शीत - सात छवियाँ



धूप गरीबी झेलती, बढ़ा ताप का भाव,
ठिठुर रहा आकाश है,ढूँढ़े सूर्य अलाव ।

रात रो रही रात भर, अपनी आंखें मूँद,
पीर सहेजा फूल ने, बूँद-बूँद फिर बूँद ।

सूरज हमने क्या किया, क्यों करता परिहास,
धुआँ-धुआँ सी जि़ंदगी, धुंध-धुंध विश्वास ।

मानसून की मृत्यु से, पर्वत है हैरान,
दुखी घाटियाँ ओढ़तीं, श्वेत वसन परिधान ।

कितनी निठुरा हो गई, आज पूस की रात,
नींद राह तकती रही, सपनों की बारात ।

उम्र नहीं अब देखती, छोटी चादर माप,
मन को ऊर्जा दे रहा, जीवन का संताप ।

बुझी अँगीठी देखती, मुखिया बेपरवाह,
परिजन हुए विमूढ़-से, वाह करें या आह ।
                                                                  -महेन्द्र वर्मा

13 comments:

जमशेद आज़मी said...

बहुत ही सुंदर रचना।

Bharat Bhushan said...

छवियोंं की विविधता में अनुभूतियों की विराटता को समोना आप ही कर सकते हैं. बहुत खूब.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

उम्दा पंक्तियाँ

Kailash Sharma said...

वाह..बहुत सुन्दर और रोचक दोहे...

निवेदिता श्रीवास्तव said...

अद्भुत बिम्ब संयोजन .....

डॉ. जेन्नी शबनम said...

बेहद भावपूर्ण दोहे, बधाई.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत प्रभावशाली दोहे......बहुत बहुत बधाई.....

Sanju said...

सुन्दर व सार्थक रचना...
नववर्ष मंगलमय हो।
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

abhi said...

वाह! लाजवाब!

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर और रोचक दोहे...

Amrita Tanmay said...

अनुपम !

दिगम्बर नासवा said...

बहुत कमाल के दोने .. अनेक जीवन के रंग समेटे हुए ... बेहतरीन ...

Vandana Ramasingh said...

बहुत सुन्दर दोहे