अधिक मास - चांद्रवर्ष और सौरवर्ष में तालमेल




कुँवार या आश्विन का महीना शुरू हो गया है। इसके समाप्त होने के बाद इस वर्ष कुँवार का महीना दुहराया जाएगा तब उसके बाद कार्तिक का महीना आएगा। दो कुँवार होने के कारण वर्तमान वर्ष अर्थात विक्रम संवत् 2077 तेरह महीनों का है। तेरह महीने का वर्ष होना कोई दैवी या अलौकिक घटना नहीं है बल्कि प्राचीन भारतीय गणितज्ञों द्वारा स्थापित एक व्यवस्था है ताकि सौर मास और चांद्र मास साथ-साथ चलें । इस अतिरिक्त तेरहवें मास को अधिक मास, अधिमास, खर मास, लौंद मास, मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं।

अधिमास होने की घटना दुर्लभ नहीं है, औसतन प्रत्येक 32-33 महीनों के पश्चात एक अधिमास का होना अनिवार्य है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व की किसी अन्य कैलेण्डर पद्धति में 13 महीने का वर्ष नहीं होता। भारतीय कैलेण्डर में किसी वर्ष 13 महीने निर्धारित किए जाने की लगभग चार हज़ार वर्ष पुरानी परंपरा खगोलीय घटनाओं के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण तथा गणितीय गणना पर आधारित है।

अधिमास का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है, जिसका रचनाकाल 2500 ई. पूर्व माना जाता है। ऋग्वेद (1.25.8) में तेरहवें मास का वर्णन इस प्रकार आया है-‘‘जो व्रतालंबन कर अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं...।‘‘ वाजसनेयी संहिता (22.30) में इसे मलिम्लुच्च तथा संसर्प कहा गया है किंतु (22.31) में इसके लिए अंहसस्पति शब्द का प्रयोग हुआ है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.1) में तेरहवें महीने का नाम महस्वान दिया गया है। इसी ग्रंथ (3.8.3) में अधिमास को संवत्सर रूपी ऋषभ का विष्टप यानी पूंछ कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण (3.1) में अधिमास का वर्णन इस प्रकार है - ‘‘...उन्होंने उस सोम को तेरहवें मास से मोल लिया था इसलिए निंद्य है...।‘‘ नारद संहिता में अधिमास को संसर्प कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी वर्ष में तेरहवें मास को सम्मिलित किए जाने की परंपरा वैदिक युग या उसके पूर्व से ही चली आ रही है।

अधिक मास होने का सारा रहस्य चांद्रवर्ष और सौरवर्ष के कालमान में तालमेल स्थापित किए जाने में निहित है। पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा या अमावस्या से अगली अमावस्या तक के समय को चांद्रमास कहते हैं। सूर्य एक राशि (रविमार्ग का बारहवाँ भाग यानी 30 अंश की परिधि) पर जितने समय तक रहता है वह सौरमास कहलाता है। 12 चांद्रमासों के वर्ष को चांद्रवर्ष और 12 सौर मासों के वर्ष को सौरवर्ष कहते हैं। इन दोनों वर्षमानों की अवधि समान नहीं है। एक सौरवर्ष की अवधि लगभग 365 दिन 6 घंटे होती है जबकि एक चांद्रवर्ष की अवधि लगभग 354 दिन 9 घंटे होती है। अर्थात चांद्रवर्ष सौरवर्ष से लगभग 11 दिन छोटा होता है। दो वर्ष में यह अंतर 22 दिनों का और औसत रूप से 32-33 महीनों में लगभग 29 दिन अर्थात एक चांद्रमास के बराबर हो जाता है। इस तरह 19 सौर वर्षों में 7 अधिमास होते हैं । इस उपाय से चांद्रवर्ष का सौरवर्ष या ऋतुओं के साथ तालमेल स्थापित कर दिया जाता है ताकि दोनों लगभग साथ-साथ चलें। यदि ऐसा न किया जाए तो भारतीय त्योहारों के साथ ऋतुओं का संबंध गड़बड़ा जाएगा । उदाहरण के लिए, दीपावली त्योहार जो शीत ऋतु के आरंभ में होता है वह कभी गर्मी में और कभी बरसात में होने लगेगा ।

