सुरभित मंद समीर ले
आया है मधुमास।
पुष्प रँगीले हो गए
किसलय करें किलोल,
माघ करे जादूगरी
अपनी गठरी खोल।
गंध पचीसों तिर रहे
पवन हुए उनचास ।
अमराई में कूकती
कोयल मीठे बैन,
बासंती-से हो गए
क्यों संध्या के नैन।
टेसू के संग झूमता
सरसों का उल्लास ।
पुलकित पुष्पित शोभिता
धरती गाती गीत,
पात पीत क्यों हो गए
है कैसी ये रीत।
नृत्य तितलियाँ कर रहीं
भौंरे करते रास ।
-महेन्द्र वर्मा
7 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सुरैया जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
बसंत के आगमन पर बहुत ही सुन्दर शब्दों की अविरल धरा सी अनुपम रचना ... सुन्दर नवगीत ...
बसंत पंचमी की बधाई ....
भावों और शब्दों का लाज़वाब संयोजन...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ऋतु परिवर्तन के साथ बदलते कवि के मन के भावों को ज्यों का त्यों आपने उतार दिया है. बहुत बढ़िया चित्रण.
आप शब्दों के चितेरे हैं वर्मा सा.
ऐसा समाँ बाँधते हैं कि निकल भागना मुश्कल! देर हुई पर फँस गया ये बिहारी!!
बहुत बढ़िया चित्रण
पुलक बिखेरता हुआ ...
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