कभी छलकती रहती थीं ,
बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया ,
कैसे अपनी धरती पर ।
सभी मुसाफिर इस सराय के ,
आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की ,
बस जीने की धरती पर ।
ममतामयी प्रकृति को चिंता ,
है अपनी संततियों की,
सबके लिए जुटा कर रक्खा ,
दाना -पानी धरती पर ।
पूछ रहे हो हथेलियों पर,
कैसे रेखाएँ खींचें,
चट्टानों पर ज़ोर लगा,
हैं बहुत नुकीली धरती पर ।
रस्म निभाने सबको मरना,
इक दिन लेकिन उनकी सोच,
जो हैं अनगिन बार मरा ,
करते जीते -जी धरती पर ।
जब से पैसा दूध-सा हुआ,
महल बन गए बाँबी-से,
नागनाथ औ’ साँपनाथ की,
भीड़ है बढ़ी धरती पर ।
मौसम रूठा रूठी तितली ,
रूठी दरियादिली यहाँ,
जाने किसकी नज़र लग गई,
आज हमारी धरती पर ।
-महेन्द्र वर्मा
5 comments:
बहुत सुन्दर
नज़र त नहीं हमने ख़ुद ही बना दिया अपनी धरती को ऐसे ...
ये। हीनयान ख़ुद ही करना होगा हमें ...
भावपूर्ण रचना .।
विचारणीय रचना
हकीकत बयाँ करती लाजवाब प्रस्तुति हमेशा की तरह धारदार और मारक
खूबसूरत रचना.
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