किसी चांद्रवर्ष के किस मास को अधिमास निश्चित किया जाए, इसके निर्धारण के लिए प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्रियों ने कुछ गणितीय और वैज्ञानिक आधार निश्चित किए हैं तथा चांद्रमास को सुपरिभाषित किया है। इसे समझने के लिए कुछ प्रारंभिक तथ्यों को ध्यान में रखना होगा -

1. चांद्रमासों का नामकरण दो प्रकार से प्रचलित है। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक की अवधि पूर्णिमांत मास और अमावस्या से अमावस्या तक की अवधि को अमांत मास कहते हैं। अधिमास निर्धारित करने के लिए केवल अमांत मास पर ही विचार किया जाता है।
2. सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण को संक्रांति कहते हैं।
3. कुछ स्थितियों को छोड़ कर सौर मासों की अवधि चांद्र मासों से अधिक होती है जिसके कारण एक सौर मास के बीच में दो अमावस्याएँ हो सकती हैं ।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अधिमास को निम्न दो प्रकार से परिभाषित किया गया है -
क. जब किसी चांद्रमास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती तो वह मास अधिमास होता है।
ख. जब किसी सौरमास में दो अमावस्याएँ घटित हों तब दो अमावस्याओं से प्रारंभ होने वाले चांद्रमासों का एक ही नाम होगा। इनमें से पहले मास को अधिमास और दूसरे को निज या शुद्ध मास कहा जाता है।

इस वर्ष होने वाले दो कुँवार को उदाहरण के रूप में लें -
सूर्य की कन्या संक्रांति 16 सितंबर को और तुला संक्रांति 17 अक्टूबर को है। इन तारीखों के मध्य 17 सितंबर की अमावस्या से 16 अक्टूबर की अमावस्या तक की अवधि के चांद्रमास में सूर्य की कोई संक्रांति नहीं है। इसलिए यह चांद्रमास अधिमास होगा।

पुनः, सूर्य की सिंह राशि में रहने की अवधि, 16 सितंबर से 17 अक्टूबर के मध्य दो अमावस्याएँ, क्रमशः 17 सितंबर और 16 अक्टूबर को घटित हो रही हैं। अतः इन अमावस्याओं को समाप्त होने वाले दोनों चांद्रमासों का नाम कुँवार होगा। इनमें से एक को प्रथम आश्विन तथा दूसरे को द्वितीय आश्विन कहा जाएगा। किंतु पूर्णिमांत मास के अनुसार इन दो आश्विन मासों के 4 पक्ष में से प्रथम कृष्ण पक्ष और अंतिम दूसरे शुक्ल पक्ष को शुद्ध आश्विन मास कहा जाएगा और बीच के दूसरे और तीसरे पक्ष से जो महीना बनेगा वह अधिक आश्विन मास कहा जाएगा । इस अधिक मास में परंपरा के अनुसार व्रत-त्योहार नहीं होते इसीलिए बीच के अधिक मास के दो पक्षों में कोई व्रत त्योहार नहीं है । पितृपक्ष शुद्ध मास के प्रथम पखवारे में और नवरात्रि अंतिम पखवारे में है । इस बार इन दानों पर्वां में एक माह का अंतर है ।
 
भारतीय काल गणना पद्धति में अधिमास की व्यवस्था प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्रियों के ज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है । किंतु यह व्यवस्था भी पूर्णतः त्रुटिहीन नहीं है । यदि इसमें संशोधन न किया गया तो छब्बीस हज़ार वर्षों की अवधि में धीरे-धीरे त्योहारों और ऋतुओं का साथ छूटने लगेगा ।
 
- महेन्द्र वर्मा 



5 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर जानकारी

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

उपयोगी और जानकारीपरक आलेख।

sanskriti said...

ज्ञानवर्धक लेख। 🙏🙏

Amrita Tanmay said...

इतनी सरलता से समझाने के लिए आभार ।

Pandit Bhawarlal Shastri said...

thanks For easy make to this topic