एक बस्तरिहा गीत और झपताल



परंपरागत जनजातीय गीतों की कुछ अपनी विशिष्टताएं होती हैं । पहली, इनमें 3, 4 या कहीं-कहीं 5 स्वरों का ही उपयोग होता है । आधुनिक संगीत में कुल 12 स्वर होते हैं । कर्नाटक संगीत में 22 स्वर या श्रुतियां होती हैं । लेकिन जनजातीय गीत-संगीत में और कुछ मैदानी लोक गीतों में भी केवल 3 से 5 स्वर ही प्रयुक्त होते हैं ।

उदाहरण के लिए छत्तीसगढ के सुवा गीत के एक मौलिक रूप में 4 स्वरों का ही प्रयोग होता है । यहां उस सुवा गीत का जिक्र हो रहा है जिसे गांवों में महिलाएं ताली बजाती हुई गाती हैं, किसी वाद्य-यंत्र का सहारा नहीं लिया जाता । पंथी गीत और एक बिहाव गीत में 4 स्वरों का  तो जस गीत में 5 स्वरों का प्रयोग होता है । पंथी गीत के मुखड़े में केवल दो स्वरों की ही आवश्यकता होती है ।

दूसरी विशेषता, इन गीतों में अंतरा के लिए अलग धुन नहीं होती । स्थायी की धुन में ही सभी अंतरे गाए जाते हैं ।

तीसरी विशेषता, इन गीतों के कुछ बहुत पुराने और मौलिक रूपों में किसी वाद्य-यंत्र का उपयोग नहीं होता । जैसे, सुवा गीत और बिहाव गीत में । खेतों में काम करते हुए गाए जाने वाले ददरिया गीतों में भी वाद्य-यंत्र की आवश्यकता नहीं होती । लेकिन उनमें ताल स्वाभाविक रूप से मौजूद होता है ।

इन विशेषताओं से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । एक तो ये कि मनुष्य ने गीत-संगीत की शुरुआत इसके सरलतम रूप से की अर्थात 2-3 स्वर वाले गीतों से । दूसरा ये कि ताल वाद्यों और अन्य सहायक वाद्य-यंत्रों का प्रयोग संगीत के विकास क्रम में बहुत बाद में शुरू हुआ । आज भी चीन, जापान, तिब्बत और कुछ अफ्रीकी देशों में 5 स्वर वाले गीत-संगीत ही वहां के मुख्य संगीत-रूप हैं ।

बात शुरू हुई थी जनजातीय गीतों से । बस्तर के कांंडागांव जिले के बड़गैंया गांव के जनजातीय कलाकारों द्वारा गाया गया ये पारंपरिक गोंडी गीत पहले सुन लेते हैं -

अब इस गीत की विशेषताएं-

इस समूह गीत में केवल 3 स्वरों का प्रयोग हुआ है । आधार स्वर सा के अतिरिक्त शुद्ध गंधार और मंद्र सप्तक के पंचम का । गीत की पंक्ति ‘ग’ स्वर से आरंभ होती है लेकिन इस स्वर को केवल छूकर ‘सा’ तक मीड़ जैसे रूप में वापस आती है और फिर एक निश्चित लय में सा से ग तथा ग से सा के बीच मानो झूलती रहती है ।  मंद्र सप्तक के ‘प’ में पंक्ति के गायन का केवल अंतिम छोर ही पहुंचता है ।

प, सा और ग की यह स्वर-संगति बहुत ही कर्णप्रिय है । यह गीत मन में अनाम-सा कोमल भाव भी जगाता है। संगीत-शास्त्रों में कहा गया है कि 5 स्वर से कम का कोई राग संभव नहीं है। भले ही यह गीत इस परिभाषा के अनुसार राग के दायरे में न हो किंतु मन में ‘राग’ उत्पन्न करने में तो सक्षम है ही ।

गीत में ताल वाद्य का प्रयोग हुआ है । सुनने से प्रतीत होता है कि जो ताल प्रयुक्त हुआ है वह केवल 2 मात्रा का है । लेकिन लय के अनुसार पंक्ति की एक आवृत्ति में मात्राओं को गिनने से पता चलता है कि कुल 10 मात्राएं हैं ।इस गीत में झपताल नहीं बजा है, 2-2 मात्रा की 5 आवृत्ति से यह गीत के लय के अनुकूल हो जाता है । किंतु गीत का प्रवाह झपताल के अनुरूप है । क्योंकि एक आवृत्ति में पंक्ति में जो बलाघात हैं वे पहली, तीसरीं, छठवीं और आठवीं मात्राओं में हैं । स्पष्ट है, ये झपताल है- धी ना, धी धी ना, ती ना, धी धी ना ।

कहने की आवश्यकता नहीं कि संगीत के शास्त्र के अंकुर लोकराग के बीज से ही प्रस्फुटित हुए हैं ।

तो, यह तय है कि संगीत का उद्गम जानने के लिए हमें जनजातीय संगीत-सागर में डूबना-उतराना होगा ।



-महेन्द्र वर्मा

4 comments:

Bharat Bhushan said...

सुरों की सरलता और सामूहिक गान का जादू सिर चढ़ कर बोलता है. इस तरह का गीत मैंने पहली बार सुना है. आपका आभार.

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ३१ मई २०१८ - विश्व तम्बाकू निषेध दिवस - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

दिगम्बर नासवा said...

सुर और ताल के संगम से मधुर संगीत की उत्पत्ति होती है और स्वरों के साथ गाया हुआ गीत ही कर्णप्रिय लगता है ...
आंचलिक गीतों को सुन के ही पता चलता है की कितनी गहरे तक हमारे समाज में संगीत की पैठ है ... आपने बाखूबी स्वरों के समूह और उनके प्रयोग से उत्पन लोक गीतों को रखा है यहाँ ...
बहुत लाजवाब पोस्ट ...

Satish Saxena said...

अनूठी पोस्ट , आभार आपका !