कोई शख़्स ग़म से घिरा लग रहा था,
हुआ जख़्म उसका हरा लग रहा था।
मेरे दोस्त ने की है तारीफ़ मेरी,
किसी को मग़र ये बुरा लग रहा था।
ये चाहा कि इंसां बनूं मैं तभी से,
सभी की नज़र से गिरा लग रहा था।
लगाया किसी ने गले ख़ुशदिली से,
छुपाता बगल में छुरा लग रहा था।
मैं आया हूं अहसान तेरा चुकाने,
ये जिसने कहा सिरफिरा लग रहा था।
जो होने लगे हादसे रोज इतने,
सुना है ख़ुदा भी डरा लग रहा था।
ग़र इंसाफ तुझको दिखा हो बताओ,
वो जीता हुआ या मरा लग रहा था।
-महेन्द्र वर्मा
8 comments:
सुकून आपकी इस ग़ज़ल से मिला है,
नहीं तो ये* मातमज़दा लग रहा था.
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* आपका ब्लॉग :)
लगाया किसी ने गले ख़ुशदिली से,
छुपाता बगल में छुरा लग रहा था।
मैं आया हूं अहसान तेरा चुकाने,
ये जिसने कहा सिरफिरा लग रहा था।
ग़र इंसाफ तुझको दिखा हो बताओ,
वो जीता हुआ या मरा लग रहा था।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय
बहुत बढ़िया, अच्छा लगा।
उम्दा लिखा है |
"मैं आया हूं अहसान तेरा चुकाने,
ये जिसने कहा सिरफिरा लग रहा था।|
बढ़िया है |
बहुत ही सुन्दर लिखा है..
आपकी कविता बहुत ही अच्छी लगी। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल लगी मुझे ....... शुभकामनायें ।
गज़ल को पढ़ा और पूरा पढ़ा ,
पर असर में दुधारी छुरा लग रहा था!
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