सूरज सोया रात भर, सुबह गया वह जाग,
बस्ती-बस्ती घूमकर, घर-घर बाँटे आग।
भरी दुपहरी सूर्य ने, खेला ऐसा दाँव,
पानी प्यासा हो गया, बरगद माँगे छाँव।
सूरज बोला सुन जरा, धरती मेरी बात,
मैं ना उगलूँ आग तो, ना होगी बरसात।
सूरज है मुखिया भला, वही कमाता रोज,
जल-थल-नभचर पालता, देता उनको ओज।
पेड़ बाँटते छाँव हैं, सूरज बाँटे धूप,
धूप-छाँव का खेल ही, जीवन का है रूप।
धरती-सूरज-आसमाँ, सब करते उपकार,
मानव तू बतला भला, क्यों करता अपकार।
जल-जल कर देता सदा, सबके मुँह में कौर,
बिन मेरे जल भी नहीं, मत जल मुझसे और।
-महेन्द्र वर्मा
7 comments:
वाह ... धुप, सूरज, आग गर्मी से जुड़े दोहे ... कितने सच्चे और सार्थक सामयिक हैं ...
आपका जवाब नहीं है हर विधा में ...
प्रकृति की विभिन्न विधाओं के समन्वय और जीवन के अस्त्तित्व पर सुंदर दोहे. भई वाह.
बहुत सुन्दर रचना..... आभार
मेरे ब्लॉग की नई रचना पर आपके विचारों का इन्तजार।
बहुत ख़ूबसूरत दोहे...
बहुत ही शानदार और प्रभावी रचना की प्रस्तुति। मुझे बेहद पसंद आई।
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