शब्दों से बिंधे घाव
उम्र भर छले,
आस-श्वास पीर-धीर
मिल रहे गले।
सुधियों के दर्पण में
अलसाये-से साये,
शुष्क हुए अधरों ने
मूक छंद फिर गाए,
हृद के नेहांचल में
स्वप्न-सा पले।
उज्ज्वल हो प्रात-सा
युग का नव संस्करण,
चिंतन के सागर में
सुलझन का अवतरण,
रावण के संग-संग
कलुष सब जले।
-महेन्द्र वर्मा