ज्योति कलश छलके,
हुए गुलाबी लाल सुनहरे
रंग दल बादल के.....
यह
एक पुरानी फ़िल्म का गीत है । यह गीत आपको आज भी अच्छा लगता होगा। इस गीत
की कई ख़ूबियों में से एक यह है कि इस गीत की धुन केवल पांच सुरों के मेल
से बनी है । इस गीत के कर्णप्रिय होने का एक कारण यही पांच सुर हैं । हम जो
गाने सुनते, गाते या बजाते हैं उनमें छह और सात सुरों का उपयोग सामान्य है
। कुछ गीतों में तो सभी बारह सुर लगाए गए हैं । संगीत के जानकारों का कहना
है कि पांच से कम सुरों से कोई राग नहीं बन सकता । किसी गीत को गाने के
लिए कम से कम पांच सुरों की आवश्यकता तो होगी ही ।
पांच सुरों से
सजा केवल ‘ज्योति कलश छलके’ ही नहीं है, हज़ारों गीत हैं । ‘पंछी बनूं उड़ती
फिरूं मस्त गगन में’, ‘जाने कहां गए वो दिन’, ‘नीले गगन के तले धरती का
प्यार पले’, ‘तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है’, ‘कोई सागर दिल को
बहलाता नहीं’ आदि फ़िल्मी गीतों के अलावा अनेक गैरफिल्मी गीत, ग़ज़ल, भजन
आदि भी हैं । लोक गीत भी हैं, शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन पांच सुरों
वाले रागों में भी होता ही है । केवल हमारे देश में ही नहीं बल्कि दुनिया
के हर क्षेत्र में पांच सुर वाले गीत-संगीत लोकप्रिय हैं । इसका यह अर्थ
कदापि नहीं है कि छह या सात सुर वाले गीत-संगीत कम लोकप्रिय हैं । संगीत
प्रिय ही होता है, चाहे लोक का हो या शास्त्र का ।
पांच सुरों वाले
गीतों की कर्णप्रियता प्राकृतिक और आदिम है । इस बात को पचास हज़ार वर्ष हो
गए जब मनुष्य ने नैसर्गिक रूप से गुनगुनाना सीख लिया था या कहें, विकसित
कर लिया था। मां जब अपने शिशु को सुला रही होती है तो वह सहसा गुनगुनाने भी
लगती है । यह गुनगुनाना वही आदिम गुनगुनाना है । वही भावना और वही स्वर।
इस गुनगुनाने में स्वाभाविक रूप से तीन, चार या अधिकतम पांच सुरों का
प्रयोग होता है। बच्चों के खेल गीतों में भी प्रायः तीन से पांच सुरों का
प्रयोग होता है ।
अतीत के गीत-संगीत में पांच सुरों के प्रयोग का
एक पुरातात्विक प्रमाण भी मिला है । दक्षिण जर्मनी की पहाड़ियों की एक गुफा
में एक बांसुरी जैसा वाद्ययंत्र मिला है । यह किसी पक्षी की हड्डी से बना
है । इसमें चार छेद हैं जो यह दर्शाते हैं कि इससे पांच स्वर उत्पन्न किए
जाते थे । पुरातत्वविदों ने इसे चालीस-पचास हज़ार साल पुराना माना है । पांच
सौ ई.पू. के तमिल संगम साहित्य में पांच सुरों के समूह ‘पन्’ का उल्लेख है
। पांच सुर वाले रागों की परंपरा यहीं से प्रारंभ हुई ।
प्राचीन
गीतों में सात सुरों में से शुरू के लगातार तीन, चार या पांच सुरों की
प्रधानता होती थी । बाद के विकास क्रम में जब मनुष्य में सुरों का
सौंदर्यबोध थोड़ा और विकसित हुआ तो उसने अनुभव किया कि नैसर्गिक सात सुरों
में से बीच के दो सुरों (जैसे ग और नि) को छोड़ दें तो केवल पांच सुरों के
गाने में कहीं अधिक मधुरता होती है। विश्व के अनेक भागों में आज भी पांच
सुरों वाला गीत-संगीत उनकी संस्कृति की पहचान है । अफ्रीका, दक्षिण
अमेरिका, यूरोप और एशिया के अनेक देशों में पांच सुर वाले गीत लोकप्रिय हैं
। चीन और जापान के संगीत विधान में तो पांच सुरों की ही प्रधानता है ।
हिंदी फ़िल्म ‘लव इन टोकियो’ के गीत ‘सायोनारा सायोनारा’ को जापानी संगीत
में ढालने की कोशिश की गई है।
भारत के अनेक राज्यों के लोकगीतों
में पांच सुर मिलते हैं । हिमाचल और उत्तरांचल के पारंपरिक लोकगीतों में
पांच सुरों की मधुरता स्पष्ट झलकती है । शास्त्रीय राग दुर्गा का विकास
यहीं के लोकगीत से हुआ है । गुजरात का गरबा गीत भी पांच सुरों का है ।
‘पंखिड़ा ओ पंखिड़ा’ आपने ज़रूर सुना होगा । असम के बिहू नृत्य के साथ गाए
जाने वाले गीत भी पांच सुरों से सजे होते हैं।
भारतीय शास्त्रीय
संगीत में पांच सुर वाले 30 से अधिक राग हैं । हिंदी फिल्मों के अनेक गीत
इन्हीं रागों पर आधारित हैं । कुछ उदाहरण देखिए- ‘चंदा है तू मेरा सूरज है
तू’, ‘जा तोसे नहीं बोलूं कन्हैया’, ‘मन तड़पत हरि दरसन को आज’, ‘आ लैट के
आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’, ‘बहारों फूल बरसाओ’, ‘कहीं दीप
जले कहीं दिल’, ‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’, ‘मेरे नैना सावन भादों’
आदि ।
इन गीतों की मधुरता के कई कारणों में एक यह है कि इनके सभी
पांच सुर परस्पर सुसंगत होते हैं। दो सुर अनुपस्थित होने के कारण जो ‘गेप’
बनता है वह गीत में विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है । लेकिन ये सुर सभी गीतों
में एक जैसे नहीं हैं । कुल बारह सुरों में से कोई पांच ऐसे सुर चुने जाते
हैं जो सुनने में रंजक लगे । एक शोध का निष्कर्ष है कि इन से जो राग बने
हैं उनको सुनने से मस्तिष्क को शांत और प्रसन्न रखने वाले रसायन ‘डोपामाइन’
के स्तर में वृद्धि होती है ।
-महेन्द्र वर्मा