जाने किसकी नज़र लग गई

कभी छलकती रहती थीं  बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया कैसे अपनी धरती पर ।

सभी मुसाफिर  इस सराय के  आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की बस जीने की  धरती पर ।

ममतामयी प्रकृति को चिंता है अपनी संततियों की,
सबके लिए जुटा कर रक्खा दाना -पानी धरती पर ।

पूछ  रहे  हो  हथेलियों  पर  कैसे   रेखाएँ   खींचें,
चट्टानों पर ज़ोर लगा, हैं बहुत नुकीली धरती पर ।

रस्म निभाने सबको मरना इक दिन लेकिन उनकी सोच,
जो हैं  अनगिन  बार  मरा  करते  जीते -जी  धरती पर ।

जब से पैसा दूध-सा हुआ  महल बन गए बाँबी-से,
नागनाथ औ’ साँपनाथ की भीड़ है बढ़ी धरती पर ।

मौसम रूठा रूठी तितली रूठी दरियादिली  यहाँ,
जाने किसकी नज़र लग गई आज हमारी धरती पर ।

                                                                                                              -महेन्द्र वर्मा

9 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सब कुछ ही बदल गया है । सटीक भावाभिव्यक्ति

Kailash Sharma said...

सभी मुसाफिर इस सराय के आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की जीने की इस धरती पर ।

...वाह..स्वार्थ और लालच ने धरती का रूप बिलकुल बदल दिया है...बहुत सटीक अभिव्यक्ति..

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ही सुन्दर रचना और जायज चिंता ...

रचना दीक्षित said...

बहुत सुंदर रचना. अच्छा विषय.

कहकशां खान said...

शानदार और पठनीय रचना की प्रस्‍तुति।

sm said...

beautiful poem

Bharat Bhushan said...

धरती सब सहती है. बहुत सुंदर रचना महेंद्र जी.

Unknown said...

सभी मुसाफिर इस सराय के आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की जीने की इस धरती पर ।
बहुत ही सुन्दर ब सच्ची शब्द रचना
http://savanxxx.blogspot.in

Anonymous said...

कभी छलकती रहती थीं बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया कैसे अपनी धरती पर ।