उतना ही सबको मिलना है,
जिसके हिस्से में जितना है।
क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।
ढोते रहें सलीबें अपनी,
जिनको सूली पर चढ़ना है।
मुड़ कर नहीं देखता कोई,
व्यर्थ किसी से कुछ कहना है।
जंग आज की जीत चुका हूं,
कल जीवन से फिर लड़ना है।
सूरज हूं जलता रहता हूं,
दुनिया को ज़िंदा रखना है।
बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।
-महेन्द्र वर्मा
6 comments:
महेन्द्र सा.
आपकी लम्बी अनुपस्थिति हमारे लिए असह्य हो जाती है.. कुछ सचमुच अच्छा लिखने वालों का लिखा, पढ़ने और उससे हमेशा कुछ सीखने को मिलता है. आप उनमें से एक हैं मेरे लिए..
प्यारी सी ग़ज़ल है.. छोटी बहर, सरल शब्दों का चुनाव, आपका मिडास टच (आध्यात्म और व्यवहारिकता) और एक आदमी की जद्दोजहद को दर्शाती ये ग़ज़ल.. बेहतरीन...
मक्ते में जो सीख है उसे पिछले दो साल से जीवन में उतारने की कोशिश कर रहा हूँ... जितना सीखा है उससे बड़ी शांति मिली है!!
इतनी देर लगाना अच्छी बात नहीं!! इसे मेरी शिकायत समझें, ताना समझें या ज़िद.. बड़े हैं, जो सम्झेंगे आशीर्वाद होगा!!
बेहतरीन पंक्तियाँ
बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।
.........सुन्दर सटीक प्रस्तुति !
ढोते रहें सलीबें अपनी,
जिनको सूली पर चढ़ना है...
गज़ब का शेर है ... छोटी बहर में स्पष्ट तरीके से गहरी छाप छोड़ी है ... लाजवाब गज़ल ..
सच! आपको पढ़कर ऊर्जा मिलती है..
क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।
ढोते रहें सलीबें अपनी,
जिनको सूली पर चढ़ना है।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय
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