैं। जिस नौ निधि को विभिन्न स्थानों पर खोजते हैं वह भी इसी देह में है। आववागमन से परे अविनाशी तत्व भी इसी देह में है। जो समस्त ब्रह्मांड में है वह सब इस देह में भी है। सतगुरु की कृपा से उस परम तत्व के दर्शन हो सकते हैं।