मंजर कैसे-कैसे देखे,
कुछ हँस के कुछ रो के देखे।
बड़ी भीड़ थी, सुकरातों के-
ऐब ढूंढते-फिरते देखे।
घर के भीतर घर, न जाने-
कितने बनते-गिरते देखे।
पूछा, कितने बसंत गुजरे,
इतने पतझर कहते देखे।
शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।
गए दूसरों को समझाने,
खुद को ही समझाते देखे।
कुछ ही साबुत इंसां-से थे,
बाकी आड़े-तिरछे देखे।
- महेन्द्र वर्मा
16 comments:
महेन्द्र सा.
जहाँ लोग दिन भर में दस गज़लें 'लिख' मारते हैं, वहाँ आपका दस हफ़्तों में एक ग़ज़ल 'कहना' इस बात का सबूत है कि आपकी ग़ज़लें महज़ लफ्ज़ों की बाजीगरी नहीं, एहसास और तजुर्बात का समन्दर है...! कितनी बारीकी से आपने आज के समाज की तस्वीर पेश की है... आपकी गज़लगोई के लिये भले 'वाह' निकल जाए ज़ुबान से, उन हालत के लिये तो बस 'आह' निकलती है!!
मेरा प्रणाम है आपके लिये!!
शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।
सटीक और प्रभावी पंक्तियाँ
घर के भीतर घर, न जाने-
कितने बनते-गिरते देखे।
पूछा, कितने बसंत गुजरे,
इतने पतझर कहते देखे।
मार्मिक।
बहुत खूब महेंद्र जी ...
छोटी बहर में कमाल के शेर ... आज के सच को बाखूबी शेरों में उतारा है ... लाजवाब ...
गए दूसरों को समझाने,
खुद को ही समझाते देखे।
कुछ ही साबुत इंसां-से थे,
बाकी आड़े-तिरछे देखे।
..बहुत सही .............. लाजवाब!
शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।
वाह 1 बहुत खूब
शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।
कही गई यह स्थिति मन पर गहरा प्रभाव छोड़ गई.
आपका आभार महेंद्र जी.
घर के भीतर घर, न जाने-
कितने बनते-गिरते देखे।
पूछा, कितने बसंत गुजरे,
इतने पतझर कहते देखे।
शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।
कुछ ही साबुत इंसां-से थे,
बाकी आड़े-तिरछे देखे।
वाह आदरणीय सर बहुत खूब
कुछ ही साबुत इंसां-से थे,
बाकी आड़े-तिरछे देखे।
वाह!!!
कुछ ही साबुत इंसां-से थे,
बाकी आड़े-तिरछे देखे।
कमाल के शेर....... लाजवाब!
वर्तमान में जो हो रहा है,और जीवन जो देख रहा है उस यथार्थ
का सजीव चित्रण
मन को छूती अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर रचना ----
सादर ---
आग्रह है ------मेरे ब्लॉग में सम्मलित हों
आवाजें सुनना पड़ेंगी -----
http://jyoti-khare.blogspot.in
शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।
बहुत सुंदर , मंगलकामनाएं आपको !
बहुत ख़ूब!
शब्दों के नश्तर के आगे,
बेबस मौन सिसकते देखे।.excellent ....
वाह ! बहुत ही सुन्दर !
घर के भीतर घर, न जाने-
कितने बनते-गिरते देखे।
शब्दों के नश्तर के आगे
कितने मौन सिसकते देखी
वाह दोनो गज़ब के अश आर हसिं 1 बधाई1
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