घर कभी घर थे मगर अब ईंट पत्थर हो गए,
रेशमी अहसास सारे आज खद्दर हो गए।
वक़्त की रफ़्तार पहले ना रही इतनी विकट,
साल के सारे महीने ज्यूं दिसंबर हो गए।
शोर ये कैसा मचा है-सत्य मैं हूं, सिर्फ मैं,
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।
परख सोने की भला कैसे सही होगी मगर,
जो ‘कसौटी’ थे वे सारे संगमरमर हो गए।
जख़्म पर मरहम लगा दूं, सुन हुआ वो ग़मज़दा,
मैं हुआ हैरान मीठे बोल नश्तर हो गए।
-महेन्द्र वर्मा
रेशमी अहसास सारे आज खद्दर हो गए।
वक़्त की रफ़्तार पहले ना रही इतनी विकट,
साल के सारे महीने ज्यूं दिसंबर हो गए।
शोर ये कैसा मचा है-सत्य मैं हूं, सिर्फ मैं,
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।
परख सोने की भला कैसे सही होगी मगर,
जो ‘कसौटी’ थे वे सारे संगमरमर हो गए।
जख़्म पर मरहम लगा दूं, सुन हुआ वो ग़मज़दा,
मैं हुआ हैरान मीठे बोल नश्तर हो गए।
-महेन्द्र वर्मा
12 comments:
सचमुच ,सोचने-समझने की सामर्थ्य बची है जिसमें वह हैरान होकर ही रह जाता है ,चारों ओर यही मंज़र !
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।
एक से बढ़कर एक शेर आदरणीय बहुत शानदार ग़ज़ल
एक एक शेर जैसे मोती हो, कौनसा चुनूँ मुश्किल काम है। खूबसूरत गज़ल।
आपका स्नेह बना रहे।
दिल को छू गए अलफ़ाज़ ...
शोर ये कैसा मचा है-सत्य मैं हूं, सिर्फ मैं,
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।
...वाह...लाज़वाब ग़ज़ल..सभी अशआर बहुत ख़ूबसूरत...
शोर ये कैसा मचा है-सत्य मैं हूं, सिर्फ मैं,
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।..
आज की कडुवी हकीकत का सच ... बहुत ही लाजवाब शेर हैं सब ...
महेन्द्र सा.
आपकी ग़ज़लों में जो एहसास दिखता है वह जीवन का अनुभव होता है, कहीं से उधार लिये या बासी एहसासात नहीं. ग़ज़ल पूरी पढने के बाद मतले से लेकर मक़्ते तक सोचने को मजबूर करती है और यह मजबूरी बाज मर्तबा "वाह-वाह" को दबा देती है, क्योंकि ये अशआर वाहवाही के मोहताज नहीं एक फ़िक्र को जन्म देते हैं और इनपर असली दाद इनको अमल में लाना हे हो सकता है - और कुछ नहीं!
शोर ये कैसा मचा है-सत्य मैं हूं, सिर्फ मैं,
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।
एक सचाई जो याद दिलाती है:
बस के दुश्वार है हर काम का आसाँ होना,
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना!
प्रणाम करता हूँ आपको!
बहुत ही बढ़िया , हैरान हुई ....सत्य जो इसकदर नश्तर हुए !
बहुत उम्दा गज़ल
शोर ये कैसा मचा है-सत्य मैं हूं, सिर्फ मैं,
आदमी कुछ ही बचे हैं शेष ईश्वर हो गए।
...वाह...लाज़वाब अलफ़ाज़
बहुत ही सुंदर और अहसास दिलाने वालीं पंक्तियां।
बहुत सुंदर ग़ज़ल महेंद्र जी.
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