कुछ लोग




सच्चाई की बात करो तो, जलते हैं कुछ लोग,
जाने कैसी-कैसी बातें, करते हैं कुछ लोग।


धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।


उसके आंगन फूल बहुत है, मेरे आंगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।


इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।


ख़ुशियां लुटा रहे जीवन भर, लेकिन अपने पास,
कुछ आंसू, कुछ रंज बचाकर, रखते हैं कुछ लोग।


इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।


जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।



                                                                -महेंद्र वर्मा

40 comments:

Shah Nawaz said...

Behad khoobsurat Gazal hai... Her ek sher lutfandoz...

Unknown said...

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग

खूबसूरत भावनाओ भरी ग़ज़ल

Anupama Tripathi said...

धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।

bahut sunder bhaav ...aur bahut sunder shayari ...pratyek sher lajawab...
badhai.

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।

एक से बढ़कर एक अशआर.... बेहतरीन गज़ल भईया...
सादर बधाई...

monali said...

Har sher laajawaab... aabhar :)

Sunil Kumar said...

क्या बात है हर शेर लाजबाब , वाह वाह

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं...

अजय कुमार said...

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।

सत्य और सामयिक रचना ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आज 11- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर

Rakesh Kumar said...

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।

मैं तो आपका कहा दिल से मानने की कोशिश करूँगा,महेंद्र जी.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.

Dr (Miss) Sharad Singh said...

इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।

इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई....

Vandana Ramasingh said...

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।

बहुत बढ़िया गज़ल

mark rai said...

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।
.very nice lines........

vandana gupta said...

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।

bas yahi hai duniya ka dastoor.........sundar bhaavaavyakti

संजय @ मो सम कौन... said...

एक बंधु के ब्लॉग पर लिखा देखा है - सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग?
या फ़िर किशोर दा का गाना ’कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’

रविकर said...

कमाल है ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
बधाई ||


सच्चाई की बात अजीब,
धूप - चांदनी पर खीज |
तक़दीर फांके धूल-
उनको फूल सी चीज ||

भ्रूण में मारी हीर
है बड़ा बदतमीज |
खुशियाँ दी बेच
आँखे रही भीज ||

समझ की लाली
जिलाए रक्तबीज |
सहकर जुल्म हुआ
मुजरिम नाचीज ||

जयकृष्ण राय तुषार said...

भाई महेंद्र जी बहुत ही सुंदर दोहे बधाई

मनोज कुमार said...

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।
जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।
एक कटू यथार्थ शे‘रों में कह देने की कला कोई आपसे सीखे।

Patali-The-Village said...

सत्य और सामयिक रचना| धन्यवाद|

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।

अद्वितीय और बेजोड़ रचना.हर पंक्ति में यथार्थ को बड़ी ही खूबसूरती से कहा गया है.

रेखा said...

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।
जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।
एक -एक पंक्ति सच को उजागर करती हुई ............

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

उसके आंगन फूल बहुत है, मेरे आंगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।

बहुत खूबसूरत गज़ल

ZEAL said...

.

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग...

Unfortunately it is a sad truth. Thanks for this beautiful creation.

.

virendra sharma said...

धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।
उसके आंगन फूल बहुत है, मेरे आंगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।
सकारात्मक सोच और नज़रिए से भरपूर विश्लेषण प्रधान मनो -वैज्ञानिक ग़ज़ल .हर अशआर काबिले दाद ,काबिले गौर .वल्लाह क्या बात है आपकी .सलामत रहो .लेखनी के बादशाह अर्थ पूर्ण नीतिपरक गजलों के स्वामी .

संतोष त्रिवेदी said...

शुक्र है कि कुछ लोग ही ऐसा कर रहे हैं,पर आप जैसे कुछ लोग पहचान भी रहे हैं !!

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

महेन्‍द्र जी, जीवन के गूढ रहस्‍यों को कितनी सहजता से शायरी में पिरो दिया आपने। बधाई।

------
क्‍यों डराती है पुलिस ?
घर जाने को सूर्पनखा जी, माँग रहा हूँ भिक्षा।

Amrita Tanmay said...

महेन्‍द्र जी ,लोगों का काम ही है हँसना ..पर सच तो हमेशा चुप रह कर ही अपना काम करता रहेगा .

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

यूं तो हर मिसरा क़ाबिलेगौर है परंतु ये दो शेर दिल को गहरे छूने में क़ामयाब हुये महेंद्र भाई :-

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।

इसके अलावा हीर वाले को मीठा तंज़ भी बहुत खूब बहुत खूब है।

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।


उसके आंगन फूल बहुत है, मेरे आंगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।
behatarin..baar baar padhne ko pririt karti rachna....sadar pranam aaur blog per nimantran ke sath

Bharat Bhushan said...

बहुत खूब लिखा है महेंद्र जी. जहाँ-जहाँ मानवता अपनी ग़लती से तकलीफ उठा रही है वहाँ-वहाँ जा कर यह गज़ल उसका इलाज सुझा रही है.

रचना दीक्षित said...

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।

आज के हालात पर इससे सुंदर शेर कहना मुश्किल होगा. महेंद्र जी बहुत आभार सुंदर गज़ल से रूबरू करने के लिए.

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूबसूरत गज़ल.... महेन्‍द्र जी

रंजना said...

ख़ुशियां लुटा रहे जीवन भर, लेकिन अपने पास,
कुछ आंसू, कुछ रंज बचाकर, रखते हैं कुछ लोग।


इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैरां हूं, यह सुनते ही क्यूं, हंसते हैं कुछ लोग।


एक से एक नगीने तराशे हैं आपने....

आनंद आ गया....

Dr Varsha Singh said...

धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।

उसके आंगन फूल बहुत है, मेरे आंगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।

बहुत खूब...बहुत खूब....बहुत खूब....

उपेन्द्र नाथ said...

हर पंक्ति एक से बढ़कर ...... बिलकुल लाजबाब प्रस्तुति.
.
पुरवईया : आपन देश के बयार

Kunwar Kusumesh said...

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।

सच बात को बड़े सलीक़े से शेर में ढाला है आपने.
बढ़िया ग़ज़ल है.

दिगम्बर नासवा said...

इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।..

बहुत खूब महेंद्र जी ... क्या गज़ब का शेर है .. बिलकुल अलग हट के ... नए अंदाज़ का ...

Smart Indian said...

आपकी बात सोलह आने सही है
यही ज़माना है, दुनिया यही है॥

Anonymous said...

आपके शब्दमाला की हर एक पंक्ति एक नायाब मोती महसूस होती है ...बहुत बहुत बधाई आपको महेंद्र जी....

रविकर said...

बेस्ट ऑफ़ 2011
चर्चा-मंच 790
पर आपकी एक उत्कृष्ट रचना है |
charchamanch.blogspot.com